ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 36/ मन्त्र 6
ऋषिः - प्रभूवसुराङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यो रोहि॑तौ वा॒जिनौ॑ वा॒जिनी॑वान्त्रि॒भिः श॒तैः सच॑मना॒वदि॑ष्ट। यूने॒ सम॑स्मै क्षि॒तयो॑ नमन्तां श्रु॒तर॑थाय मरुतो दुवो॒या ॥६॥
स्वर सहित पद पाठयः । रोहि॑तौ । वा॒जिनौ॑ । वा॒जिनी॑ऽवान् । त्रि॒ऽभिः । श॒तैः । सच॑मानौ । अदि॑ष्ट । यूने॑ । सम् । अ॒स्मै॒ । क्षि॒तयः॑ । न॒म॒न्ता॒म् । श्रु॒तऽर॑थाय । म॒रु॒तः॒ । दु॒वः॒ऽया ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो रोहितौ वाजिनौ वाजिनीवान्त्रिभिः शतैः सचमनावदिष्ट। यूने समस्मै क्षितयो नमन्तां श्रुतरथाय मरुतो दुवोया ॥६॥
स्वर रहित पद पाठयः। रोहितौ। वाजिनौ। वाजिनीऽवान्। त्रिऽभिः। शतैः। सचमानौ। अदिष्ट। यूने। सम्। अस्मै। क्षितयः। नमन्ताम्। श्रुतऽरथाय। मरुतः। दुवःऽया ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 36; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 6
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 6
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शिल्पिकार्य्यविषयमाह ॥
अन्वयः
हे मरुतो ! यो वाजिनीवाँस्त्रिभिः शतैरस्मै यूने सचमानौ दुवोया वाजिनौ रोहतावदिष्ट तस्मै श्रुतरथाय क्षितयः सन्नमन्ताम् ॥६॥
पदार्थः
(यः) (रोहितौ) विद्युत्प्रसिद्धवह्नी (वाजिनौ) अतिवेगवन्तौ (वाजिनीवान्) वेगक्रियाज्ञानयुक्तः (त्रिभिः) (शतैः) (सचमानौ) सम्बद्धौ (अदिष्ट) दिशेत् (यूने) पूर्णयुवावस्थाय (सम्) (अस्मै) (क्षितयः) मनुष्याः (नमन्ताम्) (श्रुतरथाय) श्रुता रथा यस्य (मरुतः) मनुष्याः (दुवोया) यौ दुवः परिचरणं यातस्तौ ॥६॥
भावार्थः
ये विमानादियानकार्य्येष्वग्न्यादिपदार्थान् संप्रयोजयन्ति ते यावता त्रिभिः शतैरश्वैर्यानं सद्यो नयन्ति तावद्बलं तस्यां कलायां भवति। य एव शिल्पविद्याकृत्येषु प्रसिद्धा जायन्ते तेषां सत्कारः सर्वे कुर्वन्तीति ॥६॥ अत्रेन्द्रविद्वच्छिल्पिकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षट्त्रिंशत्तमं सूक्तं सप्तमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब शिल्पिकार्य्यविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (मरुतः) मनुष्यो ! (यः) जो (वाजिनीवान्) वेग की क्रिया का जाननेवाला (त्रिभिः) तीन (शतैः) सैकड़ों से (अस्मै) इस (यूने) युवा पुरुष के लिये (सचमानौ) मिले हुए (दुवोया) जो परिचरण को प्राप्त होते हैं उन (वाजिनौ) बड़े वेगवाले (रोहितौ) बिजुली और प्रसिद्ध अग्नि का (अदिष्ट) उपदेश देवे उस (श्रुतरथाय) सुने गये वाहन जिसके उसके लिये (क्षितयः) मनुष्य (सम्, नमन्ताम्) अच्छे प्रकार नम्र होवें ॥६॥
भावार्थ
जो विमान आदि वाहन के कार्य्यों में अग्नि आदि पदार्थों का संप्रयोग करते हैं, वे जितने तीन सौ घोड़ों से वाहन शीघ्र पहुँचाते हैं, उतना बल उस कला में होता है और जो इस प्रकार शिल्पविद्या के कृत्यों में प्रसिद्ध होते हैं, उनका सत्कार सब करते हैं ॥६॥ इस सूक्त में इन्द्र विद्वान् और शिल्पी के कृत्य वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह छत्तीसवाँ सूक्त और सप्तम वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
अधीन दो प्रमुख । और प्रजा द्वारा उसका आदर ।
भावार्थ
भा० – (यः) जो ( वाजिनीवान् ) संग्रामकारिणी सेना का स्वामी होकर (त्रिभिः शतैः) तीन सौ जवानों, सैन्य दलों के साथ ( सचमानौ ) समवाय बना कर रहने वाले ( रोहितौ वाजिनौ ) सूर्यवत् तेजस्व बलवान् दो अध्यक्षों को ( आदिष्ट ) आज्ञा देता है (अस्मै यूने ) उस युवा, ( श्रुतरथा ) प्रसिद्ध महारथी के आदर के लिये (क्षितयः ) सामान्य प्रजाजन और ( मरुत: ) वायुवत् तीव्र वेग से जाने वाले और शत्रु को मारने वाले वीरगण भी ( दुवोया ) उसकी सेवा परिचर्या करते हुए (सं नमन्ताम् ) अच्छी प्रकार आदरपूर्वक झुकें । इति सप्तमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रभूवसुरांगिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ६ त्रिष्टुप । ३ जगती ॥ षडृर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'श्रुतरथ' प्रभु
