ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 46/ मन्त्र 6
ऋषिः - प्रतिक्षत्र आत्रेयः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
उ॒त त्ये नः॒ पर्व॑तासः सुश॒स्तयः॑ सुदी॒तयो॑ न॒द्य१॒॑स्त्राम॑णे भुवन्। भगो॑ विभ॒क्ता शव॒साव॒सा ग॑मदुरु॒व्यचा॒ अदि॑तिः श्रोतु मे॒ हव॑म् ॥६॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । त्ये । नः॒ । पर्व॑तासः । सु॒ऽश॒स्तयः॑ । सु॒ऽदी॒तयः॑ । न॒द्यः॑ । त्राम॑णे । भु॒व॒न् । भगः॑ । वि॒ऽभ॒क्ता । शव॑सा । अव॑सा । आ । ग॒म॒त् । उ॒रु॒ऽव्यचाः॑ । अदि॑तिः । श्रो॒तु॒ । मे॒ । हव॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत त्ये नः पर्वतासः सुशस्तयः सुदीतयो नद्य१स्त्रामणे भुवन्। भगो विभक्ता शवसावसा गमदुरुव्यचा अदितिः श्रोतु मे हवम् ॥६॥
स्वर रहित पद पाठउत। त्ये। नः। पर्वतासः। सुऽशस्तयः। सुऽदीतयः। नद्यः। त्रामणे। भुवन्। भगः। विऽभक्ता। शवसा। अवसा। आ। गमत्। उरुऽव्यचाः। अदितिः। श्रोतु। मे। हवम् ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 46; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 6
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! ये पर्वतास इव सुशस्तयो नद्य इव सुदीतयो नस्त्रामणे भुवन्। उत उरुव्यचा अदितिर्भगो विभक्ता शवसाऽवसाऽऽगमन्मे हवं श्रोतु त्ये स च सत्कर्त्तव्या भवेयुः ॥६॥
पदार्थः
(उत) (त्ये) ते (नः) अस्मानस्माकं वा (पर्वतासः) मेघा इव (सुशस्तयः) शोभनप्रशंसाः (सुदीतयः) प्रशंसितप्रकाशाः (नद्यः) सरितः (त्रामणे) पालनव्यवहाराय (भुवन्) भवन्तु (भगः) भजनीय ऐश्वर्य्ययोगः (विभक्ता) विभज्य दाता (शवसा) बलेन (अवसा) रक्षणादिना (आ) (गमत्) आगच्छेत् समन्तात् प्राप्नुयात् (उरुव्यचाः) बहुषु व्याप्तः (अदितिः) अविद्यमानखण्डनः (श्रोतु) शृणोतु (मे) मम (हवम्) शब्दम् ॥६॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । ये मेघवज्जगत्पालकाः प्रशंसितं न्यायं विधाय सर्वस्याः प्रजाया विनतिं श्रुत्वा न्यायं कुर्य्युस्ते विनयवन्तो भवन्ति ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (पर्वतासः) मेघों के सदृश (सुशस्तयः) उत्तम प्रशंसायुक्त (नद्यः) नदियों के सदृश (सुदीतयः) प्रशंसित प्रकाशवाले (नः) हम लोगों को वा हमारे (त्रामणे) पालन व्यवहार के लिये (भुवन्) हों (उत) और (उरुव्यचाः) बहुतों में व्याप्त (अदितिः) खण्डन से रहित (भगः) आदर करने योग्य ऐश्वर्य का योग (विभक्ता) विभाग कर देनेवाला (शवसा) बल और (अवसा) रक्षण आदि से (आ, गमत्) सब प्रकार प्राप्त होवे और (मे) मेरे (हवम्) शब्द को (श्रोतु) सुने (त्ये) वे और वह सत्कार करने योग्य होवें ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो मेघ के सदृश संसार के पालन करनेवाले प्रशंसित न्याय का विधान कर सम्पूर्ण प्रजा की विनती सुन के न्याय करें, वे विनययुक्त होते हैं ॥६॥
विषय
गृहस्थ के कर्तव्यों का उपदेश । विद्वानों के कर्तव्य ।
भावार्थ
भा०- ( उत) और ( त्ये ) वे नाना ( पर्वतासः ) मेघ और पर्वत और उनके तुल्य ज्ञान धन के दानशील और अचल ( शस्तयः) उत्तम उपदेष्टा लोग और ( सु-दीतयः) उत्तम दीप्तिमान् और जलादि देनेवाली ( नद्यः ) नदियों के समान सु-समृद्ध प्रजाएं भी ( नः त्रायणे ) हमारी रक्षा और पालन के लिये ( भुवन् ) हों और ( भगः ) सेवा करने योग्य एवं ऐश्वर्यवान् पुरुष भी ( विभक्ता ) धन को प्रजाओं में यथोचित रीति से विभाग करने हारा होकर ( शवसा ) बल और ज्ञान तथा (अवसा ) पालन, तेजस्विता, प्रेम आदि गुणों सहित, (नः) हमें प्राप्त हो और ( उरु-व्यचाः ) बड़े भारी राष्ट्र में व्यापक शक्तिवाला सम्राट् और बहुत सी विद्याओं में व्याप्त ज्ञानवान् पुरुष ( अदितिः ) अखण्ड शासन, अखण्ड व्रत वाला, वा माता पिता के तुल्य होकर ( मे हवम् ) मुझ प्रजाजन की पुकार को ( श्रोतु ) श्रवण करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रतिक्षत्र आत्रेय ऋषिः ॥ १ – ६ विश्वेदेवाः॥ ८ देवपत्न्यो देवताः ॥ छन्दः—१ भुरिग्जगती । ३, ५, ६ निचृज्जगती । ४, ७ जगती । २, ८ निचृत्पंक्तिः ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
विषय
पर्वतासः नद्यः
पदार्थ
[१] (उतः) = और (त्ये) = वे (पर्वतासः) = अपने में ज्ञान का पूरण करनेवाले आचार्य (न:) = हमारे लिये (सुशस्तयः) - ज्ञानों का उत्तम शंसन करनेवाले हों । (सुदीतयः) = उत्तम ज्ञान को देनेवाली (नद्यः) = ज्ञाननदियाँ (स्रामणे) = हमारे रक्षण के लिये (भुवन्) = हों। उत्कृष्ट आचार्यों से उत्कृष्ट ज्ञान को हम प्राप्त करें। [२] (विभक्ता) = संविभाग को करनेवाला (भगः) = ऐश्वर्य का अधिष्ठातृदेव (शवसा) = बल के साथ व (अवसा) = रक्षण के साथ (आगमत्) = हमें प्राप्त हो । अर्थात् हमें ऐश्वर्य मिले। उस ऐश्वर्य का हम संविभागपूर्वक सेचन करनेवाले हों और इस प्रकार हमारा बल बढ़े और हम विषयों से बचे रहें। [३] (उरुव्यचा:) = सब अंगों की शक्ति के खूब [उस] विस्तारवाली [व्यचस्] (अदितिः) = स्वास्थ्य की देवता (मे हवम्) = मेरी पुकार को (श्रोतु) = सुने, अर्थात् मैं खूब स्वस्थ बनूँ।
भावार्थ
भावार्थ- हम ज्ञानी आचार्यों से ज्ञान को प्राप्त करें। संविभागपूर्वक धनों का सेवन करें। स्वस्थ रहें ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे मेघाप्रमाणे जगाचे पालन करणारे असतात. न्यायाचे यथायोग्य नियम तयार करतात. संपूर्ण प्रजेची विनंती ऐकून न्याय करतात ते विनयी असतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
And may those clouds and mountains, and streams and rivers, admirable and majestic, shine and flow for our sustenance and progress. May Bhaga, lord of honour, excellence and prosperity, generous friend of all, come to us with universal strength and protection, and may Aditi, inviolable Mother Nature of unbounded generosity respond to our invocation and prayer and bless us all.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The men's duties are pointed out.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! may the persons who are admirable like the clouds, and beneficent and praiseworthy like the wives, readily available for our protection and preservation. May the achievement of good wealth which is pervasive inviolable and given by proper division (to share with others) reach us with strength and protection etc. May all these listen to my invocation and be honoured by me.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons become humble who sustain the world like the clouds and who dispense admirable justice after hearing the requests of all people.
Foot Notes
(सुदीतयः) प्रंशसितप्रकाशाः । =' Whose light is admired by all. (अदितिः) अविद्यमानखण्डन: । दो अवखण्डने (दि०) दीदयति- ज्वलति कर्मा (N G 1, 16) = Inviolable.
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