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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 79 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 79/ मन्त्र 9
    ऋषिः - सत्यश्रवा आत्रेयः देवता - उषाः छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः

    व्यु॑च्छा दुहितर्दिवो॒ मा चि॒रं त॑नुथा॒ अपः॑। नेत्त्वा॑ स्ते॒नं यथा॑ रि॒पुं तपा॑ति॒ सूरो॑ अ॒र्चिषा॒ सुजा॑ते॒ अश्व॑सूनृते ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । उ॒च्छ॒ । दु॒हि॒तः॒ । दि॒वः॒ । मा । चि॒रम् । त॒नु॒थाः॒ । अपः॑ । न । इत् । त्वा॒ । स्ते॒नम् । यथा॑ । रि॒पुम् । तपा॑ति । सूरः॑ । अ॒र्चिषा॑ । सुऽजा॑ते । अश्व॑ऽसूनृते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्युच्छा दुहितर्दिवो मा चिरं तनुथा अपः। नेत्त्वा स्तेनं यथा रिपुं तपाति सूरो अर्चिषा सुजाते अश्वसूनृते ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि। उच्छ। दुहितः। दिवः। मा। चिरम्। तनुथाः। अपः। नः। इत्। त्वा। स्तेनम्। यथा। रिपुम्। तपाति। सूरः। अर्चिषा। सुऽजाते। अश्वऽसूनृते ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 79; मन्त्र » 9
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे सुजाते अश्वसूनृते दिवो दुहितरिव वर्त्तमाने शुभाचारे स्त्रि ! त्वमपश्चिरं मा तनुथाः। यथा रिपुं तपाति तथा स्तेनं तापय त्वा कोऽपि न तापयतु यथार्चिषा सूरः सर्वान् तापयति तथेत्त्वं दुष्टान् तापयित्वाऽस्मान् व्युच्छा ॥९॥

    पदार्थः

    (वि) (उच्छा) निवासय। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (दुहितः) कन्येव (दिवः) प्रकाशस्य (मा) (चिरम्) (तनुथाः) विस्तारयेः (अपः) कर्म्म (न) निषेधे (इत्) एव (त्वा) त्वाम् (स्तेनम्) चोरम् (यथा) (रिपुम्) शत्रुम् (तपाति) तापयति (सूरः) सूर्य्यः (अर्चिषा) तेजसा (सुजाते) (अश्वसूनृते) ॥९॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । ये स्त्रीपुरुषा दीर्घसूत्रिणोऽलसाः स्तेनाश्च न भवन्ति ते सूर्य्यवत्प्रकाशिता भवन्ति ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सुजाते) उत्तम विद्या से प्रकट हुई (अश्वसूनृते) बड़े ज्ञान से युक्त (दिवः) प्रकाश की (दुहितः) कन्या के सदृश वर्त्तमान उत्तम आचरणवाली स्त्रि ! तू (अपः) कर्म को (चिरम्) बहुत काल पर्यन्त (मा) नहीं (तनुथाः) विस्तार कर (यथा) जैसे (रिपुम्) शत्रु को (तपाति) संतापित करती है, वैसे (स्तेनम्) चोर को सन्तापित कर और (त्वा) तुझको कोई भी (न) नहीं सन्तापयुक्त करे और जैसे (अर्चिषा) तेज से (सूरः) सूर्य सब को तपाता है, वैसे (इत्) ही तू दुष्टजनों को सन्तापित करके हम लोगों को (वि, उच्छा) अच्छे प्रकार वसाओ ॥९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो स्त्री और पुरुष मन्द, आलसी और चोर नहीं होते हैं, वे सूर्य्य के सदृश प्रकाशित होते हैं ॥९॥

