ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 30/ मन्त्र 7
ऋषिः - बभ्रु रात्रेयः
देवता - इन्द्र ऋणञ्चयश्च
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वि षू मृधो॑ ज॒नुषा॒ दान॒मिन्व॒न्नह॒न्गवा॑ मघवन्त्संचका॒नः। अत्रा॑ दा॒सस्य॒ नमु॑चेः॒ शिरो॒ यदव॑र्तयो॒ मन॑वे गा॒तुमि॒च्छन् ॥७॥
स्वर सहित पद पाठवि । सु । मृधः॑ । ज॒नुषा॑ । दान॑म् । इन्व॑न् । अह॑न् । गवा॑ । म॒घ॒ऽव॒न् । सम्॒ऽच॒का॒नः । अत्र॑ । दा॒सस्य॑ । नमु॑चेः । शिरः॑ । यत् । अव॑र्तयः । मन॑वे । गा॒तुम् । इ॒च्छन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि षू मृधो जनुषा दानमिन्वन्नहन्गवा मघवन्त्संचकानः। अत्रा दासस्य नमुचेः शिरो यदवर्तयो मनवे गातुमिच्छन् ॥७॥
स्वर रहित पद पाठवि। सु। मृधः। जनुषा। दानम्। इन्वन्। अहन्। गवा। मघऽवन्। सम्ऽचकानः। अत्र। दासस्य। नमुचेः। शिरः। यत्। अवर्तयः। मनवे। गातुम्। इच्छन् ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 7
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ वीरविषयमाह ॥
अन्वयः
हे मघवन् राजंस्त्वं जनुषा दानमिन्वन् सन् यथा सूर्य्यो गवा मेघमंहस्तथा मृधो जहि। सञ्चकानः सन् यथात्रा सूर्य्यो नमुचेर्दासस्य मेघस्य शिरो व्यहँस्तथा त्वं मनवे यद्यां गातुमिच्छंस्तदर्थं शत्रुशिरः स्ववर्त्तयः ॥७॥
पदार्थः
(वि) विशेषेण (सु) शोभने (मृधः) सङ्ग्रामान् (जनुषा) जन्मना (दानम्) (इन्वन्) प्राप्नुवन् (अहन्) हन्ति (गवा) किरणेन (मघवन्) धनैश्वर्य्याढ्य (सञ्चकानः) सम्यक् कामयमानः (अत्रा) अस्मिन् व्यवहारे। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (दासस्य) सेवकवद् वर्त्तमानस्य मेघस्य (नमुचेः) यः स्वं रूपं न मुञ्चति तस्य (शिरः) उत्तमाङ्गम् (यत्) (अवर्त्तयः) वर्त्तयेः (मनवे) मननशीलाय धार्मिकाय मनुष्याय (गातुम्) भूमिं वाणीं वा (इच्छन्) ॥७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजानो ! यः सूर्यो मेघं जित्वा जगत्सुखयति तथा दुष्टाञ्छत्रून् विजित्य प्रजाः सुखयन्तु ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
अब वीर विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (मघवन्) धन और ऐश्वर्य से युक्त राजन् ! आप (जनुषा) जन्म से (दानम्) दान को (इन्वन्) प्राप्त होते हुए जैसे सूर्य्य (गवा) किरण से मेघ का (अहन्) नाश करता है, वैसे (मृधः) संग्रामों को जीतिये और (सञ्चकानः) उत्तम प्रकार कामना करते हुए जैसे (अत्रा) इस व्यवहार में सूर्य (नमुचेः) अपने स्वरूप को नहीं त्यागनेवाले (दासस्य) सेवक के सदृश वर्त्तमान मेघ के (शिरः) उत्तम अङ्ग का (वि) विशेष करके नाश करता है, वैसे आप (मनवे) विचारशील धार्मिक मनुष्य के लिये (यत्) जिस (गातुम्) भूमि वा वाणी की (इच्छन्) इच्छा करते हुए हो, उसके लिये शत्रु के शिर को (सु) उत्तम प्रकार (अवर्त्तयः) नाश करिये ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजजनो ! जो सूर्य मेघ को जीत कर जगत् को सुख देता है, वैसे दुष्ट शत्रुओं को जीत कर प्रजाओं को सुख दीजिये ॥७॥
विषय
गोदुग्धवत् कर संग्रह उपदेश । अवश्य दण्डनीय का शिरच्छेद । पुरस्कार योग्य कामना ।
भावार्थ
भा०-हे ( मघवन् ) उत्तम ऐश्वर्य से युक्त ! आप ( सञ्चकानः ) प्रजा से प्रशंसित एवं प्रजा की स्वयं कामना करता हुआ, ( गवा दानम् इन्वन् ) 'गौ' के तुल्य दुग्धवत् भूमि से करादि अन्न ऐश्वर्यं दान को प्रजा से प्राप्त करता और ( जनुषा ) अपनी प्रसिद्धि वा स्वभाव से ही (मृधः) संग्रामकारी शत्रुओं को (सु) सुखपूर्वक ( वि अहन् ) विविध उपायों से मारे । और (यत्) जो राजा ( मनवे ) मनुष्य प्रजा के हित के लिये ( गातुम् ) भूमि को ( इच्छन् ) चाहा करता है वह तभी ( अत्र ) इस राष्ट्र में ( न-मुचेः ) कभी विना दण्ड दिये न छोड़ने योग्य ( दासस्य ) प्रजा के विनाशकारी शत्रु या दुष्ट पुरुष का ( शिरः ) शिर ( अवर्त्तयः ) काट डालता है । अथवा-( मनवे गातुम् इच्छन् ) ज्ञानयुक्त प्रजाजन के लिये भूमि चाहने वाला राजा ( न-मुचेः ) अपना संग न छोड़ने वाले स्वामिभक्त ( दासस्य ) दास, भृत्यजन के ( शिरः अवर्त्तयः ) शिर को मुकुट पगड़ी आदि से सुशोभित करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बभ्रुरात्रेय ऋषिः ॥ इन्द्र ऋणञ्चयश्च देवता ॥ छन्दः–१,५, ८, ९ निचृत्त्रिटुप् । १० विराट् त्रिष्टुप् । ७, ११, १२ त्रिष्टुप् । ६, १३ पंक्तिः । १४ स्वराट् पंक्तिः । १५ भुरिक् पंक्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
