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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 79 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 79/ मन्त्र 8
    ऋषिः - सत्यश्रवा आत्रेयः देवता - उषाः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    उ॒त नो॒ गोम॑ती॒रिष॒ आ व॑हा दुहितर्दिवः। सा॒कं सूर्य॑स्य र॒श्मिभिः॑ शु॒क्रैः शोच॑द्भिर॒र्चिभिः॒ सुजा॑ते॒ अश्व॑सूनृते ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । नः॒ । गोऽम॑तीः । इषः॑ । आ । व॒ह॒ । दु॒हि॒तः॒ । दि॒वः॒ । सा॒कम् । सूर्य॑स्य । र॒श्मिऽभिः॑ । शु॒क्रैः । शोच॑त्ऽभिः । अ॒र्चिऽभिः॑ । सुऽजा॑ते । अश्व॑ऽसूनृते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत नो गोमतीरिष आ वहा दुहितर्दिवः। साकं सूर्यस्य रश्मिभिः शुक्रैः शोचद्भिरर्चिभिः सुजाते अश्वसूनृते ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। नः। गोऽमतीः। इषः। आ। वह। दुहितः। दिवः। साकम्। सूर्यस्य। रश्मिऽभिः। शुक्रैः। शोचत्ऽभिः। अर्चिऽभिः। सुऽजाते। अश्वऽसूनृते ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 79; मन्त्र » 8
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे सुजाते अश्वसूनृते दिवो दुहितरिव स्त्रि ! सूर्य्यस्य रश्मिभिः साकमुत शुक्रैः शोचद्भिरर्चिभिः सह नो गोमतीरिष आ वहा ॥८॥

    पदार्थः

    (उत) अपि (नः) अस्मान् (गोमतीः) गावो विद्यन्ते यासु ताः (इषः) अन्नाद्याः (आ) (वहा) समन्तात्प्रापय। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (दुहितः) कन्येव (दिवः) प्रकाशमानस्य (साकम्) सार्धम् (सूर्य्यस्य) (रश्मिभिः) (शुक्रैः) शुद्धैः (शोचद्भिः) पवित्रकारकैः (अर्चिभिः) पूजितैर्गुणकर्मस्वभावैः (सुजाते) (अश्वसूनृते) ॥८॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथा सूर्य्यस्य किरणैरुत्पन्नोषा उपकारिणी भवति तथैव शुभगुणकर्मस्वभावैः सहिता स्त्र्यानन्दोपकारिणी जायते ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सुजाते) उत्तम विद्या से प्रकट हुई (अश्वसूनृते) बड़े ज्ञान से युक्त और (दिवः) प्रकाशमान की (दुहितः) कन्या के सदृश वर्त्तमान स्त्रि ! (सूर्य्यस्य) सूर्य्य के (रश्मिभिः) किरणों के (साकम्) साथ (उत) और (शुक्रैः) शुद्ध (शोचद्भिः) पवित्र करनेवाले (अर्चिभिः) श्रेष्ठ गुण, कर्म्म और स्वभाव के साथ (नः) हम लोगों को (गोमतीः) गौवें विद्यमान जिनमें उन (इषः) अन्न आदिकों को (आ, वह) सब प्रकार से प्राप्त कराइये ॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य की किरणों से उत्पन्न उषा उपकार करनेवाली होती है, वैसे ही शुभ गुण, कर्म और स्वभावों के सहित स्त्री आनन्द की उपकार करनेवाली होती है ॥८॥

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    विषय

    उत्तम माता के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०—हे ( सुजाते ) उत्तम गुणों से युक्त उत्तम पुत्रों की माता ! हे ( अश्व-सूनृते ) उत्तम पुरुषों के प्रति उनके तुल्य उत्तम वचन बोलने हारी ! हे (दिवः दुहितः ) कामनावान् प्रिय पति की कामनाओं को पूर्ण करने हारी वा (दिवः दुहितः ) सूर्यवत् तेजस्वी ज्ञानी पिता वा आचार्य की पुत्रि ! तू ( सूर्यस्य ) सूर्य की ( शुक्रः ) शुद्ध ( शोचद्भिः ) कान्ति वाली, प्रकाशयुक्त (अर्चिभिः ) कान्तियों और ( रश्मिभिः ) किरणों के साथ २ ( शुक्रः शोचद्भिः अर्चिभिः ) शुद्ध कान्ति युक्त अग्नि ज्वालाओं से और पवित्र करने वाले सत्कारोचित जलों से ( नः ) हमारी ( गोमतीः इषः) उत्तम दुग्ध आदि से युक्त अन्न और शुभ वाणी से युक्त उत्तम कामनाओं, सत् अभिलाषाओं को ( आ वह ) प्राप्त कर और करा ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सत्यश्रवा आत्रेय ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः – १ स्वराड्ब्राह्मी गायत्री । २, ३, ७ भुरिग् बृहती । १० स्वराड् बृहती । ४, ५, ८ पंक्तिः । ६, ९ निचृत्-पंक्तिः ॥

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    विषय

    सूर्योदयकाल में व अग्नीन्धनकाल में

    पदार्थ

    [१] हे (दिवः दुहितः) = ज्ञान का पूरण करनेवाली उषे ! (उत) = और (नः) = हमारे लिये (गोमती:) = प्रशस्त ज्ञान की वाणियोंवाली (इष:) = प्रेरणाओं को आवहा प्राप्त करा । उषा जागरण ज्ञानवृद्धि व प्रभु प्रेरणा प्राप्ति में सहायक होता है। [२] हे (सुजाते) = उत्तम विकास की कारणभूत, (अश्वसूनृते) = कर्मों में व्याप्त सूनृत वाणीवाली उषे! तू (सूर्यस्य रश्मिभिः साकम्) = सूर्य की किरणों के साथ तथा (शुक्रैः) = दीप्त (शोचद्भिः) = पवित्रता को करनेवाली (अर्चिभि) = अग्नि की ज्वालाओं के साथ हमें इन प्रशस्त ज्ञान की वाणियोंवाली प्रभु प्रेरणाओं को प्राप्त करानेवाली हो । यहाँ 'सूर्य रश्मियों के साथ ' का संकेत 'सूर्याभिमुख होकर ध्यान में बैठने से' है, तथा 'अग्नि की ज्वालाओं के साथ' का संकेत 'अग्निहोत्र करने से' है । एवं 'उषा जागरण, सूर्याभिमुख होकर सन्ध्या व अग्निहोत्र' ये तीन बातें ज्ञानयुक्त प्रेरणाओं की प्राप्ति का साधन बनती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम उषा में प्रबुद्ध होकर, नित्य कार्यों से निवृत्त होकर, सूर्योदय होते ही सन्ध्या में स्थित हों तथा अग्निहोत्र करनेवाले बनें। यह जीवन हमें ज्ञान प्रवण करेगा और प्रभु प्रेरणा को सुनने योग्य बनायेगा।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी सूर्याच्या किरणांपासून उत्पन्न झालेली उषा उपकारक असते. तसे शुभ गुण कर्म स्वभावयुक्त स्त्री आनंददायक, उपकारक असते. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    And O daughter of heaven, nobly born and enlightened, spirit of truth and progress, come with the rays of the sun, pure and purifying, sacred and sanctifying, and bring for us food and energy, lands and cows.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of ideal woman is dealt.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned lady! you are renowned on account of good knowledge and endowed with great wisdom, and are truthful. With sweet speech, behaving like dawn, you are the daughter of the radiant sun. Convey to as good food materials along with cows, and equip with pure and purifying respected virtues, and temperaments together with the sun beams.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the dawn born out of the rays of the sun is benevolent, in the same manner, a woman endowed with noble virtues, actions and temperament becomes benevolent and giver of bliss.

    Foot Notes

    (दिवः) प्रकाशमानस्य । दिवुधातोद्धुंत्यर्थमादाय व्याख्या । दयुतिः - प्रकाश: = Of the refulgent sun. (अर्चिभि:) पूजितैर्गुणकर्मस्वभावै: । = By respected virtues, actions and temperament. (शोचदिभ:) पवित्रकारकैः (ई) शुचिर्-पूतीभावे ( दिवा० ) अर्च -पूजायाय् । = Purifying.

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