ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 33/ मन्त्र 8
ऋषिः - संवरणः प्राजापत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
उ॒त त्ये मा॑ पौरुकु॒त्स्यस्य॑ सू॒रेस्त्र॒सद॑स्योर्हिर॒णिनो॒ ररा॑णाः। वह॑न्तु मा॒ दश॒ श्येता॑सो अस्य गैरिक्षि॒तस्य॒ क्रतु॑भि॒र्नु स॑श्चे ॥८॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । त्ये । मा॒ । पौ॒रु॒ऽकु॒तस्यस्य॑ । सू॒रेः । त्र॒सद॑स्योः । हि॒र॒णिनः॑ । ररा॑णाः । वह॑न्तु । मा॒ । दश॑ । श्येता॑सः । अ॒स्य॒ । गै॒रि॒ऽक्षि॒तस्य॑ । क्रतु॑ऽभिः । नु । स॒श्चे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत त्ये मा पौरुकुत्स्यस्य सूरेस्त्रसदस्योर्हिरणिनो रराणाः। वहन्तु मा दश श्येतासो अस्य गैरिक्षितस्य क्रतुभिर्नु सश्चे ॥८॥
स्वर रहित पद पाठउत। त्ये। मा। पौरुऽकुत्स्यस्य। सूरेः। त्रसदस्योः। हिरणिनः। रराणाः। वहन्तु। मा। दश। श्येतासः। अस्य। गैरिऽक्षितस्य। क्रतुऽभिः। नु। सश्चे ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 33; मन्त्र » 8
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्विषयमाह ॥
अन्वयः
पौरुकुत्स्यस्य त्रसदस्योर्हिरणिनोऽस्य गैरिक्षितस्य सूरेः क्रतुभिस्सह रराणा मा वहन्तूत त्ये दश श्येतास इव मा वहन्तु तानहं नु सश्चे ॥८॥
पदार्थः
(उत) अपि (त्ये) ते (मा) माम् (पौरुकुत्स्यस्य) बहुवज्रादिशस्त्राऽस्त्रविदोऽपत्यस्य (सूरेः) मेधाविनः (त्रसदस्योः) त्रस्यन्ति दस्यवो यस्मात् (हिरणिनः) हिरण्यादिधनयुक्तस्य (रराणाः) रममाणा ददमाना वा (वहन्तु) (मा) माम् (दश) (श्येतासः) श्वेतवर्णा अश्वाः (अस्य) (गैरिक्षितस्य) गिरौ पर्वते क्षितं निवसनं यस्य तस्य (क्रतुभिः) प्रज्ञाकर्मभिः (नु) सद्यः (सश्चे) सम्बध्नामि ॥८॥
भावार्थः
ये सत्यसन्धाः सत्पुरुषमित्राः प्रज्ञां वर्धयन्तो दुष्टान्निवारयन्ति तैः सहाहमनुबध्नामि ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
अब विद्वद्विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
(पौरुकुत्स्यस्य) बहुत वज्र आदि शस्त्र और अस्त्रों को जाननेवाले के सन्तान (त्रसदस्योः) जिससे डाकू चोर आदि डरते हैं ऐसे (हिरणिनः) सुवर्ण धन आदि से युक्त (अस्य) इस (गैरिक्षितस्य) पर्वत में रहनेवाले (सूरेः) बुद्धिमान् जन की (क्रतुभिः) बुद्धि और कर्म्मों के साथ (रराणाः) रमते वा देते हुए (मा) मुझ को (वहन्तु) प्राप्त हों (उत) और भी (त्ये) वे (दश) दश संख्या परिमित (श्येतासः) श्वेत वर्णवाले घोड़े के सदृश (मा) मुझ को प्राप्त हों, उनका मैं (नु) शीघ्र (सश्चे) सम्बन्ध करता हूँ ॥८॥
भावार्थ
जो सत्य धारण करनेवाले और सत्पुरुष जिनके मित्र ऐसे जन बुद्धि को बढ़ाते हुए दुष्टों का निवारण करते हैं, उनके साथ मैं मेल करता हूँ ॥८॥
विषय
विद्वानों वीरों के सहयोग से उत्तम प्रबन्ध ।
भावार्थ
भा०- ( उत) और ( पौरुकुत्स्यस्य ) बहुत सी सैन्य समुदाय वा शस्त्रधर सैनिकों के अध्यक्ष ( सूरेः ) विद्वान् ( त्रसदस्योः ) भय त्रस्त शत्रु को उखाड़ फेंकने वाले वा दस्युओं को भयभीत करने वाले ( हिरणिनः ) सुवर्णादि ऐश्वर्य के स्वामी के ( रराणाः ) अति चपल, क्रीड़ा से चलने वाले ( त्ये ) वे ( श्येतासः ) श्वेत, शुक्लवर्ण दशों अश्वसैन्य (मा वहन्तु ) मुझ राष्ट्र के कार्य-भार को धारण करें । और (अस्य) इस (गैरिक्षितस्य) पर्वतादि दुर्ग के निवासी वा वाणी आज्ञा आदि या वेद या यरस्पर की स्थिर शर्तों की मर्यादा में रहने वाले ( अस्थ ) इस राजा के ( क्रतुभिः) उत्तम कर्मों और ज्ञानों से मैं (नु ) अवश्य शीघ्र ही ( सश्चे ) उत्तम रूप से प्रबन्ध युक्त हो जाऊं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
