ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 57/ मन्त्र 3
धू॒नु॒थ द्यां पर्व॑तान्दा॒शुषे॒ वसु॒ नि वो॒ वना॑ जिहते॒ याम॑नो भि॒या। को॒पय॑थ पृथि॒वीं पृ॑श्निमातरः शु॒भे यदु॑ग्राः॒ पृष॑ती॒रयु॑ग्ध्वम् ॥३॥
स्वर सहित पद पाठधू॒नु॒थ । द्याम् । पर्व॑ताम् । दा॒शुषे॑ । वसु॑ । नि । वः॒ । वना॑ । जि॒ह॒ते॒ । याम॑नः । भि॒या । को॒पय॑थ । पृ॒थि॒वीम् । पृ॒श्नि॒ऽमा॒त॒रः॒ । शु॒भे । यत् । उ॒ग्राः॒ । पृष॑तीः । अयु॑ग्ध्वम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
धूनुथ द्यां पर्वतान्दाशुषे वसु नि वो वना जिहते यामनो भिया। कोपयथ पृथिवीं पृश्निमातरः शुभे यदुग्राः पृषतीरयुग्ध्वम् ॥३॥
स्वर रहित पद पाठधूनुथ। द्याम्। पर्वतान्। दाशुषे। वसु। नि। वः। वना। जिहते। यामनः। भिया। कोपयथ। पृथिवीम्। पृश्निऽमातरः। शुभे। यत्। उग्राः। पृषतीः। अयुग्ध्वम् ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 57; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे उग्राः ! पृश्निमातरो वायव इव यद्यूयं द्यां पर्वतान् धूनुथ तद्दाशुषे वसु धूनुथ यानि वो वना जिहते तानि यामनो यूयं भिया नि कोपयथ यथा वायवः पृथिवीं युञ्जते तथा शुभे पृषतीरयुग्ध्वम् ॥३॥
पदार्थः
(धूनुथ) कम्पयथ (द्याम्) विद्युतम् (पर्वतान्) मेघान् (दाशुषे) दात्रे (वसु) द्रव्यम् (नि) (वः) युष्मान् (वना) जङ्गलानि (जिहते) गच्छन्ति (यामनः) ये यान्ति ते (भिया) भयेन (कोपयथ) (पृथिवीम्) (पृश्निमातरः) अन्तरिक्षमातरः (शुभे) उदकाय। शुभमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.२) (यत्) (उग्राः) तेजस्विनः (पृषतीः) सेचनकर्त्रीरुदकधाराः (अयुग्ध्वम्) योजयत ॥३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथा वायवः पृथिवीं मेघं वनादीनि च कम्पयन्ते यथा शत्रवः शत्रून् कोपयन्ति तथैव विद्वांसः पदार्थान् विमथ्य विद्युदादीन् कम्पयन्ते कार्य्येषु योजयन्ति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (उग्राः) तेजस्वियो ! (पृश्निमातरः) जिनकी माता के सदृश अन्तरिक्ष उन पवनों के सदृश वेग से युक्त (यत्) जो आप लोग (द्याम्) बिजुली और (पर्वतान्) मेघों को (धूनुथ) कँपाइये वह (दाशुषे) दाताजन के लिये (वसु) द्रव्य को कंपित कीजिये जो (वः) आप लोगों को (वना) जङ्गल (जिहते) प्राप्त होते हैं उनको (यामनः) जानेवाले आप लोग (भिया) भय से (नि, कोपयथ) निरन्तर कंपाइये और जैसे पवन (पृथिवीम्) पृथिवी को युक्त होते हैं, वैसे (शुभे) जल के लिये (पृषतीः) सेचन करनेवाली जल की धाराओं को (अयुग्ध्वम्) युक्त कीजिये ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पवन पृथिवी, मेघ और वन आदिकों को कंपाते हैं और जैसे शत्रुजन शत्रुओं को क्रुद्ध करते हैं, वैसे ही विद्वान् जन पदार्थों को मथकर बिजुली आदि को कंपाते हैं और कार्य्यों में युक्त करते हैं ॥३॥
विषय
मेघमालाओं और वायुओं के दृष्टान्त से उनका वर्णन । उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०-हे ( पृश्निमातरः ) पृथिवी माता वा तेजस्वी ज्ञानी वा वीर पुरुष को मातृसमान जान उसके पुत्र जनो ! वीर पुरुषो! विद्वानो ! आप लोग (यद्) जब ( उग्राः ) उग्र, बलवान् होकर ( पृषतीः ) चित्र विचित्र, जल वर्षाने वाली मेघघटाओं के समान अश्वों और सेनाओं को (शुभे) जल प्रदान के तुल्य उत्तम कर्म, शरवर्षण के निमित्त ( अयुङ्-ध्वम् ) रथ, युद्धादि कार्यों में लगाते हो तब ( द्याम् ) कामना योग्य तेजस्वी नायक पुरुष को (धुनुथ) प्राप्त होते हो, (द्यां धुनुथ) पृथिवी को वा अन्तरिक्ष और विजिगीषु शत्रु को और ( पर्वतान् ) पर्वत वत् दृढ़, अचल शत्रु जनों को भी ( धूनुथ ) कंपा देते हो । हे ( यामनः ) यान करने हारो ! ( वः ) आप लोगों के ( भिया ) भय से ( वना ) वायुओं से वनों के समान (वना ) शत्रु के वन्वत् सैन्य समूह ( निजिहते ) पराजित होकर कांपते, एवं रण छोड़ कर भागते हैं। आप लोग (पृथिवी) समस्त भूमण्डल को (कोपयथ) विक्षुब्ध करने में समर्थ होते रहे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १, ४, ५ जगती । २, ६ विराड् जगती । ३ निचृज्जगती । ७ विराट् त्रिष्टुप् । ८ निचृत्-त्रिष्टुप ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
