ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 80/ मन्त्र 1
ऋषिः - सत्यश्रवा आत्रेयः
देवता - उषाः
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
द्यु॒तद्या॑मानं बृह॒तीमृ॒तेन॑ ऋ॒ताव॑रीमरु॒णप्सुं॑ विभा॒तीम्। दे॒वीमु॒षसं॒ स्व॑रा॒वह॑न्तीं॒ प्रति॒ विप्रा॑सो म॒तिभि॑र्जरन्ते ॥१॥
स्वर सहित पद पाठद्यु॒तऽद्या॑मानम् । बृ॒ह॒तीम् । ऋ॒तेन॑ । ऋ॒तऽव॑रीम् । अ॒रु॒णऽप्सु॑म् । वि॒ऽभा॒तीम् । दे॒वीम् । उ॒षस॑म् । स्वः॑ । आ॒ऽवह॑न्तीम् । प्रति॑ । विप्रा॑सः । म॒तिऽभिः॑ । ज॒र॒न्ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्युतद्यामानं बृहतीमृतेन ऋतावरीमरुणप्सुं विभातीम्। देवीमुषसं स्वरावहन्तीं प्रति विप्रासो मतिभिर्जरन्ते ॥१॥
स्वर रहित पद पाठद्युतत्ऽयामानम्। बृहतीम्। ऋतेन। ऋतऽवरीम्। अरुणऽप्सुम्। विऽभातीम्। देवीम्। उषसम्। स्वः। आऽवहन्तीम्। प्रति। विप्रासः। मतिऽभिः। जरन्ते ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 80; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ स्त्रीगुणानाह ॥
अन्वयः
हे स्त्रि ! यथा विप्रासो मतिभिर्ऋतेन द्युतद्यामानं बृहतीमृतावरीमरुणप्सुं विभातीं देवीं स्वरावहन्तीमुषसं प्रति जरन्ते तांस्त्वं प्रशंस ॥१॥
पदार्थः
(द्युतद्यामानम्) प्रहरान् द्योतयन्तीम् (बृहतीम्) (ऋतेन) जलेनेव सत्येन (ऋतावरीम्) बहुसत्याचरणयुक्ताम् (अरुणप्सुम्) प्सु इति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) (विभातीम्) प्रकाशयन्तीम् (देवीम्) देदीप्यमानाम् (उषसम्) प्रातर्वेलाम् (स्वः) आदित्यमिव विद्याप्रकाशम् (आवहन्तीम्) प्रापयन्तीम् (प्रति) (विप्रासः) (मतिभिः) प्रज्ञाभिः (जरन्ते) स्तुवन्ति ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथा मेधाविनः पतय उषसादिपदार्थविद्यां विज्ञाय क्षणमपि कालं व्यर्थं न नयन्ति तथैव स्त्रियोऽपि निरर्थकं समयन्न गमयेयुः ॥१॥
हिन्दी (2)
विषय
अब छः ऋचावाले अस्सीवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में स्त्रियों के गुणों को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे स्त्रि ! जैसे (विप्रासः) बुद्धिमान् जन (मतिभिः) बुद्धियों से और (ऋतेन) जल के सदृश सत्य से (द्युतद्यामानम्) प्रहरों को प्रकाश करती और (बृहतीम्) बढ़ती हुई (ऋतावरीम्) बहुत सत्य आचरण से युक्त (अरुणप्सुम्) लालरूपवाली (विभातीम्) प्रकाश करती हुई (देवीम्) प्रकाशमान और (स्वः) सूर्य्य के सदृश विद्या के प्रकाश को (आवहन्तीम्) धारण करती हुई (उषसम्) उषर्वेला की (प्रति) उत्तम प्रकार (जरन्ते) स्तुति करते हैं, उनकी तू प्रशंसा कर ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे बुद्धिमान् पति उषःकाल आदि पदार्थों की विद्या को जान कर क्षणभर भी काल व्यर्थ नहीं व्यतीत करते हैं, वैसे ही स्त्रियाँ भी व्यर्थ समय न व्यतीत करें ॥१॥
विषय
उषा के दृष्टान्त से उत्तम विदुषी गुणवती स्त्री का वर्णन ।
भावार्थ
भा०-जिस प्रकार ( विप्रासः द्युत-द्यामानं अरुणप्सुं स्वः आवहन्ती देवीम् उषसं मतिभिः जरन्ते ) विद्वान् पुरुष आकाश को चमकाने वाली, रंग लिये, प्रकाश को लाने वाली, तेजो युक्त उषा, प्रभात वेला को प्राप्त कर ( प्रति ) प्रतिदिन स्तुतियों से भगवान् की स्तुति करते हैं उसी प्रकार (द्युत-द्यामानम् ) कामनावान्, व्यवहारवित् तेजस्वी पति को अथवा इस पृथिवी को अपने गुणों से चमका देने वाली, ( ऋतेन ) सत्य ज्ञान, तेज और धनैश्वर्य से ( बृहतीम् ) बड़ी, सबको बढ़ाने वाली, ( ऋतावरीम् ) अन्न धनादि से सम्पन्न, ( अरुणप्सुम् ) लाल, तेजोयुक्त रूपवती (वि-भातीम् ) विशेष गुणों से सबके मन को अच्छी लगने हारी, (देवीम् ) विदुषी, दानशील, (स्वः आहवन्तीम् ) ग्राह्य सुखों को प्राप्त कराने वाली,( उषसं ) कान्तियुक्त, कमनीय, एवं पति आदि सम्बन्धियों को हृदय से चाहने वाली, स्त्री के प्रति ( विप्रासः ) विद्वान् लोग सदा ही ( मतिभिः) स्तुतियों से ( जरन्ते ) प्रत्येक बात में उसकी प्रशंसा करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सत्यश्रवा आत्रेय ऋषिः । उषा देवता ।। छन्द:-१, ६ निचृत्-त्रिष्टुप् ।। २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ५ भुरिक् पंक्ति: ।।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात प्रातःकाळ व स्त्रीच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे बुद्धिमान पती उषःकाल इत्यादींची विद्या जाणून क्षणभरही व्यर्थ काळ घालवित नाहीत. तसा स्त्रियांनी व्यर्थ काळ घालवू नये. ॥ १ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Saints and sages with holy mind and hymns of adoration honour and celebrate the divine dawn, crimson hued, shining brilliant, grand and sublime, illuminating hours of time and regions of space, observing universal law of eternity by simple natural conduct, and bringing the morning light and bliss of the sun.
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