ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 33/ मन्त्र 2
ऋषिः - गातुरात्रेयः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स त्वं न॑ इन्द्र धियसा॒नो अ॒र्कैर्हरी॑णां वृष॒न्योक्त्र॑मश्रेः। या इ॒त्था म॑घव॒न्ननु॒ जोषं॒ वक्षो॑ अ॒भि प्रार्यः स॑क्षि॒ जना॑न् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठसः । त्वम् । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । धि॒य॒सा॒नः । अ॒र्कैः । हरी॑णाम् । वृ॒ष॒न् । योक्त्र॑म् । अ॒श्रेः॒ । याः । इ॒त्था । म॒घ॒ऽव॒न् । अनु॑ । जोष॑म् । वक्षः॑ । अ॒भि । प्र । अ॒र्यः । स॒क्षि॒ । जना॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स त्वं न इन्द्र धियसानो अर्कैर्हरीणां वृषन्योक्त्रमश्रेः। या इत्था मघवन्ननु जोषं वक्षो अभि प्रार्यः सक्षि जनान् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठसः। त्वम्। नः। इन्द्र। धियसानः। अर्कैः। हरीणाम्। वृषन्। योक्त्रम्। अश्रेः। याः। इत्था। मघऽवन्। अनु। जोषम्। वक्षः। अभि। प्र। अर्यः। सक्षि। जनान् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 33; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे वृषन् मघवन्निन्द्र ! स धियसानोऽर्यस्त्वमर्कैर्नोऽस्माकमस्मान् वा हरीणां योक्त्रमश्रेः। या उत्तमा नीतयः सन्ति तासां जोषमनु वक्षो इत्था जनानाभि प्र सक्षि ॥२॥
पदार्थः
(सः) (त्वम्) (नः) अस्मान् (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (धियसानः) ध्यानं कुर्वन् (अर्कैः) विचारैः (हरीणाम्) मनुष्याणाम् (वृषन्) सुखवृष्टिं कुर्वन् (योक्त्रम्) योजनम् (अश्रेः) सेवयेः (याः) (इत्था) (मघवन्) अत्युत्तमधनयुक्त (अनु) (जोषम्) प्रीतिम् (वक्षः) प्राप्नुहि (अभि) (प्र) (अर्यः) स्वामी राजा (सक्षि) सम्बध्नासि (जनान्) मनुष्यान् ॥२॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। स एवोत्तमो विद्वान् यो मनुष्यान् प्रज्ञा योगाभ्यासादिना वर्धयेत् सर्वदा नीत्यनुसारं कर्म्म कृत्वा प्रजाः प्रसादयेत् ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (वृषन्) सुख की वृष्टि करते हुए (मघवन्) अत्युत्तम धन से युक्त और (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्यवाले (सः) वह (धियसानः) ध्यान करता हुआ (अर्यः) स्वामी राजा (त्वम्) आप (अर्कैः) विचारों से (नः) हम लोगों के वा हम लोगों को (हरीणाम्) मनुष्यों के सम्बन्ध में (योक्त्रम्) एकत्र करने का (अश्रेः) सेवन कीजिये और (याः) जो उत्तम नीतियाँ हैं उनकी (जोषम्) प्रीति को (अनु, वक्षः) अनुकूल प्राप्त हूजिये (इत्था) इस प्रकार से (जनान्) मनुष्यों को (अभि, प्र, सक्षि) अच्छे प्रकार सम्बन्धित करते हो ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । वही उत्तम विद्वान् है, जो मनुष्यों की बुद्धि को योगाभ्यास आदि से बढ़ावे और सब काल में नीति के अनुसार कर्म्म करके प्रजाओं को प्रसन्न करे ॥२॥
विषय
उत्तम नायक के अधीन निर्बलों का प्रबल संघ । अध्यक्ष के कार्य ।
भावार्थ
भा०-हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! ( सः ) वह (त्वं) तू (धियसानः ) राज्य कार्यों की चिन्ता करता तू ( अर्कैः ) अर्चना योग्य, उत्तम साधनों से ( हरीणां योक्तम्) अश्वों के जोड़ने को सारथी के समान समस्त ( हरीणां ) राज्य कार्यों के सञ्चालक अध्यक्ष मनुष्यों को (योक्तम् अश्रेः) योजन, परस्पर संयोग वा उनको नियुक्त वा आश्रय देकर, उत्तम पुरुषों को उत्तम पदों पर नियुक्त कर । हे (वृषन् ) राज्य प्रबन्ध करने हारे बलवान् राजन् ! हे ( मघवन् ) उत्तम ऐश्वर्य के स्वामिन् ! ( इत्था ) इस प्रकार से तू (यः) जिन प्रजाओं का भार ( अनुजोषं ) प्रतिदिन प्रेमपूर्वक ( वक्षः ) अपने ऊपर लेता उन ( जनान् अभि ) मनुष्यों के प्रति तू ( अर्यः ) स्वामिवत् ( प्र सक्षि) खूब सुदृढ़ समवाय युक्त होकर रह ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
