ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 36/ मन्त्र 3
ऋषिः - प्रभूवसुराङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
च॒क्रं न वृ॒त्तं पु॑रुहूत वेपते॒ मनो॑ भि॒या मे॒ अम॑ते॒रिद॑द्रिवः। रथा॒दधि॑ त्वा जरि॒ता स॑दावृध कु॒विन्नु स्तो॑षन्मघवन्पुरू॒वसुः॑ ॥३॥
स्वर सहित पद पाठच॒क्रम् । न । वृ॒त्तम् । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । वे॒प॒ते॒ । मनः॑ । भि॒या । मे॒ । अम॑तेः । इत् । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । रथा॑त् । अधि॑ । त्वा॒ । ज॒रि॒ता । स॒दा॒ऽवृ॒ध॒ । कु॒वित् । नु । स्तो॒ष॒म् । म॒घ॒ऽव॒न् । पु॒रु॒ऽवसुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
चक्रं न वृत्तं पुरुहूत वेपते मनो भिया मे अमतेरिदद्रिवः। रथादधि त्वा जरिता सदावृध कुविन्नु स्तोषन्मघवन्पुरूवसुः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठचक्रम्। न। वृत्तम्। पुरुऽहूत। वेपते। मनः। भिया। मे। अमतेः। इत्। अद्रिऽवः। रथात्। अधि। त्वा। जरिता। सदाऽवृध। कुवित्। नु। स्तोषत्। मघऽवन्। पुरुऽवसुः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 36; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे अद्रिवः पुरुहूत मघवन् सदावृध राजन् ! यस्मादमतेर्म इन्मनो रथाद् वृत्तं चक्रं न भिया वेपते तं त्वं निवारय यः कुवित्पुरूवसुर्जरिता त्वा न्वधि स्तोषत् तं त्वं सत्कुर्य्याः ॥३॥
पदार्थः
(चक्रम्) (न) इव (वृत्तम्) (पुरुहूत) बहुषु सत्कृत (वेपते) कम्पते (मनः) चित्तम् (भिया) भयेन (मे) मम (अमतेः) निर्बुद्धेः (इत्) एव (अद्रिवः) मेघवत्सूर्य इव (रथात्) यानात् (अधि) (त्वा) त्वाम् (जरिता) स्तावकः (सदावृध) सदैव वर्धक (कुवित्) महान् (नु) (स्तोषत्) स्तुयात् (मघवन्) बहुधनयुक्त (पुरूवसुः) असङ्ख्यधनः ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यदि राजा चोरान् साहसिकादीन् प्रयत्नेन न निरुन्ध्याच्छ्रेष्ठान् न सत्कुर्यात्तर्हि भयोद्भवेन प्रजा उद्विग्नाः स्युः ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अद्रिवः) मेघ और सूर्य्य के सदृश वर्त्तमान (पुरुहूत) बहुतों में सत्कार पाये हुए (मघवन्) बहुत धनों से युक्त (सदावृध) सदा वृद्धि करनेवाले राजन् ! जिस कारण (अमतेः, मे) मुझ निर्बुद्धि का (इत्) ही (मनः) चित्त (रथात्) वाहन से (वृत्तम्) वर्त्ते हुए (चक्रम्) चक्र के (न) सदृश (भिया) भय से (वेपते) कंपता है, उस कारण का आप निवारण कीजिये और जो (कुवित्) महान् (पुरूवसुः) असंख्यधन से युक्त (जरिता) स्तुति करनेवाला (त्वा) आपकी (नु) निश्चय (अधि, स्तोषत्) स्तुति करे उसका आप सत्कार करें ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो राजा चोर और साहस करनेवाले जनों का प्रयत्न से न निवारण करे और श्रेष्ठ जनों का न सत्कार करे तो भय के उद्भव से प्रजायें व्याकुल होवें ॥३॥
विषय
