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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 78 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 78/ मन्त्र 6
    ऋषिः - सप्तवध्रिरात्रेयः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    भी॒ताय॒ नाध॑मानाय॒ ऋष॑ये स॒प्तव॑ध्रये। मा॒याभि॑रश्विना यु॒वं वृ॒क्षं सं च॒ वि चा॑चथः ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भी॒ताय॑ । नाध॑मानाय । ऋष॑ये । स॒प्तऽव॑ध्रये । मा॒याभिः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । यु॒वम् । वृ॒क्षम् । सम् । च॒ । वि । च॒ । अ॒च॒थः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भीताय नाधमानाय ऋषये सप्तवध्रये। मायाभिरश्विना युवं वृक्षं सं च वि चाचथः ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भीताय। नाधमानाय। ऋषये। सप्तऽवध्रये। मायाभिः। अश्विना। युवम्। वृक्षम्। सम्। च। वि। च। अचथः ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 78; मन्त्र » 6
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वांसः किं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अश्विना ! युवं मायाभिर्भीताय नाधमानाय सप्तवध्रये ऋषये च समचथः वृक्षं च व्यचथः ॥६॥

    पदार्थः

    (भीताय) प्राप्तभयाय (नाधमानाय) उपतप्यमानाय (ऋषये) वेदार्थविदे (सप्तवध्रये) पञ्चज्ञानेन्द्रियाणि मनो बुद्धिश्च सप्त हता यस्य तस्मै (मायाभिः) प्रज्ञाभिः (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (युवम्) युवाम् (वृक्षम्) यो वृश्च्यते तम् (सम्) (च) (वि) (च) (अचथः) ॥६॥

    भावार्थः

    विदुषां योग्यतास्ति प्रज्ञादानेनाविद्यादिभयभीतान्निर्भयान् कृत्वा संसारे मोहाऽधर्म्मयोगात् वियोज्य सुखिनः सम्पादयन्तु ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    इसके अनन्तर विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अश्विना) अध्यापक और उपदेशकजनो ! (युवम्) आप दोनों (मायाभिः) बुद्धियों से (भीताय) भय को प्राप्त (नाधमानाय) उपतप्यमान और (सप्तवध्रये) पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ मन और बुद्धि ये सात नष्ट हुईं जिसकी अर्थात् इनकी प्रबलता से रहित उसके लिये और (ऋषये) वेदार्थ के जाननेवाले के लिये (च) भी (सम्, अचथः) उत्तम प्रकार जाइये (वृक्षम्, च) और जो काटा जाता उस वृक्ष को (वि) उत्तम प्रकार प्राप्त हूजिये ॥६॥

    भावार्थ

    विद्वानों की योग्यता है कि बुद्धि के देने से अविद्यादि भय के कारण डरे हुओं को भयरहित करके तथा संसार में मोह और अधर्म्म के योग से वियुक्त करके सुखी करें ॥६॥

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    विषय

    उसका मातृवत् कर्त्तव्य । अध्यापक आचार्य के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०- हे ( अश्विना ) विद्या में व्याप्त चित्त वालो ! अथवा विद्या में व्याप्त होने वाले शिष्य जनों के स्वामी पालक, अध्यापक, आचार्य जनो ! ( भीताय ) संसार के संकटों से भयभीत हुए, ( नाधमानाय ) शरण की याचना करते हुए, ( सप्त-वध्रये ) सातों उच्छृंखल इन्द्रियों को बधिया बैल के समान शान्त, सरल, विनीत रखने वाले, (ऋषये) ज्ञानको जानने के लिये उत्सुक विद्यार्थी के उपकार के लिये (युवं ) आप दोनों (मायाभिः ) बुद्धियों तथा उपदेशमय, शब्दमय वाणियों से ( वृक्षम् ) उच्छेद करने योग्य अज्ञान को (सम् च) अच्छी प्रकार से और (वि च) विविध प्रकार से ( अचथः) दूर करो | अथवा ( वृक्षं ) वृक्षवत् स्थिर भूमि पर बैठे हुए मुझको (सम् अचथः) अच्छी प्रकार प्राप्त करो और ( वि अचथः ) विशेष रूप से ग्रहण करो । ( २ ) जन्मान्तराकांक्षी जीव को उत्पन्न करने के लिये स्त्री पुरुष दोनों नाना स्नेहयुक्त क्रियाओं से गृहस्थ आश्रम को प्रेमपूर्वक लता जैसे वृक्ष को प्राप्त हो वैसे परस्पर मिलें । इस सूक्त के १, २, ३ मन्त्रों में पुत्रों को लक्ष्य कर वर वधू दोनों को मिल कर ज्ञान का उपदेश है आचार्य के प्रसवकारिणी माता के समान बालक शिष्य को उत्पन्न करने का वर्णन पूर्व मन्त्र में कहा है अब बालक की उत्पत्ति को शिष्य की उत्पत्ति से दर्शाते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सप्तवध्रिरात्रेय ऋषिः।। अश्विनौ देवते । ७, ९ गर्भस्राविणी उपनिषत् ॥ छन्दः— १, २, ३ उष्णिक् । ४ निचृत्-त्रिष्टुप् । ५, ६ अनुष्टुप् । ७, ८, ९ निचृद्-नुष्टुप् ।।

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    विषय

    प्रभु के भयवाला जीवन

    पदार्थ

    [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (युवम्) = आप (मायाभिः) = प्रज्ञानों के साथ (वृक्षम्) = इस मेरे 'ऊर्ध्वमूल अधशाख अश्वत्थ' [पीपल] वृक्ष को, अर्थात् शरीर को (सं अचथ:) = सम्यक् प्राप्त होते हैं, (च) = और (वि अचथः) = विविध अंग-प्रत्यंगों में प्राप्त होते हो । प्राणायाम के अभ्यास से शरीर में सर्वत्र प्राणापान की ठीक गति होती है। और ये प्राणापान हमें प्रज्ञानों को प्राप्त कराते हैं । [२] उस मेरे लिये प्रज्ञानों को प्राप्त कराते हैं, जो मैं (भीताय) = प्रभु की उपस्थिति को अनुभव करता हुआ पापों से भयभीत रहता हूँ । (नाधमानाय) = जो मैं सदा प्रभु से याचना करनेवाला बनता हूँ । (ऋषये) = [ऋष गतौ] गतिशील होता हूँ और (सप्तवध्र्ये) = सातों इन्द्रियों को [दो कान, दो नासिकाछिद्र, दो आँख, मुख] वशीभूत करता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- जब प्राणापान हमारे शरीर वृक्षों में सर्वत्र सम्यक् गतिवाले होते हैं, तो हमें प्रज्ञान प्राप्त होता है। हमारा जीवन 'प्रभु से भयवाला, प्रार्थनामय, गतिशील व जितेन्द्रियतावाला' बनता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांची ही योग्यता असते की अविद्येच्या भयामुळे घाबरलेल्यांना बुद्धिमान करून, निर्भय करून, जगातील मोह अधर्मापासून दूर करून, सुखी करतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, complementary powers of evolution, discrimination and vision, for the man in fear of existence, for the supplicant in sufferance, for the sage of vision, and for the man of sevenfold bondage of sense and mind, for all these, with your divine powers, let the tree of life seed and grow well for experience and then let it fall off for the soul’s freedom.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should learned persons do is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers ! you give good knowledge with your wisdom to the person who is afraid and (afflicted with. Ed.) suffering as his seven senses have become feeble. You also give wisdom to the knower of the meaning of the Vedas. You also cut asunder the attachment to the tree (tree of the world. Ed.) in the form of the matter or world by giving true knowledge.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of the enlightened persons to make men who are fearful on account of ignorance and fearless, by giving them the knowledge or wisdom. They should separate them from the attachment with the world and unrighteousness, and thus make them happy.

    Foot Notes

    (नाधमानाय ) उपतप्यमानाय । नाधुयांच्योपतापेश्वर्याशीषु (भ्वा० ) अत्र-उपतापार्थग्रहणम् = Suffering. (सप्तवघ्रये ) पंचज्ञानेन्द्रियाणि मनो बुद्धश्चि सप्त हता यस्य तस्मै । = Whose five senses of perception, mind and intellect have become powerless. (वृक्षम् ) यो वृश्च्यते तम् । द्वासुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते (ऋ. 1, 164, 20)। = Matter or world as used in the well-known mantra.

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