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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 46/ मन्त्र 2
    ऋषिः - सदापृण आत्रेयः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अग्न॒ इन्द्र॒ वरु॑ण॒ मित्र॒ देवाः॒ शर्धः॒ प्र य॑न्त॒ मारु॑तो॒त वि॑ष्णो। उ॒भा नास॑त्या रु॒द्रो अध॒ ग्नाः पू॒षा भगः॒ सर॑स्वती जुषन्त ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । इन्द्र॑ । वरु॑ण । मित्र॑ । देवाः॑ । शर्धः॑ । प्र । य॒न्त॒ । मारु॑त । उ॒त । वि॒ष्णो॒ इति॑ । उ॒भा । नास॑त्या । रु॒द्रः । अध॑ । ग्नाः । पू॒षा । भगः॑ । सर॑स्वती । जु॒ष॒न्त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्न इन्द्र वरुण मित्र देवाः शर्धः प्र यन्त मारुतोत विष्णो। उभा नासत्या रुद्रो अध ग्नाः पूषा भगः सरस्वती जुषन्त ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। इन्द्र। वरुण। मित्र। देवाः। शर्धः। प्र। यन्त। मारुत। उत। विष्णो इति। उभा। नासत्या। रुद्रः। अध। ग्नाः। पूषा। भगः। सरस्वती। जुषन्त ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 46; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैर्विद्युदादिविद्यावश्यं स्वीकार्येत्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्राग्ने वरुण मित्र मारुत देवा ! भवन्तः शर्धः प्र यन्त। उत हे विष्णो ! उभा नासत्या रुद्रो भगः पूषाध सरस्वती च ग्ना जुषन्त ॥२॥

    पदार्थः

    (अग्ने) विद्वन् (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त (वरुण) श्रेष्ठ (मित्र) सुहृत् (देवाः) विद्वांसः (शर्धः) बलम् (प्र) (यन्त) प्राप्नुवन्ति (मारुत) मरुतां मनुष्याणां मध्ये विदित (उत) अपि (विष्णो) व्यापनशीलम् (उभा) उभौ (नासत्या) अविद्यमानासत्याचरणौ (रुद्रः) दुष्टानां भयङ्करः (अध) (ग्नाः) वाणी (पूषा) पुष्टिकर्त्ताः वायुः (भगः) ऐश्वर्यवान् (सरस्वती) सुशिक्षिता वाणी (जुषन्त) सेवन्ताम् ॥२॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! भवद्भिर्विद्याशरीरबलयोगवृद्धिं कृत्वाऽग्न्यादिविद्या स्वीकार्य्या ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यों को विद्युदादि विद्या अवश्य स्वीकार करने योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य से युक्त (अग्ने) विद्वन् (वरुण) श्रेष्ठ (मित्र) मित्र (मारुत) मनुष्यों में विदित और (देवाः) विद्वानो ! आप (शर्धः) बल को (प्र, यन्त) प्राप्त होते हैं (उत) और हे (विष्णोः) व्यापनशील ! (उभा) दो (नासत्या) असत्य आचरण से रहित जन (रुद्रः) दुष्टों को भयंकर (भगः) ऐश्वर्य्यवान् (पूषा) पुष्टिकारक वायु (अध) इसके अनन्तर (सरस्वती) उत्तम प्रकार शिक्षित वाणी भी (ग्नाः) वाणियों का (जुषन्त) सेवन करें ॥२॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! आप लोगों को चाहिये कि विद्या, शरीर, बल और योग की वृद्धि करके अग्नि आदि विद्या को स्वीकार करें ॥२॥

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    विषय

    प्रतिक्षत्र आत्रेय ऋषिः ॥ १ – ६ विश्वेदेवाः॥ ८ देवपत्न्यो देवताः ॥ छन्दः—१ भुरिग्जगती । ३, ५, ६ निचृज्जगती । ४, ७ जगती । २, ८ निचृत्पंक्तिः ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

    भावार्थ

    भा०-हे (अग्ने) तेजस्विन्, विद्वन् ! हे ( इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हे शत्रुहन्तः ! हे ( वरुण ) श्रेष्ठ पुरुष, हे उत्तम पद के लिये वरने योग्य और प्रजा के कष्टों को वारण करने वाले ! हे ( मित्र ) स्नेही ! हे प्रजा को मरण से बचाने वाले, प्रजा के प्राण, जीवन, धनादि के पालक ! हे ( देवाः) विद्वान् व्यवहारकुशल, विजिगीषु पुरुषो ! हे ( मारुत ) वायु वेग से युक्त वीरगण ! हे विद्वान् पुरुष जनो ! हे ( विष्णो ) व्यापक, सर्वप्रिय पुरुष ! आप सब लोग ( शर्धः प्र यन्त ) बल प्राप्त करो । और ( नासत्या ) कभी परस्पर असत्याचरण न करने वाले स्त्री पुरुष वा गुरु शिष्य ! ( रुद्रः ) दुष्टों का रुलाने वाला सेनापति विद्याओं का उपदेशक गुरु ( अध ) और (पुषा ) प्रजापोषक, (भगः )ऐश्वर्य वान् ( सरस्वती ) उत्तम ज्ञानवाली विदुषी स्त्री ये सब भी ( ग्नाः जुषन्त ) उत्तम गमन योग्य वाणियों, भूमियों तथा गमनयोग्य पद्धतियों का प्रेमपूर्वक सेवन एवं प्रयोग करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रतिक्षत्र आत्रेय ऋषिः ॥ १ – ६ विश्वेदेवाः॥ ८ देवपत्न्यो देवताः ॥ छन्दः—१ भुरिग्जगती । ३, ५, ६ निचृज्जगती । ४, ७ जगती । २, ८ निचृत्पंक्तिः ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'सबल व ज्ञान प्रधान' जीवन