अशक्त प्रजा की स्थिति और उसका कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०-हे (अद्रिवः ) मेघों से युक्त सूर्य के समान तेजस्विन् ! शस्त्रास्त्र बल के स्वामिन् ! हे ( पुरुहूत ) बहुतों से प्रशंसित एवं स्वीकृत ! ( रथाद् वृत्तं चक्रं न ) रथ से पृथक हुए चक्र के समान ( मे अमतेः ) मुझ ज्ञानरहित प्रजाजन का ( मनः ) मन ( भिया वेपते ) भय से कांपतां है । हे ( सदा-वृध ) प्रजा के सदा बढ़ानेहारे ! हे ( मघवन् ) उत्तम धन के स्वामिन् ! ( कुवत् जरिता ) बड़े २ स्तुतिकर्ता और ( पुरु-वसुः ) बहुत से धनों से सम्पन्न, या बहुत से वासियों से सम्पन्न राष्ट्र ( त्वा ) तुझको ( अधि स्तोषन् ) अपने ऊपर अध्यक्ष होने के लिये प्रस्ताव करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रभूवसुरांगिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ६ त्रिष्टुप । ३ जगती ॥ षडृर्चं सूक्तम् ॥
विषय
अज्ञान का महाभय
पदार्थ
[१] हे (पुरुहूत) = पालक व पूरक है पुकार [आराधन] जिसका ऐसे प्रभो ! हे (अद्रिवः) = वज्रवन् अथवा उपासनीय प्रभो [ adore], (मे मनः) = मेरा मन (अमतेः) = ज्ञानाभाव के कारण (भिया वेपते इत्) = भय से काँप ही उठता है, इस प्रकार काँप उठता है (न) = जैसे कि (वृत्तं चक्रम्) = परिवर्तित होता हुआ पहिया, चलते हुए पहिये के समान मेरा मन चलायमान हो जाता है। आपका आश्रय ही तो मेरे भय को दूर करेगा, आपका स्मरण ही तो मेरे मन को स्थिर करेगा । [२] सो हे (सदावृध) = सदा से बढ़े हुए (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! (जरिता) = स्तोता मैं (रथाद् अधि) = इस रथ पर बैठा बैठा ही (कुवित् नु) = खूब ही (स्तोषत्) = स्तुति करता हूँ। आप से ही मैं (पुरुवसुः) = पालक व पूरक ज्ञान धन को प्राप्त करके भयरहित होता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु से दूर हो जाने पर संसार में भय से मनुष्य काँप उठता है। प्रभु का उपासन ही अभय देता है।
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा राजा चोर व धीट असणाऱ्या लोकांचे प्रयत्नपूर्वक निवारण करीत नाही, श्रेष्ठ लोकांचा सत्कार करीत नाही, तेव्हा प्रजा भयाने व्याकुळ होते. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, invoked and adored, blazing as sun and generous as cloud, ever greater and greater, commanding knowledge, honour, power, and treasure hold of all wealth, like a wheel in motion my mind is trembling for fear of want of intelligence and understanding and, in praise and adoration of you as commander of the chariot, it raises the voice of prayer and supplication. Listen lord, shelter, haven and home of all.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of king is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O prosperous king ! you are like the sun, sometimes covered with clouds, (i.e. facing the difficulties) ever developed. My mind trembles with fear from bad intellect like a whirling wheel. Remove that cause and make me wise and firm. You should also honor your admirer who is endowed with abundant wealth (of wisdom) and who praises you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
If a king does not restrain thieves and robbers, and does not honor good men, then the subjects will be gripped in fear.
Foot Notes
(अमतेः) निर्वुद्धे: । = From lack of intellect. (जरिता ) स्तावकः । जरिता इति स्तोतृनाम (NG 3, 16)। = Admire. (कुवित्) महाम् । कुवित इति बहुनाम (NG 3, 1 ) अत्र बहु महान् । मनज्ञाने (दिवा० ) । = Great.
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