ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 63/ मन्त्र 4
ऋषिः - अर्चनाना आत्रेयः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
मा॒या वां॑ मित्रावरुणा दि॒वि श्रि॒ता सूर्यो॒ ज्योति॑श्चरति चि॒त्रमायु॑धम्। तम॒भ्रेण॑ वृ॒ष्ट्या गू॑हथो दि॒वि पर्ज॑न्य द्र॒प्सा मधु॑मन्त ईरते ॥४॥
स्वर सहित पद पाठमा॒या । वा॒म् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । दि॒वि । श्रि॒ता । सूर्यः॑ । ज्योतिः॑ । च॒र॒ति॒ । चि॒त्रम् । आयु॑धम् । तम् । अ॒भ्रेण॑ । वृ॒ष्ट्या । गू॒ह॒थः॒ । दि॒वि । पर्ज॑न्य । द्र॒प्सा । मधु॑ऽमन्तः । ई॒र॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
माया वां मित्रावरुणा दिवि श्रिता सूर्यो ज्योतिश्चरति चित्रमायुधम्। तमभ्रेण वृष्ट्या गूहथो दिवि पर्जन्य द्रप्सा मधुमन्त ईरते ॥४॥
स्वर रहित पद पाठमाया। वाम्। मित्रावरुणा। दिवि। श्रिता। सूर्यः। ज्योतिः। चरति। चित्रम्। आयुधम्। तम्। अभ्रेण। वृष्ट्या। गूहथः। दिवि। पर्जन्य। द्रप्साः। मधुऽमन्तः। ईरते ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 63; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मित्रावरुणा ! या वां दिवि श्रिता माया सूर्य्यइव यं ज्योतिश्चित्रमायुधं चरति तमभ्रेण वृष्ट्या गूहथो हे पर्जन्य ! दिवि मधुमन्तो द्रप्सा ईरते तथा यूयं विजानीत ॥४॥
पदार्थः
(माया) प्रज्ञा (वाम्) युवयोः (मित्रावरुणा) प्राणोदानवद्राजामात्यौ (दिवि) विद्युति (श्रिता) (सूर्य्यः) सवितेव (ज्योतिः) प्रकाशस्वरूपम् (चरति) गच्छति (चित्रम्) अद्भुतम् (आयुधम्) आयुध्यन्ति येन तत् (तम्) (अभ्रेण) घनेन (वृष्ट्या) (गूहथः) संवृणुथः (दिवि) सूर्य्यप्रकाशे (पर्जन्य) मेघ इव वर्त्तमान (द्रप्साः) विमोहकारकाः (मधुमन्तः) बहूनि मधुराणि कर्माणि विद्यन्ते येषान्ते (ईरते) गच्छन्ति कम्पन्ते वा ॥४॥
भावार्थः
ये राजाऽमात्याः सूर्य्यचन्द्रवत्तीव्रशान्तस्वभावा मेधाविनो वृष्टिवत्प्रजाः पालयन्ति ते सर्वदा सुखमुन्नयन्ति ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (मित्रावरुणा) प्राण और उदान के सदृश वर्त्तमान राजा और मन्त्रीजनो ! (वाम्) आप दोनों की (दिवि) बिजुली में (श्रिता) आश्रित (माया) बुद्धि (सूर्य्यः) सूर्य्य के सदृश जिस (ज्योतिः) प्रकाश रूप (चित्रम्) अद्भुत (आयुधम्) युद्ध करते हैं जिससे उस शस्त्र को (चरति) प्राप्त होती है (तम्) उसको (अभ्रेण) मेघ से और (वृष्ट्या) वृष्टि से (गूहथः) घेरते हो, हे (पर्जन्य) मेघ के समान वर्तमान जन ! (दिवि) सूर्य्य के प्रकाश में (मधुमन्तः) बहुत मधुर कर्म्म विद्यमान जिनके वे (द्रप्साः) विमोह के करनेवाले (ईरते) चलते वा कंपते हैं, वैसे आप जानिये ॥४॥
भावार्थ
जो राजा और मन्त्री जन सूर्य्य और चन्द्रमा के सदृश तीव्र और शान्तस्वभाववाले, बुद्धिमान्, वृष्टि के सदृश प्रजाओं का पालन करते हैं, वे सब काल में सुख की वृद्धि करते हैं ॥४॥
विषय
सूर्य विद्युत्वत् उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०-हे (मित्रावरुणा ) देह में प्राण और उदानवत् राष्ट्र में राजा और सचिव ! प्रजा के स्नेही और श्रेष्ठ पदपर वरण करने योग्य ! जिस प्रकार ( दिवि सूर्यः ज्योतिः ) आकाश में सूर्य और विद्युत् ( चित्रम् आयुधम् ) चित्रमय धनुषाकार होता है और ( अभ्रेण वृष्टया तं गूहथः ) मेघ और वृष्टि द्वारा उसको आच्छादित करते हैं और ( मधुमन्तः द्वप्सा ईरते ) जलमय रस बहते हैं उसी प्रकार हे ( मित्रा वरुणा ) राजा और अमात्य, सभा सेनापतियो ! ( वां ) आप दोनों की ( दिवि ) विद्वानों की राजपरिषत् और संग्राम में विजय कार्य, वा राज-प्रजा व्यवहार में ( माया श्रिता ) बुद्धि संलग्न तथा स्थिर रहे । आप लोगों का (सूर्यः ) सूर्यवत् तेजस्वी ( ज्योतिः ) ज्ञान और प्रताप तथा (चित्रम् ) आश्चर्य करने वाला (आयुधम् ) शस्त्रबल ( दिवि चरति ) पृथिवी पर विचरे । (तम् ) उस प्रताप को आप लोग ( अभ्रेण वृष्टया ) मेघवत् प्रजा के पोषक स्वरूप तथा प्रजा पर नाना सुखों के वर्षण द्वारा (गूहथः) संबृत रक्खो । हे ( पर्जन्य) प्रजाओं को ऐश्वर्य देने हारे ! मेघवत् उदार जन ! राजन् ! तेरे ( मधुमन्तः ) अन्नादि समृद्धि से सम्पन्न ( द्वप्साः ) अन्यों को मोह में डाल देने वाले आप्त जन जल स्रोतों के समान (दिवि ईरते ) पृथिवी पर सर्वत्र विचरें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अर्चनाना आत्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवता ।। छन्दः - १, २, ४, ७ निचृज्जगती। ३, ५, ६ जगती ।। सप्तर्चं सूक्तम् ।।
