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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 36/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रभूवसुराङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः

    आ ते॒ हनू॑ हरिवः शूर॒ शिप्रे॒ रुह॒त्सोमो॒ न पर्व॑तस्य पृ॒ष्ठे। अनु॑ त्वा राज॒न्नर्व॑तो॒ न हि॒न्वन् गी॒र्भिर्म॑देम पुरुहूत॒ विश्वे॑ ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ते॒ । हनू॒ इति॑ । ह॒रि॒ऽवः॒ । शू॒र॒ । शिप्रे॒ इति॑ । रुह॑त् । सोमः॑ । न । पर्व॑तस्य । पृ॒ष्ठे । अनु॑ । त्वा॒ । रा॒ज॒न् । अर्व॑तः । न । हि॒न्वन् । गीः॒ऽभिः । म॒दे॒म॒ । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । विश्वे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ ते हनू हरिवः शूर शिप्रे रुहत्सोमो न पर्वतस्य पृष्ठे। अनु त्वा राजन्नर्वतो न हिन्वन् गीर्भिर्मदेम पुरुहूत विश्वे ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। ते। हनू इति। हरिऽवः। शूर। शिप्रे इति। रुहत्। सोमः। न। पर्वतस्य। पृष्ठे। अनु। त्वा। राजन्। अर्वतः। न। हिन्वन्। गीःऽभिः। मदेम। पुरुऽहूत। विश्वे ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 36; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे हरिवः शूर पुरुहूत राजन् ! यस्य ते शिप्रे हनू गीर्भिर्हिन्वन्नर्वतो न पर्वतस्य पृष्ठे सोमो न व्यवहार आ रुहत् तं त्वा विश्वे वयमनु मदेम त्वमस्मानानन्दय ॥२॥

    पदार्थः

    (आ) (ते) तव (हनू) मुखनासिके (हरिवः) प्रशस्तमनुष्ययुक्त (शूर) शत्रूणां हिंसक (शिप्रे) सुशोभिते (रुहत्) रोहति (सोमः) सोमलता (न) इव (पर्वतस्य) शैलस्य (पृष्ठे) उपरि (अनु) (त्वा) त्वाम् (राजन्) (अर्वतः) अश्वान् (न) इव (हिन्वन्) गमयन् (गीर्भिः) सत्योज्ज्वलाभिर्वाग्भिः (मदेम) आनन्देम (पुरुहूत) बहुभिः कृतसत्कार (विश्वे) सर्वे ॥२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यो राजा सत्सङ्गं विदधाति स पर्वते सोमलतेव सर्वतो वर्धते ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (हरिवः) अच्छे मनुष्यों से युक्त (शूर) शत्रुओं के नाश करनेवाले (पुरुहूत) बहुतों से सत्कार किये गये (राजन्) राजन् ! जिन (ते) आप को (शिप्रे) उत्तम प्रकार शोभित (हनू) मुख और नासिका (गीर्भिः) सत्य से उज्ज्वल वाणियों से (हिन्वन्) चलवाता हुआ (अर्वतः) घोड़ों के (न) सदृश और (पर्वतस्य) पर्वत के (पृष्ठे) ऊपर (सोमः) सोमलता के (न) सदृश व्यवहार (आ, रुहत्) प्रकट होता है उन (त्वा) आप को (विश्वे) सब हम लोग (अनु, मदेम) आनन्दित करें तथा आप हम लोगों को आनन्दित करिये ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो राजा सत्सङ्ग करता है, वह पर्वत में सोमलता के सदृश सब ओर से वृद्धि को प्राप्त होता है ॥२॥

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    विषय

    राष्ट्रपालन में स्थान स्थान पर सैन्य-संस्थापन । मुख के जबड़ों के समान सेनाओं की स्थिति ।

