ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 33/ मन्त्र 9
उ॒त त्ये मा॑ मारु॒ताश्व॑स्य॒ शोणाः॒ क्रत्वा॑मघासो वि॒दथ॑स्य रा॒तौ। स॒हस्रा॑ मे॒ च्यव॑तानो॒ ददा॑न आनू॒कम॒र्यो वपु॑षे॒ नार्च॑त् ॥९॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । त्ये । मा॒ । मा॒रु॒तऽअ॑श्वस्य । शोणाः॑ । क्रत्वा॑ऽमघासः । वि॒दथ॑स्य । रा॒तौ । स॒हस्रा॑ । मे॒ । च्यव॑तानः । ददा॑नः । आ॒नू॒कम् । अ॒र्यः । वपु॑षे । न । आ॒र्च॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत त्ये मा मारुताश्वस्य शोणाः क्रत्वामघासो विदथस्य रातौ। सहस्रा मे च्यवतानो ददान आनूकमर्यो वपुषे नार्चत् ॥९॥
स्वर रहित पद पाठउत। त्ये। मा। मारुतऽअश्वस्य। शोणाः। क्रत्वाऽमघासः। विदथस्य। रातौ। सहस्रा। मे। च्यवतानः। ददानः। आनूकम्। अर्यः। वपुषे। न। आर्चत् ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 33; मन्त्र » 9
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
ये क्रत्वामघासः शोणा मारुताश्वस्य विदथस्य मे रातौ सहस्रा च्यवतानश्चोत सुखयितुं शक्नुयुस्त्ये यश्च ददानो वपुषे मा मामामानूकमार्चत् सोऽर्य्यश्चाऽभितस्तिरस्कृतो न भवति ॥९॥
पदार्थः
(उत) अपि (त्ये) ते (मा) माम् (मारुताश्वस्य) मरुतामिवाश्वानामयं तस्य (शोणाः) रक्तगुणविशिष्टा अग्न्यादयः (क्रत्वामघासः) क्रतुः प्रज्ञा कर्म्मैव मघं धनं येषां ते (विदथस्य) लब्धुं योग्यस्य (रातौ) दाने (सहस्रा) सहस्राणि (मे) मम मह्यं वा (च्यवतानः) च्यावयन् सन् (ददानः) (आनूकम्) आनुकूल्यम् (अर्य्यः) स्वामी (वपुषे) सुरूपाय शरीराय (न) निषेधे (आर्चत्) सत्कुर्यात् ॥९॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! येऽस्माकमभीष्टं साध्नुवन्ति तेषामभीष्टं वयमपि साध्नुयाम एवं स्वामिसेवका अपि वर्त्तेरन् ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
जो (क्रत्वामघासः) बुद्धि वा कर्म्म ही है धन जिनका वे (शोणाः) रक्त गुण से विशिष्ट जन और (मारुताश्वस्य) पवनों के सदृश घोड़ों के सम्बन्धी (विदथस्य) प्राप्त होने योग्य (मे) मेरे वा मेरे लिये (रातौ) दान में (सहस्रा) हजारों को (च्यवतानः) प्राप्त होता हुआ जन (उत) भी सुख देने को समर्थ हों (त्ये) वे और जो (ददानः) देता हुआ (वपुषे) सुन्दर शरीर के लिये (मा) मुझ को (आनूकम्) अनुकूलतापूर्वक (आर्चत्) आदरयुक्त करे वह (अर्य्यः) स्वामी भी सब प्रकार से तिरस्कृत (न) नहीं होता है ॥९॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो हम लोगों के अभीष्ट की सिद्धि करते हैं, उनके अभीष्ट की हम लोग भी सिद्धि करें, इस प्रकार स्वामी और सेवक भी वर्त्ताव करें ॥९॥
विषय
राष्ट्र शरीर को सुशोभित करने का प्रकार ।
भावार्थ
भा०- ( उत) और (मारुत-अश्वस्य) वायु वेग से जाने वाले अश्वों के स्वामी ( विदथस्य ) नाना ऐश्वर्य वा राज्यासन प्राप्त करने वाले राजा के ( रातौ ) दान में ( त्ये ) वे ( शोणाः ) लाल वर्ण के वा अति गति शील, ( क्रत्वा मघासः ) कार्य और बुद्धि से उत्तम धन प्राप्त करने वाले भृत्य जन और ( सहस्रा च्यवतानः ) हज़ारों ऐश्वर्यों का दान करने वाला राजा और ( ददानः ) आभरण देने वाला ( अर्यः ) स्वामी ये सभी (मा) मुझे ( वपुषे आनूकं न मे ) मेरे राष्ट्रमय शरीर को देह को-अनुरूप आभूषण के तुल्य (अर्चत् ) सुशोभित करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