विषय
ज्योति व आनन्द वृष्टि
पदार्थ
[१] हे मित्रावरुणा स्नेह व निर्देषता के भावो! (वाम्) = आपकी, अर्थात् आपकी उपासना से उत्पन्न, (माया) = प्रज्ञा (दिवि श्रिता) = मस्तिष्करूप द्युलोक में आश्रित होती है। उस द्युलोक में (सूर्यः ज्योतिः) = ज्ञानसूर्य प्रकाशमय होता है। उस समय यह ज्ञानसूर्य (चित्रं आयुधम्) = अद्भुत आयुध होता है। यह सारे अज्ञानान्धकार को नष्ट करके हमारे जीवन को काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं से रहित करता है। [२] हे मित्र और वरुण ! आप (तम्) = उस सूर्य-ज्योति को (अभ्रेण) = धर्ममेध समाधि में विकसित होनेवाले मेघ से और (वृष्ट्या) = आनन्द के वर्षण से (दिवि) = इस द्युलोक में (गूहथ:) = संवृत करते हो, सुरक्षित करते हो । स्नेह व निर्देष के भाव से ही हम इस धर्ममेघ समाधि की स्थिति तक पहुँचते हैं और आनन्द के वर्षण का अनुभव करते हुए ज्ञान को सुरक्षित कर पाते हैं। हे (पर्जन्य) = धर्ममेघ समाधि के मेघ! इस तुरीयावस्था (मधुमन्तः) = अत्यन्त माधुर्यवाले (द्रप्साः) = आनन्दवृष्टि के कण (ईरते) = हमारे जीवन में गतिमय होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- स्नेह व निर्देषता के भाव जीवन को ज्योतिर्मय व आनन्दवर्षण से युक्त करनेवाले होते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
जे राजा व मंत्रीलोक सूर्य व चंद्राप्रमाणे तीव्र आणि शांत स्वभावाचे, बुद्धिमान, वृष्टीप्रमाणे प्रजेचे पालन करतात ते सदैव सुख वाढवितात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Mitra and Varuna, lord of light and lord of bliss, ruler and leading lights of the social order, your power and generosity is based in the light of Divinity and issues from there. The sun, an agent and manifestation of the same, shines with its light as weapon of enlightenment and purification. You cover the sun with an ocean of vapour and energy of cosmic electricity in the regions of light, then the cloud is formed and showers of honey drops fall as rain.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of Mitrāvarunau is dealt.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king and minister ! you are dear like Prana and Udana (two vital breaths). Your intellect which is meditating on the nature of electricity attains (invents) a wonderful radiant weapon. Cover it with cloud and rains. O man benevolent like a cloud! men who are doer of sweet deeds and therefore charming move about in the light of the sun. You should also know and follow them.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those kings and ministers advance happiness who are of fiery and cool temperaments like the sun and the moon, very wise and sustainers of the people like rains.
Translator's Notes
So द्वप्सा : may mean charming and delightful. Covering the air with cloud and rain may mean-not using it unnecessarily and using it only for the destruction of the wicked people.
Foot Notes
दिवि) 1. विद्युति | = In electricity. (दिवि 7 सूर्यप्रकाशे । दिवृधातोद्युत्यर्थमादाय व्याख्या = In the light of the sun. (द्रप्सा:) विमोहकारका: । द्रप-हर्ष मोहनयो: (दिवा० ) = Charming.
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