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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 33/ मन्त्र 4
    ऋषिः - संवरणः प्राजापत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    पु॒रू यत्त॑ इन्द्र॒ सन्त्यु॒क्था गवे॑ च॒कर्थो॒र्वरा॑सु॒ युध्य॑न्। त॒त॒क्षे सूर्या॑य चि॒दोक॑सि॒ स्वे वृषा॑ स॒मत्सु॑ दा॒सस्य॒ नाम॑ चित् ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒रु । यत् । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । सन्ति॑ । उ॒क्था । गवे॑ । च॒कर्थ॑ । उ॒र्वरा॑सु । युध्य॑न् । त॒त॒क्षे । सूर्या॑य । चि॒त् । ओक॑सि । स्वे । वृषा॑ । स॒मत्ऽसु॑ । दा॒सस्य॑ । नाम॑ । चि॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरू यत्त इन्द्र सन्त्युक्था गवे चकर्थोर्वरासु युध्यन्। ततक्षे सूर्याय चिदोकसि स्वे वृषा समत्सु दासस्य नाम चित् ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुरु। यत्। ते। इन्द्र। सन्ति। उक्था। गवे। चकर्थ। उर्वरासु। युध्यन्। ततक्षे। सूर्याय। चित्। ओकसि। स्वे। वृषा। समत्ऽसु। दासस्य। नाम। चित् ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 33; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरिन्द्रगुणानाह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! वृषा त्वं ते यत्पुरूक्था गवे सन्ति तार्न्युवरासु समत्सु युध्यन् सँश्चकर्थ शत्रूँस्ततक्षे सूर्य्याय चिदिव स्व ओकसि दासस्य चिन्नाम प्रकटय ॥४॥

    पदार्थः

    (पुरु) बहूनि (यत्) यानि (ते) तव (इन्द्र) विद्यैश्वर्य्ययुक्त (सन्ति) (उक्था) प्रशंसितानि कर्म्माणि (गवे) गवादिपशुहिताय (चकर्थ) कुर्याः (उर्वरासु) भूमिषु (युध्यन्) (ततक्षे) तनूकरोषि (सूर्य्याय) सूर्यायेव वर्त्तमानाय (चित्) (ओकसि) गृहे (स्वे) स्वकीये (वृषा) बलिष्ठ सन् (समत्सु) सङ्ग्रामेषु (दासस्य) (नाम) संज्ञाम् (चित्) अपि ॥४॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! यावत्य उत्तमाः सामग्र्यः स्युस्ताः सेनायां युद्धाय स्थापय यानि च गृहार्थानि वस्तूनि भवेयुस्तानि गृहे निधेहि ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर इन्द्र के गुणों को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य्य से युक्त (वृषा) बलिष्ठ होते हुए आप (ते) आपके (यत्) जो (पुरु) बहुत (उक्था) प्रशंसित कर्म्म (गवे) गौ आदि पशुओं के हित के लिये (सन्ति) हैं उनको (उर्वरासु) भूमियों में और (समत्सु) सङ्ग्रामों में (युध्यन्) युद्ध करते हुए (चकर्थ) करें और शत्रुओं को (ततक्षे) सूक्ष्म अर्थात् निर्बल करते हो और (सूर्य्याय) सूर्य्य के सदृश वर्त्तमान के लिये (चित्) भी (स्वे) अपने (ओकसि) गृह में (दासस्य) दास के (चित्) निश्चित (नाम) नाम को प्रकट कीजिये ॥४॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! जितनी उत्तम सामग्रियाँ होवें, उनको सेना में युद्ध के लिये स्थापित कीजिये और जो गृह के लिये वस्तु होवें, उनको गृह में स्थापित कीजिये ॥४॥

