ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 36/ मन्त्र 4
ए॒ष ग्रावे॑व जरि॒ता त॑ इ॒न्द्रेय॑र्ति॒ वाचं॑ बृ॒हदा॑शुषा॒णः। प्र स॒व्येन॑ मघव॒न्यंसि॑ रा॒यः प्र द॑क्षि॒णिद्ध॑रिवो॒ मा वि वे॑नः ॥४॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । ग्रावा॑ऽइव । ज॒रि॒ता । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । इय॑र्ति । वाच॑म् । बृ॒हत् । आ॒शु॒षा॒णः । प्र । से॒व्येन॑ । म॒घ॒ऽव॒न् । यंसि॑ । रा॒यः । प्र । द॒क्षि॒णित् । ह॒रि॒ऽवः॒ । मा । वि । वे॒नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष ग्रावेव जरिता त इन्द्रेयर्ति वाचं बृहदाशुषाणः। प्र सव्येन मघवन्यंसि रायः प्र दक्षिणिद्धरिवो मा वि वेनः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठएषः। ग्रावाऽइव। जरिता। ते। इन्द्र। इयर्ति। वाचम्। बृहत्। आशुषाणः। प्र। सव्येन। मघऽवन्। यंसि। रायः। प्र। दक्षिणित्। हरिऽवः। मा। वि। वेनः ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 36; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्विषयमाह ॥
अन्वयः
हे हरिवो मघवन्निन्द्र ! यस्त एष जरिता ग्रावेव वाचमियर्त्ति स बृहदाशुषाणः सव्येन प्र दक्षिणित् सन् रायः प्र यंसि स त्वं वि वेनो मा भव ॥४॥
पदार्थः
(एषः) (ग्रावेव) मेघ इव (जरिता) सकलविद्याप्रशंसकः (ते) तव (इन्द्र) शत्रुविदारक राजन् ! (इयर्त्ति) प्राप्नोति (वाचम्) सुशिक्षितां वाणीम् (बृहत्) महत् (आशुषाणः) व्याप्नुवन् सन् (प्र) (सव्येन) वामपार्श्वेन (मघवन्) धनाढ्य (यंसि) प्राप्नोषि नियच्छसि वा (रायः) धनस्य (प्र, दक्षिणित्) दक्षिणेन पार्श्वेनैति गच्छतीति (हरिवः) उत्तमाऽमात्ययुक्त (मा) (वि) विगतार्थे (वेनः) कामयमानः ॥४॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! ये महान्तो विद्वांसो वाचं गृहीत्वा ग्राहयित्वा संयतेन्द्रिया भवन्ति ते निष्कामा न भवन्ति, किन्तु सत्यकामा असत्यद्वेषिणः सततं वर्त्तन्ते ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
अब विद्वद्विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (हरिवः) उत्तम मन्त्रियों से और (मघवन्) धन से युक्त (इन्द्र) शत्रुओं के नाश करनेवाले राजन् ! जो (ते) आपका (एषः) यह (जरिता) सम्पूर्ण विद्याओं की प्रशंसा करनेवाला (ग्रावेव) मेघ के सदृश (वाचम्) उत्तम शिक्षायुक्त वाणी को (इयर्त्ति) प्राप्त होता है, वह (बृहत्) बड़े को (आशुषाणः) व्याप्त होता हुआ (सव्येन) वाम ओर से (प्र, दक्षिणित्) उत्तम प्रकार दहिने भाग से चलनेवाला (रायः) धन के (प्र, यंसि) उत्तम प्रकार प्राप्त होने वा नियम करनेवाले हो वह आप (वि) विशेष करके (वेनः) कामना करनेवाले (मा) न हूजिये ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जो बड़े विद्वान् जन वाणी को ग्रहण कर वा ग्रहण कराय के इन्द्रियों के निग्रह करनेवाले होते हैं, वे निष्फल मनोरथवाले नहीं होते हैं, किन्तु सत्यकाम और असत्य के द्वेषी निरन्तर वर्त्तमान हैं ॥४॥
विषय
ब्रह्म क्षत्र वर्ग का राजा के साथ सम्बन्ध
भावार्थ
भा०-हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (एषः ) यह ( ग्रावा इव ) शिला के समान शत्रु को कुचल देने वाले क्षात्रवर्ग के समान ही ( जरिता ) उत्तम उपदेष्टा विद्वान् भी ( बृहद् आशुषाणः ) बड़े भारी ज्ञान ऐश्वर्य को प्राप्त करता हुआ, ( ते वाचं ) तेरे हितकारी वाणी को ( इयर्त्ति ) प्राप्त हो और तुझे उपदेश करे । हे ( मघवन् ) ऐश्वर्य के स्वामिन् ! तू भी (बृहद् आशुषाणः ) बड़ा राष्ट्र प्राप्त करता हुआ ( सव्येन ) बायें से (रायः प्रयंसि ) ऐश्वर्य को अच्छी प्रकार सुरक्षित करता है तो ( दक्षिणित्) दायें से भी ( प्र यंसि ) अच्छी प्रकार दान किया कर । हे ( हरिवः ) मनुष्यों के स्वामिन् ! तू ( मा विवेनः ) इससे विपरीत आचरण की कभी कामना न कर। राजा की दो बाहुएं हैं क्षत्रियगण और ब्राह्मण वर्ग । वह एक के बल पर राष्ट्र की रक्षा, प्रबन्ध करता,तथा एक के द्वारा उसका सदुपभोग करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रभूवसुरांगिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ६ त्रिष्टुप । ३ जगती ॥ षडृर्चं सूक्तम् ॥