    भावार्थ

    भा०—हे ( हरिवः ) मनुष्यों और अश्व सैन्यों के स्वामिन् ! (शूर) शूरवीर ! जिस प्रकार ( हनू ) सुख पर लगे मुख नासिका वा दोनों जबाड़े (शिप्रे) सुन्दर प्रतीत हों उसी प्रकार ( ते हनू ) तेरी हननकारिणी सेनाएं दायें बायें ( शिप्रे ) मुख पर लगी नासिकाओं वा जबाड़ों के तुल्य अग्रगामी और दृढ़ हों । ( सोमः न ) सोमलता जिस प्रकार ( पर्वतस्य पृष्ठे ) पर्वत के पीठ पर ही ( रुहत् ) उत्पन्न होता और बड़ा होता है उसी प्रकार ( पर्वतस्य पृष्ठे ) पालक शासक वा पर्व पर्व से युक्त सैन्यबल वा शस्त्रबल के ही ऊपर ( सोमः ) ऐश्वर्य भी ( रुहत् ) उत्पन्न होता और बढ़ता है । ( अर्वतः न हिन्वन् ) अश्वों को चलाने वाला सारथि जिस प्रकार अश्वों के पीछे २ रहकर उसको सन्मार्ग पर चलाता है उसी प्रकार (त्वा अनु ) तेरे पीछे रहकर हे ( पुरुहूत) बहुतों से प्रशंसित, वा प्रधान पद पर प्रस्तुत राजन् ! (विश्वे ) हम सब ( गीर्भि: ) उत्तम वाणियों से ( मदेम ) आनन्द लाभ करें वा तेरी स्तुति करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रभूवसुरांगिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ६ त्रिष्टुप । ३ जगती ॥ षडृर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    सोम का शरीर में आरोहण

    पदार्थ

    [१] हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले प्रभो ! (ते हनू) = आपके दिये हुए इन हनुओं में (सोमः आ सहत्) = सोम का आरोहण हो। ये हनु [जबड़े] सदा सोम्य भोजनों का ही सेवन करें। इस सोम्य भोजन के परिणामस्वरूप सोम शरीर में सुरक्षित होकर सब इन्द्रियाश्वों को सशक्त बनाये। हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो ! यह सोम (शिप्रे) = नासिका-छिद्रों में [आढहत्] आरूढ़ हो । अर्थात् प्राणायाम द्वारा हम इस सोम की ऊर्ध्वगति करनेवाले हों। ऊर्ध्वरेता बनकर हम सब रोग व वासनारूप शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले बनें । (न) = और [न इति चार्थे] यह सोम (पर्वतस्य पृष्ठे) = मेरुदण्ड [मेरुपर्वत] के शिखर पर, अर्थात् मस्तिष्क में आरूढ़ हो । यहाँ यह ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर उसे दीप्त बनानेवाला हो। [२] हे (राजन्) = हमारे जीवनों को इस सोम के द्वारा दीप्त बनानेवाले, पुरुहूत बहुतों से पुकारे जानेवाले प्रभो ! (विश्वे) = हम सब (त्वा) = आपके (अनु) = साथ, अर्थात् आपकी उपासना में स्थित हुए-हुए (गीर्भिः) = इन ज्ञान वाणियों से (मदेम) = आनन्द का अनुभव करें। उसी प्रकार आनन्द का अनुभव करें (न) = जैसे कि (अर्वतः हिन्वन्) = घोड़ों को प्रेरित करता हुआ व्यक्ति लक्ष्य - स्थान पर पहुँचने पर आनन्द का अनुभव करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण ही सम्पूर्ण आनन्दों के मूल में है। यह सोमी पुरुष ही प्रभु का उपासक बनता है और ज्ञान की वाणियों से आनन्द को प्राप्त करता है ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपामलंकार आहे. जो राजा सत्संग करतो तो पर्वतामध्ये सोमलता जशी वाढते. तसा चहूंकडून वाढतो. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, great and brave lord of heroic people, may love and sweetness play on your lips, let fragrance breathe from your nose, let success and glory play on your helmet like a soma creeper on mountain top. O ruler of the world all honoured and adored, like a victorious army rejoicing on victory, we all with all our voices in unison invoke and entertain you so that we all enjoy together.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of a king are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! keeping company with admirable good men, honored by many, O destroyer of enemies ! let us be delighted under you who has Soma juice ascending to your beautiful mouth and nose like to the summit of a mountain at the maximum. Like a man driving the horses with encouraging words, let this aroma pervade your body. You should also please us and make us happy.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The king who keeps company with good persons, grows from all sides like the Soma creeper (moon creeper) on the mountain.

    Translator's Notes

    वाजे सुशिप्र गोमति (ऋ० 8, 21, 8 ) इति मन्त्रव्याख्यायां श्रोयास्काचार्य । शिप्र हनू नासिके वा (NKT 6, 4, 16 ) हनू मुखान्तर्गत-हि-गतौ वृद्धो च (स्वा० ) अत्र गत्यर्थः ।

    Foot Notes

    (हनू) मुखनासिके । = Mouth and nose. (हिन्वन्) गमयन् । = Driving.

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