ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 79/ मन्त्र 10
ए॒ताव॒द्वेदु॑ष॒स्त्वं भूयो॑ वा॒ दातु॑मर्हसि। या स्तो॒तृभ्यो॑ विभावर्यु॒च्छन्ती॒ न प्र॒मीय॑से॒ सुजा॑ते॒ अश्व॑सूनृते ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठए॒ताव॑त् । वा॒ । इत् । उ॒षः॒ । त्वम् । भूयः॑ । वा॒ । दातु॑म् । अ॒र्ह॒सि॒ । या । स्तो॒तृऽभ्यः॑ । वि॒भा॒ऽव॒रि॒ । उ॒च्छन्ती॑ । न । प्र॒ऽमीय॑से । सुऽजा॑ते । अश्व॑ऽसूनृते ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतावद्वेदुषस्त्वं भूयो वा दातुमर्हसि। या स्तोतृभ्यो विभावर्युच्छन्ती न प्रमीयसे सुजाते अश्वसूनृते ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठएतावत्। वा। इत्। उषः। त्वम्। भूयः। वा। दातुम्। अर्हसि। या। स्तोतृऽभ्यः। विभाऽवरि। उच्छन्ती। न। प्रऽमीयसे। सुऽजाते। अश्वऽसूनृते ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 79; मन्त्र » 10
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे अश्वसूनृते सुजाते विभावर्युषर्वद्वर्त्तमाने स्त्रि ! त्वमेतावद्वा भूयो वा दातुमर्हसि या त्वं स्तोतृभ्य उच्छन्ती निवसन्ती वर्त्तसे सा त्वमात्मस्वरूपेणेन्न प्रमीयसे ॥१०॥
पदार्थः
(एतावत्) (वा) (इत्) एव (उषः) उषर्वद्वर्त्तमाने (त्वम्) (भूयः) अधिकम् (वा) वा (दातुम्) (अर्हसि) (या) (स्तोतृभ्यः) स्तावकेभ्यः (विभावरि) प्रकाशमाने (उच्छन्ती) निवसन्ती (न) निषेधे (प्रमीयसे) म्रियसे (सुजाते) (अश्वसूनृते) ॥१०॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे स्त्रियो ! यथोषाः स्वल्पा महत आनन्दान् प्रयच्छति तथा त्वं भवेति ॥१०॥ अत्रोषःस्त्रीगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकोनाऽशीतितमं सूक्तं द्वाविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अश्वसूनृते) बड़े ज्ञान से युक्त (सुजाते) उत्तम विद्या से प्रकट हुई (विभावरि) प्रकाशमान और (उषः) प्रातर्वेला के सदृश वर्त्तमान स्त्री ! (त्वम्) तू (एतावत्) इतने को (वा) वा (भूयः) अधिक को (वा) भी (दातुम्) देने को (अर्हसि) योग्य है और (या) जो तू (स्तोतृभ्यः) स्तुति करनेवालों के लिये (उच्छन्ती) निवास करती हुई वर्त्तमान है, वह तू अपने स्वरूप से (इत्) ही (न) नहीं (प्रमीयसे) मरती है ॥१०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे स्त्रीजनो ! जैसे उषर्वेला थोड़ी भी बड़े आनन्दों को देती है, वैसे तुम होओ ॥१०॥ इस सूक्त में प्रातः और स्त्री के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह उनाशीवाँ सूक्त और बाईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
दान का उपदेश ।
भावार्थ
भा०-हे ( विभावरि ) विशेष कान्ति से प्रकाशित होने वाली ! हे ( सु-जाते ) शुभ गुणों से युक्त हे शुभ सन्तान वाली ! हे ( अश्व-सूनृते ) विद्वान् बलवान् पुरुषों के प्रति उत्तम वाणी और अन्न देनेहारी ! हे (उषः) प्रभात वेला के समान कान्तिमति ! हे कमनीये ! पापों को दग्ध कर देने हारी ! तू क्या ( एतावद् वा इत् दातुम् अर्हसि ) इतना ही केवल देने योग्य है ! ( वा ) अथवा ( भूयः दातुम् अर्हसि ) तू अधिक भी देने में समर्थ है । इस बात का सदा विचार रख । ( या ) जो तू ( उच्छन्ती ) अपने दानशीलता आदि सद्गुणों का प्रकाश करती हुई ( स्तोतृभ्यः ) विद्वान् उपदेष्टाओं के लिये ( न प्र-मीयसे ) कभी मृत्यु, वा विषाद को प्राप्त न हो । अर्थात् शक्ति से अधिक दे देने पर स्वयं पीड़ित न हुआ करे, प्रत्युत अपनी शक्ति को देखकर ही विद्वानों को दान आदि दिया करे जिससे वह आगे भी यथाशक्ति देती रह सके । इति द्वाविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सत्यश्रवा आत्रेय ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः – १ स्वराड्ब्राह्मी गायत्री । २, ३, ७ भुरिग् बृहती । १० स्वराड् बृहती । ४, ५, ८ पंक्तिः । ६, ९ निचृत्-पंक्तिः ॥
विषय
विभावरी
पदार्थ
[१] हे (उषः) = उषे! (त्वम्) = तू (एतावत् वा इत्) = गतमन्त्रों में प्रार्थित इतनी वस्तुओं के तो अवश्य ही (दातुम्) = देने के लिये (अर्हसि) = योग्य है। (भूयः वा) = प्रार्थित वस्तुओं से अधिक अप्रार्थित भी आवश्यक वस्तुओं को तू हमें देनेवाली हो। [२] जो तू (स्तोतृभ्यः) = स्तोताओं के लिये (विभावरी) = प्रकाश को प्राप्त करानेवाली (उच्छन्ती) = अन्धकार को दूर करती हुई (न प्रमीयसे) = हिंसित नहीं करती। प्रकाश को देकर तू हमें हिंसित होने से बचाती है । हे उषः ! (सुजाते) = तू सुजाता है, उत्तम विकास का कारण बनती है। (अश्वसूनृते) = तू अश्वसूनृता है, हमें कर्मों में व्याप्त सत्य वाणीवाला बनाती है।
भावार्थ
भावार्थ- उषा प्रकाश को देकर हमें हिंसित होने से बचाती है। यह सब इष्ट मनोरथों को पूर्ण करती है । सत्यश्रवा आत्रेय ही अगले सूक्त में भी उषा का आराधन करता है-
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे स्त्रियांनो! जशी उषा थोड्या वेळात पुष्कळ आनंद देते तसे तुम्ही व्हा. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O dawn, lady of light, nobly born and enlightened, ever true and progressive, brilliant and enlightening, such you are and more competent and pleased to give to your dedicated celebrants, whom you never neglect, never frustrate, but ever bless and promote higher and higher.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of women is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O lady endowed with great wisdom ! render us, on account of good knowledge, shining like the dawn. You can bestow upon this much or even more. You are established in truth and happiness for those who admire you, they are devotees of God. You never desert (by the nature of your soul, which is immortal).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O lady ! as the dawn though small gives much bliss and joy, so you should also do.
Foot Notes
(विभावरि ) प्रकाशमाने । विभा-दीप्तौ = Bright, shining (उच्छन्ती) निवसन्ती । उच्छ-विवासे (तु० )। = Living, established.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal