Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 30 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 30/ मन्त्र 12
    ऋषिः - बभ्रु रात्रेयः देवता - इन्द्र ऋणञ्चयश्च छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    भ॒द्रमि॒दं रु॒शमा॑ अग्ने अक्र॒न्गवां॑ च॒त्वारि॒ दद॑तः स॒हस्रा॑। ऋ॒णं॒च॒यस्य॒ प्रय॑ता म॒घानि॒ प्रत्य॑ग्रभीष्म॒ नृत॑मस्य नृ॒णाम् ॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भ॒द्रम् । इ॒दम् । रु॒शमाः । अ॒ग्ने॒ । अ॒क्र॒न् । गवा॑म् । च॒त्वारि॑ । दद॑तः । स॒हस्रा॑ । ऋ॒ण॒म्ऽच॒यस्य॑ । प्रऽय॑ता । म॒घानि॑ । प्रति॑ । अ॒ग्र॒भी॒ष्म॒ । नृऽत॑मस्य । नृ॒णाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भद्रमिदं रुशमा अग्ने अक्रन्गवां चत्वारि ददतः सहस्रा। ऋणंचयस्य प्रयता मघानि प्रत्यग्रभीष्म नृतमस्य नृणाम् ॥१२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भद्रम्। इदम्। रुशमाः। अग्ने। अक्रन्। गवाम्। चत्वारि। ददतः। सहस्रा। ऋणम्ऽचयस्य। प्रऽयता। मघानि। प्रति। अग्रभीष्म। नृऽतमस्य। नृणाम् ॥१२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 12
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाग्निदृष्टान्तेन राजविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! यस्यर्णञ्चयस्य गवां चत्वारि सहस्रा ददतः सूर्यस्येदं भद्रं रुशमा अक्रँस्तद्वद्वर्त्तमानस्य तस्य नृणां नृतमस्य तव मघानि वयं प्रयता प्रत्यग्रभीष्म ॥१२॥

    पदार्थः

    (भद्रम्) कल्याणम् (इदम्) (रुशमाः) ये रुशान् हिंसकान् मिन्वति (अग्ने) पावकवद्राजन् (अक्रन्) कुर्वन्ति (गवाम्) किरणानाम् (चत्वारि) (ददतः) (सहस्रा) सहस्राणि (ऋणञ्चयस्य) ऋणं चिनोति येन तस्य (प्रयता) प्रयत्नेन (मघानि) धनानि (प्रति) (अग्रभीष्म) गृह्णीयाम (नृतमस्य) (नृणाम्) ॥१२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथा सूर्यः सहस्राणि किरणान् प्रदाय सर्वं जगदाननन्दयति तथैव राजाऽसङ्ख्याञ्छुभान् गुणान् दत्त्वा प्रजाः सततं हर्षयेत् ॥१२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब अग्निदृष्टान्त से राजविषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी राजन् ! जिस (ऋणञ्चयस्य) अर्थात् जिससे ऋण बटोरता है उसके और (गवाम्) किरणों के (चत्वारि) चार (सहस्रा) हजार को (ददतः) देते हुए सूर्य के (इदम्) इस (भद्रम्) कल्याण को (रुशमाः) हिंसा करनेवालों के फेंकनेवाले (अक्रन्) करते हैं, उसके सदृश वर्त्तमान उस (नृणाम्) मनुष्यों के (नृतमस्य) नृतम् अर्थात् अत्यन्त मनुष्यपनयुक्त श्रेष्ठ आपके (मघानि) धनों को हम लोग (प्रयता) प्रयत्न से (प्रति, अग्रभीष्म) प्रतीति से ग्रहण करें ॥१२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य सहस्रों किरणों को देकर सम्पूर्ण जगत् को आनन्दित करता है, वैसे ही राजा असंख्य उत्तम गुणों को देकर प्रजाओं को निरन्तर प्रसन्न करे ॥१२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    भूमियों का अध्यक्षों में विभाग और प्रबन्ध ।