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    विषय

    उर्वरा भूमियों का विजय । राजा के शासन की विशेषता ।

    भावार्थ

    भा०-हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! ( यत् ) जो (ते) तेरे ( उक्था ) उत्तम प्रशंसनीय कार्य हैं जिनको तू ( गवे ) गवादि पशु और भूमि की उन्नति के लिये ( उर्वरासु युध्यन् चकर्थ ) उपजाऊ भूमियों के निमित्त युद्ध करता हुआ करे, तब तू (वृषा ) मेघवत् वर्षणशील होकर (सूर्याय) सूर्यवत् तेजस्वी पद के योग्य ( स्वे ओकसि ) अपने पद पर रहकर (समत्सु) संग्रामों में ( दासस्य चित् नाम ततक्षे ) जल देने वाले मेघ के तुल्य उदार दाता और राष्ट्र के सेवक रूप से नाम या ख्याति को उत्पन्न कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    संवरणः प्राजापत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, २, ७, पंक्तिः । ३ निचृत्पंक्ति: । ४, १० भुरिक् पंक्ति: । ५, ६ स्वराट्पंक्तिः । । ८ त्रिष्टुप ९ निचृत्त् त्रिष्टुप । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'उर्वरा बुद्धि' रूप क्षेत्र में ज्ञान धेनु का चरना

    पदार्थ

    १. हे इन्द्र शत्रुसंहारक प्रभो ! (यत्) = जब (ते) = आपके (पुरु उक्था सन्ति) = खूब ही स्तोत्र होते हैं, अर्थात् जब एक व्यक्ति आपकी उपासना में (तन्मय) = होता है तो आप (युध्यन्) = वासनारूप 'वृत्र' से युद्ध करते हुए, अर्थात् ज्ञान के गति बन्धक 'काम' को नष्ट करते हुए (उर्वरासु) = ज्ञानशस्य की उत्पत्ति के लिए उपजाऊ बुद्धियों में- बुद्धि रूप क्षेत्रों में – (गवे) = इन ज्ञानवाणियों रूप धेनुओं के लिए (चकर्थ) = स्थान बनाते हैं। उपासक की बुद्धि खूब ही ज्ञान को प्राप्त करनेवाली होती है। २. (वृषा) = शक्तिशाली आप (स्वे ओकसि) = इस उपासक के शरीर रूप अपने घर में (सूर्याय) = ज्ञान सूर्य के उदय के लिए (दासस्य) = ज्ञान को विनष्ट करनेवाले 'वृत्र' [काम] के नाम (चित्) = नाम को भी (समत्सु) = संग्रामों में (ततक्षे) [विनाशयति] = नष्ट कर देते हैं। वासना का विनाश करके ही तो ज्ञानसूर्य के प्रकाश की प्राप्ति का सम्भव है । प्रभु उपासक की वासना को विनष्ट करके उसके जीवन में ज्ञान के सूर्योदय को करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- जब हम प्रभु की उपासना करते हैं, प्रभु हमारी बुद्धि को ज्ञानशस्य के लिए उर्वरा [fertile] बनाते हैं। वहाँ ज्ञानवाणी रूप धेनुएँ चरती है। वासना का विनाश होकर उपासक के जीवन में ज्ञानसूर्य का उदय होता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा! जितकी उत्तम सामग्री असेल ती सेनेत युद्धासाठी वापर व जे गृहोपयोगी पदार्थ असतील त्यांना घरात ठेव. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Many are your acts of generosity, Indra, which you have done for the land and cattle wealth and for fertility of the fields, O generous lord, and while fighting in the battles of life in your own seat, you create the light of life like the sun and earn for yourself the name and fame of the abundant cloud of showers.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of Indra are further mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra ! you are endowed with learning and prosperity. You are reputed for your nice activities aimed at the welfare of cattle wealth, which may be harnessed to turn the lands into fertile ones and in the battlefield. You enfeeble your enemies to the maximum. Presently you should spot out the able and devoted servants in your house like the sun and give them citation.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king ! you should store good articles for your army, and the staff and articles useful for a home should be kept at your residence.

    Foot Notes

    (उक्था ) प्रशंसितानि कर्माणि । = Admirable deeds. (गवे) गवादिपशु हिताय । = For the sake of cattle wealth like cows etc. (ततक्षे ) तनूकरोषि । = You enfeeble. (ओकसि ) गृहे । = In the house. (नाम) संज्ञाम् । = Citation.

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