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = प्रकाशस्वरूप, (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन्, (वरुण) = पापनिवारक, (मित्र) = प्रमीति [मृत्यु] से बचानेवाले प्रभो ! (देवा:) = हे दिव्य वृत्तिवाले पुरुषो! (शर्धः) = बल को (प्रयन्त) = [ प्रापयत] प्राप्त कराओ। (मारुत) = हे प्राणसमूह, (उत) = और (विष्णो) = सर्वव्यापक प्रभो! आप हमारे लिये बल को दीजिये । वास्तविक शक्ति लाभ के लिये 'अग्नि' आदि नामों से सूचित भावनाओं को अपने में धारण करना आवश्यक है। हम आगे बढ़ने की वृत्तिवाले हों दिन व दिन अपने प्रकाश को बढ़ायें [अग्नि], जितेन्द्रिय बनें [इन्द्र], पापों से दूर हों [वरुण], नीरोग बनें [मित्र] दिव्य भावनाओंवाले हों [देवा:], प्राणसाधना करें [मारुत] और हृदय को कुछ विशाल बनायें [विष्णु] । यही शक्ति प्राप्ति का मार्ग है। [२] (उभा नासत्या) = दोनों अश्विनी देव, प्राण और अपान (जुषन्त) = हमारे साथ प्रीतिवाले हों, अर्थात् हम प्राणसाधना करें। (रुद्रः) = सब रोगों का दूर भगानेवाला प्रभु हमारे साथ प्रीतिवाला हो, हम पूर्ण नीरोग बनें। (अध) = अब (ग्नाः) = ये छन्दोमयी वेदवाणियाँ हमारे लिये प्रीतिवाली हों, हम इनके स्वाध्याय में रुचिवाले हों। (पूषा भगः) = पोषक ऐश्वर्य हमारे प्रति प्रीतिवाला हो, अर्थात् हम उतना धन अवश्य प्राप्त करें जो हमारे पोषण के लिये आवश्यक हो । (सरस्वती) = ज्ञान की अधिष्ठातृ देवता हमारे प्रति प्रीतिवाली हो। हमारा जीवन ज्ञान प्रधान हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अग्नि आदि देवों की भावना को जीवन में धारण करते हुए सबल बनें । प्राणायाम के द्वारा नीरोग व ज्ञान-सम्पन्न बनें। पोषण के लिये पर्याप्त धन का अर्जन करते हुए ज्ञानप्रधान जीवनवाले हों ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! तुम्ही विद्या, शरीरबल व योगवृद्धी करून अग्नी इत्यादी विद्या शिका. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, O brilliant power of light, fire and knowledge, may Indra, powers of honour and excellence, Varuna, chosen powers of justice and goodness, Mitra, friends, devas, noble powers of nature and humanity, Vishnu, universal lover of life all over, Maruts, leaders of the force and speed of the winds, create strength and courage and bestow it on us. O Ashvins, cooperative powers of truth and rectitude of behaviour, Rudra, powers of justice and punishment, and voices of scholars and sages, Pusha, power of nourishment and vitality, Bhaga, creator of honour and prosperity and Sarasvati, spirit of knowledge, listen to our voice.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Importance of the sciences of electricity and other disciplines is mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person endowed with the great wealth (or wisdom etc ) ! O noble friend person ! you know all the men. Enlightened you, attain the strength. O Omnipresent God ! the teachers and preachers who are free from all false conduct; a person who is fierce for the wicked; the air which nourishes us; a wealthy person, and a cultured lady well-trained and endowed with refined speech-may all these be served or praised with cultured speech.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you have increased knowledge, physical strength and Yogic power and acquire the science of Agni (fire and electricity) and other disciplines.

    Foot Notes

    (शधंः ) बलम् । शर्धः इति बलनाम (NG, 2, 9) = Strength. (मारुत) मरुतां मनुष्याणां मध्ये विदित = Well known among the men: (ग्नाः) वाणीः । ग्ना इति वाङ्नाम (NG, 1, 11) = Speeches. (पूषा ) पुष्टिकर्त्ता वायुः । अयं वै पूषा योऽयं (वातः) पवते एष हीदं सर्वं पुष्यति (Stph, 14, 2, 11, 9) = The air which nourishes.

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