ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 80/ मन्त्र 6
ऋषि: - सत्यश्रवा आत्रेयः
देवता - उषाः
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
ए॒षा प्र॑ती॒ची दु॑हि॒ता दि॒वो नॄन्योषे॑व भ॒द्रा नि रि॑णीते॒ अप्सः॑। व्यू॒र्ण्व॒ती दा॒शुषे॒ वार्या॑णि॒ पुन॒र्ज्योति॑र्युव॒तिः पू॒र्वथा॑कः ॥६॥
स्वर सहित पद पाठए॒षा । प्र॒ती॒ची । दु॒हि॒ता । दि॒वः । नॄन् । योषा॑ऽइव । भ॒द्रा । नि । रि॒णी॒ते॒ । अप्सः॑ । वि॒ऽऊ॒र्ण्व॒ती । दा॒शुषे॑ । वार्या॑णि । पुनः॑ । ज्योतिः॑ । यु॒व॒तिः । पू॒र्वऽथा॑ । अ॒क॒रित्य॑कः ॥
स्वर रहित मन्त्र
एषा प्रतीची दुहिता दिवो नॄन्योषेव भद्रा नि रिणीते अप्सः। व्यूर्ण्वती दाशुषे वार्याणि पुनर्ज्योतिर्युवतिः पूर्वथाकः ॥६॥
स्वर रहित पद पाठएषा। प्रतीची। दुहिता। दिवः। नॄन्। योषाऽइव। भद्रा। नि। रिणीते। अप्सः। विऽऊर्ण्वती। दाशुषे। वार्याणि। पुनः। ज्योतिः। युवतिः। पूर्वऽथा। अकरित्यकः ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 80; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 6
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे शुभलक्षणे स्त्रि ! यथैषोषा दिवो दुहिता नॄन् योषेव भद्रा प्रतीच्यप्सो नि रिणीते दाशुषे वार्याणि व्यूर्ण्वती पूर्वथा पुनर्ज्योतिर्युवतिरिवाकस्तथा त्वं भव ॥६॥
पदार्थः
(एषा) (प्रतीची) पश्चिमदिशां प्राप्ता (दुहिता) कन्येव (दिवः) सूर्य्यस्य (नॄन्) नायकान् श्रेष्ठान् पुरुषान् (योषेव) (भद्रा) कल्याणकारिणी (नि) (रिणीते) गच्छति (अप्सः) सुरूपम् (व्यूर्ण्वती) विशेषणाच्छादयन्ती (दाशुषे) दात्रे (वार्याणि) वर्त्तुमर्हाणि धनादीनि (पुनः) (ज्योतिः) (युवतिः) प्राप्तयौवनावस्थेव (पूर्वथा) पूर्वा इव (अकः) करोति ॥६॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ । याः स्त्रियो भद्राचाराः प्राप्तयुवावस्थाः स्वसदृशान् पतीन् प्राप्य सर्वाणि गृहकृत्यानि व्यवस्थापयन्ति ता उषर्वत्सुशोभन्त इति ॥६॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे शुभ लक्षणोंवाली स्त्रि ! जैसे (एषा) यह प्रातर्वेला (दिवः) सूर्य्य की (दुहिता) कन्या के सदृश (नॄन्) अग्रणी श्रेष्ठ पुरुषों को (योषेव) स्त्री के सदृश (भद्रा) कल्याण करनेवाली (प्रतीची) पश्चिम दिशा को प्राप्त (अप्सः) सुन्दर रूप को (नि, रिणीते) अत्यन्त प्राप्त होती है और (दाशुषे) देनेवाले के लिये (वार्याणि) स्वीकार करने योग्य धन आदि को (व्यूर्ण्वती) विशेष करके आच्छादित करती हुई (पूर्वथा) पहिली के सदृश (पुनः) फिर (ज्योतिः) ज्योतिःरूप को (युवतिः) प्राप्त यौवनावस्थावाली के सदृश (अकः) करती है, वैसी तुम होओ ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो स्त्रियाँ शुभ आचरणवालीं और युवावस्था को प्राप्त हुईं अपने सदृश पतियों को प्राप्त होकर सम्पूर्ण गृहकृत्यों को व्यवस्थापित करती हैं, वे प्रातर्वेला के सदृश अत्यन्त शोभित होती हैं ॥६॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्या स्त्रिया चांगले आचरण करून युवावस्थेत आपल्यासारख्याच पतीला प्राप्त करून संपूर्ण गृहकृत्याचे व्यवस्थापन करतात त्या प्रातर्वेळेप्रमाणे शोभून दिसतात. ॥ ६ ॥
English (1)
Meaning
Yonder stands this daughter of heaven like a maiden, holy and inspiring to the best of men, and then moves to the west, revealing the day’s phases of her splendour and opening up new possibilities of cherished achievements for the generous man of yajnic action. Ever bright and youthful, she thus moves the daily rounds of light anew as ever before since times immemorial.$Note: Swami Dayananda gives an extended interpretation of the Dawn by implication: He interprets Usha as the newly married woman rising like the dawn over the world of her new home, bringing new light and new possibilities of life’s achievements. The wedding of the couple is a new morning for the family, life moves on, new phases of the day move on westward, new generations follow, life goes on and on like the daily round of night and day. The sun remains the same, days and nights are new. Life remains the same, the phases are new. The bride is holy, sacred, inspiring, worthy of love, respect and reverence.
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