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    विषय

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    भावार्थ

    भा०-हे ( सुजाते ) उत्तम गुणवती पुत्रि ! हे ( अश्व-सूनृते ) उत्तम विद्वानों को उत्तम वाणी से सत्कार करने हारी ! हे (दिवः दुहितः ) अन्नादि की कामना वाले याचकादि के मनोरथों को पूर्ण करने वाली ! वा गृहस्थ व्यवहार के लिये दूर देश में विवाहित होकर हितकारिणी ! तू ( वि उच्छ ) अपने विविध गुणों को प्रकट कर और ( अपः ) गृह के आवश्यक कार्यों को ( चिरं मा तनुथाः ) देर लगाकर मत किया कर । ( स्तेनं रिपुं ) चौर शत्रु को ( यथा ) जिस प्रकार ( सूरः तपाति ) सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष सन्ताप, पीड़ा देता है उसी प्रकार ( त्वा इत्) तुझे भी (सूरः ) तेजस्वी पुरुष (अर्चिषा ) क्रोध आदि से ( न तपाति ) न पीड़ित करे ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सत्यश्रवा आत्रेय ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः – १ स्वराड्ब्राह्मी गायत्री । २, ३, ७ भुरिग् बृहती । १० स्वराड् बृहती । ४, ५, ८ पंक्तिः । ६, ९ निचृत्-पंक्तिः ॥

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    विषय

    उषा व नित्यकर्म निवृत्ति [Completion]

    पदार्थ

    [१] हे (दिवः दुहित:) = ज्ञान का हमारे जीवनों में पूरण करनेवाली उषे! (व्युच्छा) = तू अन्धकार को दूर करनेवाली हो । (अपः) = हमारे कर्मों का लक्ष्य करके (चिरं मा तनुथा:) = देर को मत कर, अर्थात् तेरे उदित होते ही हम अपने नित्य कर्मों में प्रवृत्त हो जाएँ। (नेत् त्वा) = नहीं ही तुझे (सूरः) = सूर्य (अर्चिषा) = अपनी दीप्त किरण ज्वालाओं से उसी प्रकार (तपाति) = संतप्त करता है (यथा) = जैसे कि (स्तेनं रिपुम्) = चोररूप शत्रु को। सूर्य की किरणों के दीप्त होने पर चोर भी अपने कार्य करने में असमर्थता के कारण व पकड़े जाने के भय से सन्तप्त होता है, इसी प्रकार ये सूर्य किरणें उषा को भी समाप्त कर देती हैं। हम उषा की समाप्ति से पूर्व ही अपने कार्यों को समुचितरूप से कर चुकें । [२] हे उषे! (सुजाते) = तू सुजाता है, उत्तम विकास का कारण बनती है। तेरे में उद्बुद्ध होनेवाले व्यक्ति विकसित शक्तियोंवाले बनते हैं। (अश्वसूनृते) = तू अश्वसूनृता है, कर्मों में व्याप्त सत्य वाणीवाली है। तेरे में उद्बुद्ध होनेवाले व्यक्ति सदा कर्मों में व्याप्त रहते हैं और प्रिय सत्य वाणी का प्रयोग करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- उषा उदित होते ही हम सूर्योदय से पूर्व ही नित्यकर्मों से निवृत्त हो जाएँ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे स्त्री पुरुष मंद, आळशी, चोर नसतात ते सूर्याप्रमाणे तेजस्वी असतात. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Daughter of the light of heaven, nobly born and enlightened, truthful and progressive, rise and shine, and let us shine too. Do not procrastinate, do not protract your sacred act, accomplish the act and rise. Just as the ruler punishes the thief and the enemy, just as the sun burns dry grass with its heat of light, that way let no one torment you.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The qualities of an ideal woman are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O lady ! you are renowned on account of good knowledge endowed with great wisdom and truthful and sweet speech, shining like the dawn-the daughter of the light, of good conduct, don't procreate while doing works. As a man attacks an enemy, he punishes or makes a thief repentant. None may be able to harm you. As the sun gives heat to all by its splendor, so subdue the wicked and make us established in happiness and joy.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those men and women who are not (involved in. Ed.) procreate are not lazy or thieves, shine like the sun, so that none may be able to harm you, like the sun giving heats to all by his rays.

    Foot Notes

    (अर्चिषा) तेजसा । = By splendor ( स्तेनम् ) चोरम्। = A thief.

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