विषय
दायें-बायें हाथों से ऐश्वर्यों के दाता प्रभु
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (एषः) = यह (ग्रावा इव) [गृणाति] ज्ञानोपदेष्टा की तरह जरित आपका स्तोता (बृहत् आशुषाण:) = उत्कृष्ट ज्ञान का शीघ्रता से संभजन करता हुआ, खूब ज्ञान को प्राप्त करता हुआ (ते वाचं इयर्ति) = आपकी स्तुति वाणियों को अपने में प्रेरित करता है। वस्तुतः हमें प्रभु का 'ज्ञानी भक्त' बनने का प्रयत्न करना चाहिए। [२] हे (मघवन्) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (सव्येन) = बायें हाथ से (रायः प्रयंसि) = ऐश्वर्यों को देते हैं और (दक्षिणित् प्र) [यंसि ] = दाहिने से भी धनों को देते हैं। हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वों को देनेवाले प्रभो ! (मा विवेनः) = हमारे लिये ऐश्वर्यों को न देने की कामनावाले मत होइये। सदा हमारे लिये ऐश्वर्यों को आप प्राप्त कराइये ही ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के ज्ञानी भक्त बनें। प्रभु हमारे लिये सब ऐश्वर्यों की प्राप्त करानेवाले हों।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपामालंकार आहे. हे माणसांनो! जे महा विद्वान सुसंस्कृत वाणीचा स्वीकार करून इंद्रियांचा निग्रह करतात त्यांचे मनोरथ निष्फळ होत नाहीत, तर ते सत्यवादी व असत्यद्वेषी असतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of wealth, power and honour, you have attained the heights of wide spaces. This celebrant like a soma press which extracts streams of soma or like a cloud of showers sends up words of praise in your honour for your beneficence. You control and give gifts of wealth by both right and left hands. O warrior of the chariot and leader of men, we pray, do not ignore us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of the enlightened persons are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! you are destroyer of enemies, accompanied by highly learned ministers. This your admirer of all sciences utters balanced and cultured speech like the cloud. Pervading all great knowledge, you move from left to right (remain always active), acquire and control wealth. Be not devoid of all noble desires.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! the great scholars who cultivate well trained and refined speech and train others thereby, being self-controlled, they are not devoid of noble desires, rather they possess truthful desires and always hates untruth.
Foot Notes
(इन्द्र) शत्रुविदारक राजन् । इन्द्रः शत्रूणां दायिता वा द्रावयिता वेति यास्काचार्या। (NKT 1, 1)। = O king, destroyer of enemies. (वेनः ) कामयमानः । वेनेति कान्तिकर्मा (NG 2, 6) कान्ति: कामना वी-गतिव्याप्ति प्रजन कान्त्यसमखा दनेशु (अदा० ) अत्र-कान्त्यर्थः । = Desirous. (ग्रावेव ) मेघ इव । प्रावेति मेघनाम (NG 1, 1, ) = Like a cloud.
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