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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 36/ मन्त्र 5
    ऋषिः - प्रभूवसुराङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    वृषा॑ त्वा॒ वृष॑णं वर्धतु॒ द्यौर्वृषा॒ वृष॑भ्यां वहसे॒ हरि॑भ्याम्। स नो॒ वृषा॒ वृष॑रथः सुशिप्र॒ वृष॑क्रतो॒ वृषा॑ वज्रि॒न्भरे॑ धाः ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृषा॑ । त्वा॒ । वृष॑णम् । व॒र्ध॒तु॒ । द्यौः । वृषा॑ । वृष॑ऽभ्याम् । व॒ह॒से॒ । हरि॑ऽभ्याम् । सः । नः॒ । वृषा॑ । वृष॑ऽरथः । सु॒ऽशि॒प्र॒ । वृष॑क्रतो॒ इति॒ वृष॑ऽक्रतो । वृषा॑ । वज्रि॒न् । भरे॑ । धाः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषा त्वा वृषणं वर्धतु द्यौर्वृषा वृषभ्यां वहसे हरिभ्याम्। स नो वृषा वृषरथः सुशिप्र वृषक्रतो वृषा वज्रिन्भरे धाः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषा। त्वा। वृषणम्। वर्धतु। द्यौः। वृषा। वृषऽभ्याम्। वहसे। हरिऽभ्याम्। सः। नः। वृषा। वृषऽरथः। सुऽशिप्र। वृषक्रतो इति वृषऽक्रतो। वृषा। वज्रिन्। भरे। धाः ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 36; मन्त्र » 5
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे सुशिप्र वृषक्रतो वज्रिन्निन्द्र राजन् ! यो वृषा वृषणं त्वा वर्धतु यो वृषा त्वं द्यौरिव वृषभ्यां हरिभ्यां वहसे स वृषा त्वं च वृषरथो वृषा नो भरे धाः ॥५॥

    पदार्थः

    (वृषा) सुखवर्षकः (त्वा) त्वाम् (वृषणम्) बलिष्ठम् (वर्धतु) वर्धताम् (द्यौः) सत्यकामः (वृषा) वृष इव बलिष्ठः (वृषभ्याम्) बलयुक्ताभ्याम् (वहसे) प्राप्नोषि प्रापयसि वा (हरिभ्याम्) हरणशीलाभ्यां हस्ताभ्याम् (सः) (नः) अस्मान् (वृषा) दुष्टानां शक्तिबन्धकः (वृषरथः) बलिष्ठा वृषभा रथे यस्य (सुशिप्र) सुमुखारविन्द (वृषक्रतो) वृषाणां बलवतां प्रज्ञाकर्म्माणीव प्रज्ञाकर्म्माणि यस्य सः (वृषा) विद्यावर्षकः (वज्रिन्) शस्त्रास्त्रवित् (भरे) सङ्ग्रामे (धाः) धर ॥५॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! ये विद्वांसो युष्मान् सर्वदा वर्धयन्ति तांस्त्वं सङ्ग्रामे विजयाय प्रेर्ष्व ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सुशिप्र) उत्तम कमल के समान मुखवाले (वृषक्रतो) बलवानों की बुद्धि और कर्म्मों के सदृश बुद्धि और कर्म्म जिसके वह (वज्रिन्) शस्त्र और अस्त्र के ज्ञान से युक्त राजन् ! जो (वृषा) सुख वर्षानेवाला (वृषणम्) बलिष्ठ (त्वा) आप को (वर्धतु) बढ़ावे और जो (वृषा) वृष के समान बलवान् आप (द्यौः) सत्य कामनावाले के सदृश (वृषभ्याम्) बल से युक्त (हरिभ्याम्) हरणशील हस्तों से (वहसे) प्राप्त होते वा प्राप्त कराते हो (सः) वह (वृषा) दुष्टों की शक्ति रोकनेवाला और आप (वृषरथः) बलिष्ठ बैल रथ में जिनके ऐसे (वृषा) विद्या के वर्षानेवाले (नः) हम लोगों को (भरे) संग्राम में (धाः) धरिये धारण कीजिये ॥५॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो विद्वान् तुम लोगों को सर्वदा बढ़ाते हैं, उनको आप संग्राम में विजय के लिये प्रेरणा दीजिये ॥५॥