नमुचि के शिर का उद्वर्तन [उलटना ]
पदार्थ
१. हे (मघवन्) - ज्ञानैश्वर्यवाले प्रभो! आप (संचकान:) = स्तूयमान होते हुए (दानम् इन्वन्) = हमारे जीवनों में दानवृत्ति को प्रेरित करते हुए- हमें दानशील [= त्याग की वृत्तिवाला] बनाकर भोगमार्ग से दूर करते हुए- (जनुषा) = अपने जन्म से (मृधः) = हमारा कत्ल करनेवाले इन आसुरभावों को (गवा) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा (सु) = अच्छी प्रकार (वि अहन्) = नष्ट करते हैं । २. (अत्रा) = इस जीवन में (यद्) = जब आप (दासस्य) = हमारा उपक्षय [विनाश] करनेवाले इस (नमुचे:) = हमारा पीछा न छोड़नेवाले अहंकार के (शिरः) = सिर को (अवर्तयः) = आप उलटा देते हैं, अर्थात् हमारे अहंकार को विनष्ट कर देते हैं तो इस (मनवे) = विचारशील पुरुष के लिए आप (गातुम् इच्छन्) = मार्ग को चाहते हैं, अर्थात् इस विचारशील पुरुष को आप सदा मार्ग से ले-चलते हैं। अहंकार ही मनुष्य को मार्ग भ्रष्ट करता है। विचारशील पुरुष सदा मार्ग पर चलनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें ज्ञान देकर- त्याग की वृत्तिवाला बनाते हुए वासनाओं से दूर करते हैंअहंकार को नष्ट करके हमें मार्ग पर ले चलते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजजनांनो! जसा सूर्य मेघांना जिंकून जगाला सुख देतो, तसे तुम्ही दुष्ट शत्रूंना जिंकून प्रजेला सुख द्या. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, commander of honour and valour, ruling lord of excellence, from your very emergence thirsting for battle, breaking the cloud with the roar of thunder and lightning, energising and winning prizes for humanity with the desire to make way for progress, you arise here and now and break the stronghold of the dark cloud locking up the waters of rain showers.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of heroes are described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! possessor of abundant wealth and liberal by their very nature, you give charity from birth, and destroy your enemies in the battle like the sun destroys the cloud by his rays. Desiring well the welfare and land or good speech for all the thoughtful righteous persons, cut off the head of wicked stubborn man as the sun cuts off the head of the cloud.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king ! as the sun gives happiness to the world by conquering the cloud, so bestow happiness on your subjects, by conquering your enemies.
Foot Notes
(सचकानः ) सम्यक्कामयमानः चकमानः कान्तिकर्मा । (NG 2, 6)। कान्तिः कामना । चकमानः एव चकान: मवर्ण लोपात् । = Desiring well (the welfare of all ). (नमुचेः ) यः स्वरूपं न मुचंति तस्य = Of the stubborn cloud (which does not give up it's form. Ed.) (दासस्य ) सेवकवद वर्त्तंमानस्य मेघस्य । दास-दाने (भ्वा० ) जलदातुः मेषस्य । = Of the cloud that is like a servant subservient. Ed.). (गातुम् ) भूमिवाणीं वा । गातुरिति पृथिवीनाम (NG 1, 11) आप्त्यर्थमादाय ज्ञान प्रापिका वाणी गृह्णति = To land or the speech.
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