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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 33/ मन्त्र 7
    ऋषिः - संवरणः प्राजापत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    ए॒वा न॑ इन्द्रो॒तिभि॑रव पा॒हि गृ॑ण॒तः शू॑र का॒रून्। उ॒त त्वचं॒ दद॑तो॒ वाज॑सातौ पिप्री॒हि मध्वः॒ सुषु॑तस्य॒ चारोः॑ ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । ऊ॒तिऽभिः॑ । अ॒व॒ । पा॒हि । गृ॒ण॒तः । शू॒र॒ । क॒रून् । उ॒त । त्वच॑म् । दद॑तः । वाज॑ऽसातौ । पि॒प्री॒हि । मध्वः॑ । सुऽसु॑तस्य । चारोः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा न इन्द्रोतिभिरव पाहि गृणतः शूर कारून्। उत त्वचं ददतो वाजसातौ पिप्रीहि मध्वः सुषुतस्य चारोः ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव। नः। इन्द्र। ऊतिऽभिः। अव। पाहि। गृणतः। शूर। कारून्। उत। त्वचम्। ददतः। वाजऽसातौ। पिप्रीहि। मध्वः। सुऽसुतस्य। चारोः ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 33; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! त्वमूतिभिरेवा गृणतः कारून्नोऽस्मानव। हे शूर ! वाजसातौ त्वचं ददतः सुषुतस्य मध्वश्चारोर्जनस्यैश्वर्य्यं पाहि उत पिप्रीहि ॥७॥

    पदार्थः

    (एवा) निश्चये। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (नः) अस्मान् (इन्द्र) (ऊतिभिः) अन्वेक्षणादिरक्षादिभिः (अव) रक्ष (पाहि) (गृणतः) उपदेशकान् (शूर) निर्भय (कारून्) शिल्पिनः (उत) अपि (त्वचम्) त्वगाच्छादकं रक्षकवर्म (ददतः) (वाजसातौ) सङ्ग्रामे (पिप्रीहि) प्राप्नुहि (मध्वः) मधुरस्य (सुषुतस्य) सम्यक्संस्कृतस्य (चारोः) उत्तमस्य ॥७॥

    भावार्थः

    हे राजँस्त्वं शूरान् प्राज्ञाञ्छिल्पिनो जनान् रक्षित्वा प्रजाः सततं सम्पाल्य सङ्ग्रामे शत्रूञ्जित्वा प्राप्नुहि ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) राजन् ! आप (ऊतिभिः) अन्वेक्षण आदि रक्षा आदिकों से (एवा) ही (गृणतः) उपदेशक (कारून्) शिल्पी (नः) हम लोगों की (अव) रक्षा कीजिये और हे (शूर) भय से रहित ! (वाजसातौ) सङ्ग्राम में (त्वचम्) त्वचा को आच्छादन करने और रक्षा करनेवाले कवच को (ददतः) देते हुए (सुषुतस्य) उत्तम प्रकार संस्कार किये गये (मध्वः) मधुर और (चारोः) उत्तम जन के ऐश्वर्य्य का (पाहि) पालन कीजिये और (उत) भी (पिप्रीहि) प्राप्त हूजिये ॥७॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! आप शूरवीर विद्वान् शिल्पीजनों की रक्षा कर प्रजाओं का निरन्तर पालन करके सङ्ग्राम में शत्रुओं को जीत कर प्राप्त हूजिये ॥७॥

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    विषय

    सेना और प्रजा के लिये अन्न-जल का प्रबन्ध करना राज्य का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०-हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ( एव ) इस प्रकार तू (नः) हमें ( अव ) रक्षा कर । ( गृणतः ) उपदेश करने वाले विद्वानों और ( कारून् ) क्रियाकुशल शिल्पियों को हे ( शूर ) शूरवीर तू ( पाहि ) पालन कर । हे राजन् ( उत ) और ( त्वचं ) अपने शरीर की ( वाजसातौ ददतः ) संग्राम और अन्नोत्पादन, कृषि आदि के कार्य में लगाने वाले पुरुषों को ( चारोः) उत्तम, गमनशील ( सुसुतस्य ) उत्तम रीति से तैयार किये ( मध्वः ) अन्न और जल से ( पिप्रीहि ) पूर्ण कर । शूरवीरों को उत्तम राशन और कृषकों को बहता जल देकर सन्तुष्ट कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    संवरणः प्राजापत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, २, ७, पंक्तिः । ३ निचृत्पंक्ति: । ४, १० भुरिक् पंक्ति: । ५, ६ स्वराट्पंक्तिः । । ८ त्रिष्टुप ९ निचृत्त् त्रिष्टुप । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    गृणता कारुन [क्रियाशील स्तोता]

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (एवा) = गति के द्वारा (नः) = हमें (ऊतिभिः) = सब प्रकार के रक्षणों के द्वारा (अव) = रक्षित करिए। हमारे शरीरों को रोगों से बचाइए, मनों को मलिनता से दूर करिए, बुद्धियों को मन्दता का शिकार न होने दीजिए। २. हे शूर-वासनाओं का संहार करनेवाले प्रभो! आप (गृणतः) = स्तुति करते हुए (कारून्) = कुशलता से कार्यों को करनेवालों को (पाहि) = रक्षित करिए। यह स्तवन व क्रियाशीलता उन्हें वासनाओं से आक्रान्त न होने दे। २. (उत) = और (वाजसातौ) = शक्ति के संभजन [प्रापण] के निमित्त आप (मध्वः पिप्रीहि) = इस मधुर सोम [वीर्य का] हमारे में पूरण करिए जो कि (त्वचम् ददत:) = हमें रक्षक आवरण प्राप्त कराता है - त्वचा की तरह हमारा रक्षक बनाता है— हमें रोगों व वासनाओं से आक्रान्त नहीं होने देता सुषुतस्य उत्तम भोजनों द्वारा उत्पन्न किया जा सकता तथा (चारो:) = जीवन को सुन्दर - ही - सुन्दर बना देता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु के क्रियाशील स्तोता बनें। हमें प्रभु का रक्षण प्राप्त होगा और हम सोम का अपने अन्दर पान [रक्षण] करते हुए जीवन को सुरक्षित मधुर व सुन्दर बना पाएँगे।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा! तू शूर वीर विद्वान शिल्पीजनांचे रक्षण करून प्रजेचे निरंतर पालन करून युद्धात शत्रूंना जिंकून घे. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Thus O lord brave and fearless, Indra, protect us, the celebrants, poets, makers and artists, teachers and preachers with all modes of safety and security. And giving us the glowing corselet of self defence in the battle business of life, enjoy the beauty and sweetness of life created, distilled and offered by the admirers and worshippers.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme of Indra (learned person) is focused.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra ! you protect us the preachers and artisans with your investigative faculties. You are fearless and therefore covering your body with arm our, let you guard the well- earned wealth of good persons, and thus reach them.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king! by protecting the brave scholars and artisans, you carry the people with you and defeat the foes in the battlefield.

    Foot Notes

    (ऊतिभिः) अन्वेक्षणादिरक्षादिभि:। = By protective covers. (गृणतः ) उपदेशकान् । = To preachers. (कारून्) शिल्पिनः । = To artisans. (त्वचम् ) त्वगाच्छादकं रक्षकवर्म । = The arm our covering the body. (सुषुतस्य) सम्यक्संस्कृतस्य । = Well earned.

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