संवरणः प्राजापत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, २, ७, पंक्तिः । ३ निचृत्पंक्ति: । ४, १० भुरिक् पंक्ति: । ५, ६ स्वराट्पंक्तिः । । ८ त्रिष्टुप ९ निचृत्त् त्रिष्टुप । दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
मारुताश्व के शोण अश्व
पदार्थ
१. (उत) = और (त्ये) = वे मामुझे (मारुताश्वस्य) = प्राणसाधना के द्वारा वायुवेगवाले इन्द्रियाश्वोंवाले 'मारुताश्व' के (शोणा:) = तेजस्वी (क्रत्वामघासः) = क्रियाशीलता-शक्ति व प्रज्ञान के द्वारा ऐश्वर्यों को सिद्ध करनेवाले इन्द्रियाश्व [वहन्तु] जीवन यात्रा में ले-चलनेवाले हों। 'वहन्तु' पिछले मन्त्र से अनुवृत्त है। २. (विदथस्य रातौ) = ज्ञानदान के निमित्त (च्यवतानः) = सब बुराइयों को मेरे से च्युत करनेवाला (अर्यः) = स्वामी प्रभु (मे) = मेरे लिए (सहस्रा) = प्रसन्नता से परिपूर्ण (निर्मल) इन्द्रियाश्वों को (ददान:) = देता हुआ (वपुषे आनूकं न) = शरीर के लिए आभरणों के समान (आर्चत्) = दीप्त करता है । [अर्च् to shine, अन्तर्भावितार्थ] । ज्ञानप्राप्ति में प्रवृत्त निर्मल ज्ञानेन्द्रियाँ शरीर की प्रबल शोभा का कारण बनती हैं। पूर्वार्ध में कर्मेन्द्रियों का उल्लेख था । वे तेजस्वी होती हुई क्रियाशीलता के द्वारा ऐश्वर्य की वृद्धि का कारण बनती हैं। इस प्रकार इन कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों से शरीर सुशोभित हो उठता है।
भावार्थ
भावार्थ-प्राणसाधना द्वारा हमारी कर्मेन्द्रियाँ तेजस्वी व ऐश्वर्य की साधक बनें। ज्ञानेन्द्रियाँ निर्मल होती हुई ज्ञानवृद्धि द्वारा शरीर को सुशोभित करें।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जे लोक आमचे भले करू इच्छितात त्यांचे आम्हीही भले करावे. या प्रकारे स्वामी व सेवकांनीही वागावे. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
And may those vibrating gifts of the lord, who commands the winds as a charioteer drives and controls the horses, red hot in action, vested with holy perception and action, help me in the abundant creative yajna of the social order, so that the Lord and Master, inspiring me and giving me grace a thousand ways, may love and accept me like an ornament for the body.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of learned person is treated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I wish that the people accomplished with the wealth of intellect or actions, are distinguished because of their red (fierce ) nature. They deserve to have fast horses, so that they can oblige thousands of people with their purification. He gives me proper respect for my handsome body, and such an owner is never humiliated.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! those who accomplish our desires, let us also do the same way. In fact, this is an ideal way of relation between a master and his servant.
Foot Notes
(मारुताश्वस्य ) मरुतामिवाश्वानामयं तस्य । = Of the horses fast like wind. (ऋत्वामघासः ) ऋतुः प्रज्ञाकम्मैव मघं धनं येषांते । = Those whose wealth is intellect and ideal actions. (विदथस्य ) लब्धु योग्यस्य । = Worthy to be acquired of (चव्यवतान:) च्यावयन् सन् | = Coming to. (आनूकम्) आनुकूल्यम्। = Proper . (वपुषे ) सुरूपाय शरीराय । = For handsome body.
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