    भावार्थ

    भा०- ( गवां चत्वारि सहस्रा ददतः सूर्यस्य रुशमाः ) चार हज़ार किरणें देने वाले सूर्य के दीप्ति किरण जिस प्रकार ( इदं मन्द्रम् अक्रन् ) यह सब कल्याणमय सुखदायक प्रकाश उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार हे ( अम्ने ) अग्निवत् तेजस्विन् ! नायक ! ( गवां चत्वारि सहस्रा ददतः ) चार हज़ार आज्ञा-वाणियों या अध्यक्षों को इतनी भूमियां प्रदान करते हुए राजा के अधीन अथवा ( ददतः ) दानशील राजा के ( गवां चत्वारि सहस्रा ) किरणों के तुल्य उसके चार सहस्र ( रुशमाः ) शत्रु हिंसक सैन्य ( इदं भद्रम् अक्रन्) यह सुखकारी राज्यप्रबन्ध बनावें । और हम (नृणां नृतमस्य ) नायकों में श्रेष्ठ नायक राजा के भृत्यजन ( ऋणञ्चयस्य ) धन संग्रही राजा के ( मघानि ) उत्तम धनों को ( प्रयता ) प्रयत्न करके उद्योग पूर्वक ( प्रति अग्रभीष्म ) स्वीकार करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बभ्रुरात्रेय ऋषिः ॥ इन्द्र ऋणञ्चयश्च देवता ॥ छन्दः–१,५, ८, ९ निचृत्त्रिटुप् । १० विराट् त्रिष्टुप् । ७, ११, १२ त्रिष्टुप् । ६, १३ पंक्तिः । १४ स्वराट् पंक्तिः । १५ भुरिक् पंक्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ऋणञ्चय व रुशम [आचार्य+उपाध्याय]

    पदार्थ

    १. 'ऋण' शब्द जल के लिए [rain] प्रयुक्त होता है - ये जल ही शरीर में रेतःकण हैं। इनका संचय करनेवाला – ऊर्ध्वरेता – ही ऋणञ्चय है। एक आचार्य को इसी प्रकार ऊर्ध्वरेता 'ऋणञ्चय' होना ही चाहिए। एक आचार्य कुल में सब उपाध्याय भी 'रुशम' (रुश हिंसायाम्) - काम, क्रोध आदि शत्रुओं के हिंसक होने उचित हैं। ऐसे आचार्यों व उपाध्यायों से शिक्षा ग्रहण करते हुए ही विद्यार्थी उत्तम ज्ञानयुक्त जीवनवाले बन सकते हैं। सो विद्यार्थी कहते हैं कि गवाम् ज्ञान की वाणियों के (चत्वारि सहस्त्रा) = चार हजार को यजुर्वेद सामवेद को - (ददत:) = देते हुए (रुशमा:) = वासनाओं का संहार करते हुए उपाध्यायों ने, हे अग्ने प्रभो ! (इदं भद्रम् अक्रन्) = यह कल्याण ही किया है। यजुर्वेद के यज्ञों व साम की उपासना द्वारा ही तो वासनाओं का संहार होता है । २. इन उपाध्यायों से इन ज्ञानों को तो हमने ग्रहण किया ही है। साथ ही (नृणां नृतमस्य) = आगे लेचलनेवालों में सर्वश्रेष्ठ [मनुष्यों के मनुष्य] (ऋणञ्चयस्य) = उर्ध्वरेता आचार्य के (प्रयता) = पवित्र (मघानि) = ज्ञानैश्वर्यों को हमने (प्रत्यग्रभीष्म) = ग्रहण किया है। इन उपाध्यायों व आचार्य ने ही हमें इस ज्ञानदुग्धवाणी वेदवाणीरूप गौ के ज्ञानदुग्ध को पिलाया है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम आचार्य व उपाध्यायों से ज्ञान को ग्रहण करें। इसी प्रकार हम वासनाओं का संहार करनेवाले व ऊर्ध्वरेता बन पाएँगे–रुशम व ऋणञ्चय बन पाएँगे।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसा सूर्य हजारो किरणांद्वारे सर्व जगाला आनंदित करतो. तसे राजाने असंख्य शुभगुणांनी प्रजेला सतत प्रसन्न करावे. ॥ १२ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, refulgent ruler, it is a great blessing of Indra, the sun, giver of four thousand rays of light, wealth of existence, and destroyers of negativities, which he collects from nature, and gives us. He is the best leader and guide of humanity, and with gratitude and best efforts we should acknowledge and benefit from these gifts of energy and power.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    By the illustration of Agni (fire or sun), the duties of a king are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king! purifier like the fire, you are like the sun. In his light men try to pick up or repay the debts of three kinds, that gives or emits four thousand of rays and his happiness is enjoyed by the overcomers (defeaters) of the violent enemies. Let us take (accept) your wealth with hard labor as you are the best among leading men.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! the sun gladdens the whole world by spreading its thousands of rays. In the same manner, a king should gladden all his subjects by giving innumerable good virtues.

    Foot Notes

    (गवाम् ) किरणानाम् । गाव इति रश्मिनाम (NG 1, 5)। = Of the rays. (रुपमा:) ये रुशान हिंसकान् मिन्वति प्रक्षिपन्ति व । रुष-हिंसायाम् । मीञ हिंसायाम् । = Those who throw away the violent persons.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top