विषय
वीरों द्वारा 'पर्वत-वन-पृथिवी' कम्पन
पदार्थ
[१] हे (पृश्निमातरः) = इस पृथिवी को अपनी माता समझनेवाले वीरो! आप (द्यां पर्वतान्) = द्युलोक व पर्वतों को (धूनुथ) = कम्पित कर देते हो। वीर क्षत्रिय योद्धा जब गति करते हैं तो सारा आकाश ही मानो हलचलवाला हो जाता है और पर्वत भी काँप उठते हैं। ये वीर योद्धा ही (दाशुषे) = मातृभूमि के लिये दान करनेवालों के लिये (वसु) [धूनुथ] = धनों को प्राप्त कराते हैं। जो लोग देशरक्षा के लिये धनों को देते हैं, उनके लिये ये वीर योद्धा शत्रुओं को परास्त करके धनों को प्राप्त करानेवाले होते हैं। (वः) = हे मरुतो ! तुम्हारे (यामनः भिया) = गमन के भय से (वना) = सब वन निजिहते निम्न गतिवाले हो जाते हैं। ये वीर सैनिक मार्ग में आये वानों को काटकर मार्गों को बना लेते हैं । [२] हे मरुतो ! (यद्) = जब (उग्राः) = तेजस्वी व शत्रु भयंकर आप (पृषती:) = अपने घोड़ों को (अयुग्ध्वम्) = जोतते हो और (शुभे) = देशरक्षणरूप शुभ कार्य में गतिवाले होते हो तो (पृथिवीं कोपयथ) = सम्पूर्ण पृथिवी को कम्पित कर देते हो, सम्पूर्ण पृथिवी को क्षुब्ध कर डालते हो ।
भावार्थ
भावार्थ - वीर जब देश-रक्षण के लिये गति करते हैं तो द्युलोक, पृथिवीलोक, पर्वतों व वनों सभी को कम्पित करते हुए आगे बढ़ते हैं और देश के लिये त्याग करनेवालों के लिये वसुओं को प्राप्त कराते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायू, पृथ्वी, मेघ व वन इत्यादींना कंपित करतात व जसे शत्रू शत्रूंवर क्रुद्ध होतात, तसेच विद्वान लोक पदार्थांचे मंथन करून विद्युत इत्यादींना कंपित करतात व कार्यात वापरतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Maruts, children of the firmament, winds and tempests of nature’s energy, you agitate the regions of light, break the clouds and shake the mountains to create wealth for the generous giver. At your approach forests shake with fear and the earth vibrates when in a state of passion for water showers you join and charge the clouds of vapour.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
More about the Maruts is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O heroes ! you are full of splendour, terrible to the wicked like the winds, whose mother is firmament. You shake the sky and the mountains or clouds. You give wealth to the liberal donor. The forests bend down out of your fear. You go on your way fearlessly. You terrify the wicked. As the winds yoke the earth; so yoke the currents of water (hydroelectric) for getting water (irrigational purposes. Ed.).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the winds shake the earth. clouds and forests and as the enemies cause anger to their foes, likewise the enlightened persons analyse or examine all things and shake (generate. Ed.) electricity and other objects i. e. they (apply Ed.) them for various purposes.
Foot Notes
(धुनुथ) कम्पयथ । धून् कम्पने भ्वा० ) | = Shake. (शुभे) उदकाय । शुभमित्युदकनाम (NG 1, 2) | (पुष्ती) सेचन कर्ती: उदकधाराः पृषु-सेचने (भ्वा) = The currents of water which sprinkle.
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