संवरणः प्राजापत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, २, ७, पंक्तिः । ३ निचृत्पंक्ति: । ४, १० भुरिक् पंक्ति: । ५, ६ स्वराट्पंक्तिः । । ८ त्रिष्टुप ९ निचृत्त् त्रिष्टुप । दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
गैरिक्षित के ऋतुओं से युक्त होना
पदार्थ
१. (उत) = और (त्ये) = वे (मा) = मुझे (दश) = दस (श्येतासः) = उज्ज्वल, विषय- पंक से अलिप्त इन्द्रियाश्व (वहन्तु) = जीवन यात्रा में आगे और आगे ले चलें । वे इन्द्रियाश्व मुझे ले चलें, जो कि (पौरुकुत्स्यस्य) = खूब ही वासनाओं का संहार करनेवाले को (रराणाः) = दिये गये हैं। (सूरेः) = ज्ञानी पुरुष के लिए दिये गये हैं। (त्रसदस्योः) = जिससे दास्यववृत्तियाँ भयभीत होती हैं - उस त्रसदस्यु को जो दिये गये हैं तथा (हिरणिनः) = [हिरण्यवतः हिरण्यं वै वीर्यम्] वीर्यवान् पुरुष को दिये गये हैं। २. इन इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करके (अस्य) = इस (गैरिक्षितस्य) = वेदवाणियों [ज्ञानवाणियों में] निवास करनेवाले के (क्रतुभिः) = प्रज्ञानों-शक्तियों व यज्ञात्मक कर्मों से (नु) = निश्चयपूर्वक (सश्चे) = युक्त व समवेत होता हूँ। वस्तुत: जो 'पुरुकुत्स - सूरि-त्रसदस्यु व हिरणी' बनेगा, उसके इन्द्रियाश्व अवश्य प्रशस्त होंगे। यह उन इन्द्रियों के द्वारा उत्तम कर्मों को करता हुआ प्रज्ञानों को प्राप्त करेगा ही। सदा ज्ञान में निवास करनेवाला बनकर यह वासनाओं से बचा रहेगा और शक्तिशाली होगा ।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे इन्द्रियाश्व शुद्ध हों। हम वासनाओं का संहार करनेवाले [पुरुकुत्स] ज्ञानी [सूरि] दास्यववृत्तियों से दूर [त्रसदस्यु] वीर्यवान् [हिरणी] व सदा ज्ञान में निवास करनेवाले [गैरिक्षित] बनें ।
मराठी (1)
भावार्थ
जे सत्यवादी व सत्पुरुषमित्र असून बुद्धी वाढवितात व दुष्टांचे निवारण करतात त्यांच्याबरोबर मी संबंध वाढवितो. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
And may those ten horses (ten senses of perception and volition or five senses of perception and five pranic energies) of the child of the wielder of the thunderbolt, wise and bold, terror of the wicked, lord of golden wealth, abiding on the heights carry me on in life. Playful yet stable are they, gifts of the bountiful, and with holiness of words and actions I abide with them, (and enjoy the beauty and sweetness of life).
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of learned men is dealt.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I seek the company of wisemen cloaked in intellect and actions. They are the progeny of brave persons, well-armed with many missiles, arms and weapons, and the thieves and robbers are afraid of them. They are equipped with gold and riches and live at hills (secure places). As ten white horses reach me, I keep and train them very well.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
I keep my friendship with such good people who are upholders of truth and whose friends put a check on the wickeds and give good advices to them.
Foot Notes
(पौरुकुत्स्यस्य) बहुवज्रादिशस्त्रास्त्रविदोऽपत्यस्य । = Those are equipped with many missiles and arms and weapons-their progeny. (त्रसदस्योः ) तस्यन्ति दस्यवो यस्मात् । = One from whom the thieves and robbers fear. (हिरणिनः) हिरणयादिधनयुक्तस्य । = Endowed with gold and wealth. (श्येतास:) श्वेतवर्णा अश्वा: । = White coloured horses. (गौरिक्षितस्य) गिरौ पर्वते क्षितं निवसनं यस्य तस्य । = Of the one who lives on the hills (secure places).
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