संवरणः प्राजापत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, २, ७, पंक्तिः । ३ निचृत्पंक्ति: । ४, १० भुरिक् पंक्ति: । ५, ६ स्वराट्पंक्तिः । । ८ त्रिष्टुप ९ निचृत्त् त्रिष्टुप । दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
प्रभु रूप सारथि
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो ! (स त्वम्) = वे आप (अर्कैः धियसानः) = मन्त्रों द्वारा ध्यान किये जाते हुए, हे (वृषन्) = शक्तिशाली प्रभो ! (न:) = हमारे (हरीणाम्) = इन इन्द्रियाश्वों के (योक्त्रम्) = [नियोजनरज्जु] लगाम को (अश्रेः) = ग्रहण करते हैं - [सेवन करते हैं], अर्थात् आप हमारे सारथि बनते हैं । २. (याः) = जिन प्रजाओं को (इत्थ) = इस प्रकार (अनु जोषम्) = प्रीतिपूर्वक उपासना के अनुसार, अर्थात् जितना-जितना उपासक आपके समीप होता है उतना उतना, हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो! (वक्षः) = उन्हें [अवहः] लक्ष्य की ओर ले चलते हैं और (अर्यः) = स्वामी होते हुए आप (जनान्) = इन शक्ति का विकास करनेवाले लोगों के साथ प्रसक्षि समवेत होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु उपासक के इन्द्रियाश्वों की बागडोर सम्भालते हैं। उपासक को प्राप्त होते हैं। उपासक उपास्य में प्रविष्ट हो जाता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो माणसांना प्रज्ञा व योगाभ्यासाने वाढवितो तोच उत्तम विद्वान असतो व सदैव नीतीनुसार कर्म करून प्रजेला प्रसन्न करतो. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
And you Indra, master and ruler of the nation, commanding power and prosperity, generous as showers of rain, thus addressed with reverence and listening to our prayer, take up the reins of the people, be with them and harness their energy, and with love and faith pursue the noble policies for advancement to completion.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of Indra are elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O showerer of happiness and possessor of excellent wealth! you are very showering and prosperous. Pondering over these lines, our master the king unifies the relation among the human beings with his thoughts. Let us acquire them along with the fine policies, leading to happiness and adjustability. That way, you always establish a unison among the human beings.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Here is a simile. The persons who intensify their intellect and exercises of Yoga, they delight all the people with their actions in pursuance of the set policies.
Foot Notes
(धियसानः ) ध्यानं कुर्वन् । = Performing meditational (Yogic) exercises (अर्कै:) विचारै । = With thoughts. (हरीणाम् ) मनुष्याणाम् । = Of the men. (वृषन् ) सुखवृष्टि कुर्वन् । = Showering happiness. (जोषम् ) प्रीतिम् । = Delight. (द्क्षः) प्राप्तहि । = Achieve. (अर्य्य:) स्वामी राजा । =The owner, king. (सक्षि ) सम्बन्धासि । = Unifies.
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