पदार्थ
[१] (यः) = जो प्रभु (वाजिनीवान्) = उत्तम अन्नोंवाले होते हुए (त्रिभिः शतैः सचमानौ) = तीन सौ वर्षों के आयुष्य से युक्त होते हुए (रोहितौ) = बुद्धिशील (वाजिनौ) = इन्द्रियाश्वों को (अदिष्ट) = हमारे लिये देते हैं। (अस्मै) = इस (यूने) = हमारे साथ इन प्रशस्त इन्द्रियाश्वों का मेल करनेवाले प्रभु के लिये (क्षितयः) = सब मनुष्य (संनमन्ताम्) = प्रणत हों। [२] (श्रुतरथाय) - [श्रुतं अस्य अस्ति इति श्रुतः, श्रुतः रथो यस्मात्] ज्ञानयुक्त शरीर रथ को प्राप्त करानेवाले प्रभु के लिये (मरुतः) = सब प्राणसाधक पुरुष (दुवोया) = परिचर्या के द्वारा नमन्ताम् नत हों। प्रभु हमें कितना सुन्दर शरीर-रथ प्राप्त कराते हैं, उस प्रभु ने हमें ये प्राणापान प्राप्त कराये हैं। इनकी साधना के द्वारा जीवन को निर्दोष बनाकर हम सदा प्रभु के प्रति प्रणत हों ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के उपासक बनें प्राणसाधना द्वारा जीवन को निर्दोष बनाकर प्रभु की परिचर्या करें। प्रभु हमें दीर्घ जीवन व उत्तम इन्द्रियाश्व प्राप्त कराते हैं । उस प्रभु के प्रति परिचर्या से प्रणत होता हुआ यह व्यक्ति 'अत्रि' बनता है, सब त्रिविध कष्टों व वासनाओं से दूर। यह प्रभु की उपासना करता हुआ कहता है कि -
मराठी (1)
भावार्थ
जे विमान इत्यादी यानात अग्नी इत्यादी पदार्थांचा उपयोग करतात त्या यंत्रामध्ये तीनशे घोडे जुंपलेली वाहने जशी शीघ्र चालतात तितके बल असते व जे या प्रकारे शिल्पविद्येच्या कार्यात प्रसिद्ध असतात त्यांचा सत्कार सर्व जण करतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let the people of the world bow in honour and reverence to the scholar, expert of the knowledge of motion and speed who teaches this young student the two allied subjects of the science of heat and electric energy with three hundred applications of it and designs a world famous vehicle for transport.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of artists and artisans are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! let all the persons bow before a learned scientist, who possessing the knowledge of speed and its action is renowned for various kinds of vehicles. He gives (this knowledge) to this young man as he is followed by three hundred horses (riders) and gives the instructions regarding electricity and fire (science of power and energy. Ed.) which are inter-linked with each other and provides service when utilized well.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who use speedy fire, electricity etc. in the works of construction of aircraft and other vehicles, they drive the vehicles as powerfully as with the help of three hundred horses (H.P). Such becomes powerful that machine. Those who thus become renowned, on account of the technical works should be honored by all.
Foot Notes
(रोहितौ) विद्युत्प्रसिद्धवन्ही । = Electricity and fire. (science of power and energy). (वाजिनीवान् ) वेगाक्रियाज्ञानयुक्तः । वज-गतौ (भ्वा० ) । = Endowed with the knowledge of speed and its acts. (क्षितयः) मनुष्याः । क्षितय इति मनुष्यनाम (NG 2, 3)। = Men.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal