ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 80/ मन्त्र 4
ऋषिः - सत्यश्रवा आत्रेयः
देवता - उषाः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒षा व्ये॑नी भवति द्वि॒बर्हा॑ आविष्कृण्वा॒ना त॒न्वं॑ पु॒रस्ता॑त्। ऋ॒तस्य॒ पन्था॒मन्वे॑ति सा॒धु प्र॑जान॒तीव॒ न दिशो॑ मिनाति ॥४॥
स्वर सहित पद पाठए॒षा । विऽए॑नी । भ॒व॒ति॒ । द्वि॒ऽबर्हाः॑ । आ॒विः॒ऽकृ॒ण्वा॒ना । त॒न्व॑म् । पु॒रस्ता॑त् । ऋ॒तस्य॑ । पन्था॑म् । अनु॑ । ए॒ति॒ । सा॒धु । प्र॒ऽजा॒न॒तीऽइ॑व । न । दिशः॑ । मि॒ना॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एषा व्येनी भवति द्विबर्हा आविष्कृण्वाना तन्वं पुरस्तात्। ऋतस्य पन्थामन्वेति साधु प्रजानतीव न दिशो मिनाति ॥४॥
स्वर रहित पद पाठएषा। विऽएनी। भवति। द्विऽबर्हाः। आविःऽकृण्वाना। तन्वम्। पुरस्तात्। ऋतस्य। पन्थाम्। अनु। एति। साधु। प्रजानतीऽइव। न। दिशः। मिनाति ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 80; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे विदुषि स्त्रि ! यथैषोषाः पुरस्तात्तन्वमाविष्कृण्वाना द्विबर्हा व्येनी भवति। ऋतस्य पन्थामन्वेति साधु प्रजानतीव दिशो न मिनाति तथा त्वं वर्त्तस्व ॥४॥
पदार्थः
(एषा) (व्येनी) या विशिष्टमृगीवद्वेगवती (भवति) (द्विबर्हाः) या द्वाभ्यां रात्रिदिनाभ्यां बृंहयति वर्धयति (आविष्कृण्वाना) सर्वेषां मूर्तिमतां द्रव्याणां प्राकट्यं सम्पादयन्ती (तन्वम्) शरीरम् (पुरस्तात्) (ऋतस्य) सत्यस्य (पन्थाम्) मार्गम् (अनु) (एति) अनुगच्छति (साधु) उत्तमं विज्ञानम् (प्रजानतीव) (न) निषेधे (दिशः) (मिनाति) हिनस्ति ॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथा सती स्त्री गृहाश्रमस्य मार्गं प्रकाश्य सर्वाणि सुखानि प्रकटयति तथैवोषा वर्त्तते ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्यायुक्त स्त्रि ! जैसे (एषा) यह प्रातर्वेला (पुरस्तात्) प्रथम (तन्वम्) शरीर को (आविष्कृण्वाना) और संपूर्ण रूपवाले द्रव्यों की प्रकटता करती हुई (द्विबर्हाः) दिन और रात्रि से बढ़ानेवाली (व्येनी) विशेष हरिणी के सदृश वेगयुक्त (भवति) होती है और (ऋतस्य) सत्य के (पन्थाम्) मार्ग की (अनु, एति) अनुगामिनी होती है और (साधु) उत्तम विज्ञान को (प्रजानतीव) विशेष करके जानती हुई सी (दिशः) दिशाओं का (न) नहीं (मिनाति) नाश करती है, वैसा तू वर्त्ताव कर ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सती स्त्री गृहाश्रम के मार्ग को प्रकाशित करके सम्पूर्ण सुखों को प्रकट करती है, वैसे ही प्रातर्वेला वर्त्तमान है ॥४॥
विषय
पतिव्रता का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०— उषा जिस प्रकार ( वि एनी भवति ) विशेष रूप से श्वेत प्रकाश वाली होती है, और वह ( द्वि-बर्हा ) रात्रि दिन दोनों से बढ़ने वाली, ( पुरस्तात् तन्त्रं आविः कृण्वानः ) आगे अपने विस्तृत प्रकाश को प्रकट करती हुई ( ऋतस्य पन्थाम् अनु एति ) तेज या सूर्य के मार्ग का प्रति दिन अनुगमन करती है और ( न दिशः मिनाति ) मानो दिशाओं को मापती सी है अथवा दिशाओं का भी नाश नहीं करती । उसी प्रकार ( एषा ) यह विदुषी स्त्री, भी (वि-एनी) विशेष रूप से हरिणी के समान उत्तम चक्षु वाली, अति वेगवती एवं गुणों में शुभ्र, ( भवति ) हो । वह (द्वि-बर्हाः) दोनों कुलों को बढ़ाने वाली हो। वह ( पुरस्तात् ) पति के आगे ( तन्वम् ) अपने देह को ( आविः-कृण्वाना ) प्रकट करती हुई, पति के आगे २ चलती हुई, ( ऋतस्य ) सत्याचरण एवं वेद के उपदिष्ट सत्य के ( पन्थाम् ) मार्ग का ( अनु एति ) अनुगमन करे । वह (साधु) भली प्रकार ( दिशः प्र जानती इव) दिशाओं, कर्त्तव्यों को भली प्रकार जानती हुई ( ऋतस्य पन्थाम् न मिनाति ) कर्म के मार्ग का नाश नहीं करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सत्यश्रवा आत्रेय ऋषिः । उषा देवता ।। छन्द:-१, ६ निचृत्-त्रिष्टुप् ।। २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ५ भुरिक् पंक्ति: ।।
विषय
द्विबर्हाः
पदार्थ
[१] (एषा) = यह उषा (व्येनी) = प्रकाश के कारण विशिष्ट श्वैत्यवाली होती है। (पुरस्तात्) = पूर्व दिशा में (तन्वम्) = अपने रूप को (आविष्कृण्वाना) = प्रकट करती हुई (द्विबर्हाः) = शक्ति व ज्ञान दोनों का वर्धन करनेवाली होती है। उषा जागरण से शक्ति व ज्ञान दोनों बढ़ते हैं। [२] यह उषा (ऋतस्य पन्थाम्) = ऋत के, सत्य के मार्ग का साधु (अन्वेति) = सम्यक् अनुसरण करती है। प्रातः प्रबुद्ध होनेवाला व्यक्ति सत्य मार्ग का अनुसरण करनेवाला होता है। यह उषा (प्रजानती इव) = जानती ही हुई (दिश:) = दिशाओं को (न मिनाति) = हिंसित नहीं करती। दिशाओं को प्रकाशित करती हुई यह हमें मार्ग पर चलने का संकेत करती है ।
भावार्थ
भावार्थ- उषा जागरण से [१] शक्ति व ज्ञान बढ़ते हैं, [२] ऋत के मार्ग पर चलने की प्रवृत्ति बढ़ती है, [३] मनुष्य ठीक दिशा में चलता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी सात्त्विक स्त्री गृहस्थाश्रमाचा मार्ग सुकर करते व संपूर्ण सुख देते. तशीच प्रातर्वेला असते. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Revealing her body of light from the east, this lady of light radiates fast on both sides right and left over day and night. It follows the path of eternal law and, knowing well everything in nature, it neither violates nor goes astray over the quarters of space.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
More about the attributes of women is said.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O enlightened lady ! as this dawn display her body. It (appears. Ed.) from the east, manifesting all embodied (apparent. Ed.) objects, and grows both in the day and night. In movements, it is rapid like a kind of quick-going deed? She travels perfectly the path of the Eternal Time love (ordained by God) like a lady who knows well (how to behave and act. Ed.). She does not harm (the people) of different directions.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As a chaste women illumines the path of domestic happiness and manifests all joy, so does the dawn.
Foot Notes
(ध्वेनी) या विशिष्टंमृगीवद्वेगवती = Rapid in movement like a particular species of the deer. (द्विवर्हा:) वा द्वाभ्यां रात्रिदिनाभ्यां। व्रिःयति वर्धयति । बृहि-वृद्धौ (भ्वा०)। = She who makes grow both by day and night. ( मिनाति) हिनस्ति । मीन्-हिंसायाम् (व्रया० ) । = Harms, destroys.
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