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    विषय

    बलशाली, समृद्ध उत्तम राजा का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०- ( वृषा द्यौः ) राज्यप्रबन्ध में कुशल सूर्यवत् तेजस्वी पुरुषा ( वृषणं त्वा वर्धतु ) बलवान् तुझको बढ़ावे । तू ( वृषभ्यां हरिभ्यां ) बलवान् अश्वों से ( वहसे ) धारण किया जाय ! हे (सुशिप्र ) उत्तम मुख नासिका वाले ! हे सुमुख ! (सः) वह तू भी ( वृषा ) उत्तमः प्रबन्धकर्त्ता और ( वृषरथः ) बलवान् अश्वों से युक्त रथ वाला हो । हे (वृषक्रतो ) बलवान् पुरुषों के तुल्य वीरता के कर्म करने वाले ! हे ( वज्रिन् ) वीर्यवन् शस्त्र बल के स्वामिन् ! तू ( वृषा) बलवान् होकर ही (भरे) संग्राम में पालन पोषण में ( नः धाः ) हमें परिपुष्ट कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रभूवसुरांगिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ६ त्रिष्टुप । ३ जगती ॥ षडृर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'वृषा' प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (सुशिप्र) = हमारे लिये शोभन हनू व नासिकाओं को प्राप्त करानेवाले [शोभने शिप्रये स्मात्] (वृषक्रतो) = सुखों के वर्षक ज्ञानवाले (वज्रिन्) = क्रियाशीलतारूप वज्रवाले प्रभो ! (सः) = वे आप ही (नः) = हमारे लिये (वृषा) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले हैं। (वृषरथः) हमें इस शक्ति सम्पन्न शरीर-रथ को देनेवाले हैं। वृषा शक्तिशाली होते हुए आप (भरे धा:) = इस जीवन-संग्राम में हमारा धारण करिये। [२] यह (वृषा द्यौः) = हमारे लिये सब सुखों का वर्षण करनेवाला द्युलोक (वृषणं त्वा) = शक्तिशाली आपका (वर्धतु) = स्तुति द्वारा वर्धन करे। यह द्युलोक हमारे लिये आपकी महिमा को दर्शानेवाला हो। इस द्युलोक का सूर्य व तारे हमें आपका ही स्तवन करते प्रतीत हों । (वृषा) = शक्तिशाली आप (वृषभ्यां हरिभ्याम्) = इन शक्तिशाली ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों के द्वारा वहसे हमारी जीवन-यात्रा का वहन करते हैं। आपके दिये हुए इन साधनों से हम जीवनयात्रा में आगे बढ़ पाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ– यह द्युलोक उस प्रभु की ही महिमा को प्रकट कर रहा है। प्रभु ही हमारे लिये उत्कृष्ट इन्द्रियाश्वों को प्राप्त कराते हैं। प्रभु हमारे लिये उत्तम जबड़ों या नासिका-छिद्रों को प्राप्त कराके हमें जीवन-संग्राम में विजयी बनाते हैं। उत्तम जबड़ों से सात्त्विक भोजन का सम्यक् चर्वण करते हुए हम नीरोग बनते हैं। नासिका-छिद्रों द्वारा प्राणायाम से निर्दोष।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जे विद्वान तुमची सदैव वृद्धी करतात त्यांना तुम्ही युद्धात विजयप्राप्तीसाठी प्रेरणा द्या. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, you are brave and generous, may the gracious heaven elevate and exalt you. Generous and great, you move and rise by ground and powerful modes of transport and yajnic action. May the great lord of mighty chariot, clad in strong helmet, generous of action, wielder of the thunderbolt engage and protect us in the battle of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of attributes of enlightened persons is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king of handsome face ! endowed with intellect and actions of the mighty persons, you wield thunderbolt like powerful arms and missiles. The man who showers knowledge encourages you who are powerful. You being mighty like a bull and desirous of truth carried (helped) by powerful and skillful hands (which grasp desired objects well). Restrainer of the power of the wicked and one in whose cart powerful bulls are yoked, you uphold us in battles.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! the learned persons who always make you advanced (exhort, Ed.) urge them to achieve victory in the battles.

    Translator's Notes

    द्यो: is from दिव-क्रीडा विजिगीषाव्यवहार दयुस्तुति मोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु Here the meaning of कान्ति कामना has been taken. सत्यकाम: Desirous of finding out truth.

    Foot Notes

    .(द्योः) सत्यकामः । = Desirous of arriving at truth. (हरिभ्याम्) हरणशीलाभ्यां हस्ताभ्याम् । हरी-हृन् हरणे (भ्वा० ) हरणशीलौ । = With hands which grasp all desired objects. (वृषा) १ विद्यावर्षक: वृषु-सेचने (भ्वा० ) । = Showerer of knowledge. (वृषा) २. वृष इव बलिष्ठः । = Very powerful like a bull. (वृषा) 3. दुष्टानां शक्तिबन्धकः । = Restrainer or subduer of strength of the wicked.

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