ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 21/ मन्त्र 10
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒म उ॑ त्वा पुरुशाक प्रयज्यो जरि॒तारो॑ अ॒भ्य॑र्चन्त्य॒र्कैः। श्रु॒धी हव॒मा हु॑व॒तो हु॑वा॒नो न त्वावाँ॑ अ॒न्यो अ॑मृत॒ त्वद॑स्ति ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मे । ऊँ॒ इति॑ । त्वा॒ । पु॒रु॒ऽशा॒क॒ । प्र॒य॒ज्यो॒ इति॑ प्रऽयज्यो । ज॒रि॒तारः॑ । अ॒भि । अ॒र्च॒न्ति॒ । अ॒र्कैः । श्रु॒धि । हव॑म् । आ । हु॒व॒तः । हु॒वा॒नः । न । त्वाऽवा॑न् । अ॒न्यः । अ॒मृ॒त॒ । त्वत् । अ॒स्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इम उ त्वा पुरुशाक प्रयज्यो जरितारो अभ्यर्चन्त्यर्कैः। श्रुधी हवमा हुवतो हुवानो न त्वावाँ अन्यो अमृत त्वदस्ति ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठइमे। ऊँ इति। त्वा। पुरुऽशाक। प्रयज्यो इति प्रऽयज्यो। जरितारः। अभि। अर्चन्ति। अर्कैः। श्रुधि। हवम्। आ। हुवतः। हुवानः। न। त्वाऽवान्। अन्यः। अमृत। त्वत्। अस्ति ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 21; मन्त्र » 10
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः क उपासनीय इत्याह ॥
अन्वयः
हे प्रयज्यो पुरुशाक परमेश्वर ! य इमे जरितारोऽर्कैस्त्वाऽभ्यर्चन्ति, हे अमृत ! यतस्त्वत् त्वावानन्यो नास्ति स त्वं हुवानस्तान् हुवतो हवमाऽश्रुधी उ ताननुगृहाण ॥१०॥
पदार्थः
(इमे) (उ) (त्वा) त्वाम् (पुरुशाक) बहुशक्ते (प्रयज्यो) यो यत्नेन यष्टुं सङ्गन्तुं योग्यस्तत्सम्बुद्धौ (जरितारः) विद्यालाभस्तोतारः (अभि) (अर्चन्ति) सत्कुर्वन्ति (अर्कैः) सत्करणैः (श्रुधी) शृणु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (हवम्) उच्चारितशब्दम् (आ) (हुवतः) स्तुवतः (हुवानः) स्तुवन् (न) निषेधे (त्वावान्) त्वया सदृशः (अन्यः) इतरः (अमृत) नाशरहित (त्वत्) तव सकाशात् (अस्ति) ॥१०॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यथा विद्वांसः परमात्मानं स्तुत्वा प्रार्थ्योपासते तथा यूयमप्युपाध्वं तत्सदृशस्तदधिको वा कोऽपि नास्तीति विजानीत ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को किसकी उपासना करनी चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (प्रयज्यो) यत्न से मेल करने को योग्य (पुरुशाक) बहुत सामर्थ्य से युक्त परमेश्वर ! जो (इमे) ये (जरितारः) विद्या के लाभ की स्तुति करनेवाले जन (अर्कैः) सत्कारों से (त्वा) आपको (अभि, अर्चन्ति) सब ओर से सत्कार करते हैं। हे (अमृत) नाशरहित ! जिन (त्वत्) आप से (त्वावान्) आपके सदृश (अन्यः) अन्य दूसरा (न) नहीं (अस्ति) है वह (हुवानः) प्रशंसा करते हुए आप उन (हुवतः) स्तुति करते हुओं को और (हवम्) उच्चारित शब्द को (आ) सब प्रकार (श्रुधि) सुनिये (उ) और उन को स्वीकार करिये ॥१०॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् जन परमात्मा की स्तुति और प्रार्थना करके उपासना करते हैं, वैसे आप भी उपासना करो और उसके सदृश वा उससे अधिक कोई भी नहीं है, ऐसा जानो ॥१०॥
विषय
बहुशक्तिशाली प्रभु का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( पुरुशाक ) बहुत सी शक्तियों के स्वामिन् ! हे (प्रयज्यो ) उत्तम दानशील, सत्संग योग्य, उत्तम पूजनीय प्रभो ! ( इमे जरितारः ) ये स्तुतिशील विद्वान् जन ( अर्कैः ) उत्तम अर्चना योग्य वेद मन्त्रों, स्तुतियों से ( त्वा अभि अर्चन्ति ) तेरी ही अर्चना करते हैं । ( आ हुवतः ) अपने आत्मा को तेरे प्रति आहुतिवत् अर्पण करने वाले और तुझे आदर पूर्वक बुलाने वालों को भी तू ( आहुवानः ) अपने प्रति बुलाता और अपने को उनके तईं देता हुआ उनका वचन ( आ श्रुधि ) आदरपूर्वक श्रवण कर । हे ( अमृत ) अमृतस्वरूप ! अविनाशिन् ! (त्वावान् ) तेरे जैसा ( त्वत् अन्यः न अस्ति ) तेरे से भिन्न दूसरा नहीं है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, २, ९, १०, १२ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, ११ त्रिष्टुप् । ३, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ स्वराड्बृहती ।। द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
शक्ति व अमृतत्व
पदार्थ
[१] हे (पुरुशाक) = अनन्त शक्तिवाले, (प्रयज्यो) = प्रकर्षेण पूजनीय प्रभो ! (इमे) = ये (जरितारः) = स्तोता लोग (उ) = निश्चय से (त्वा) = आपको (अर्कैः) = स्तुतिसाधन मन्त्रों से (अभ्यर्चन्ति) = पूजते हैं। आपकी उपासना से ही तो वस्तुतः शक्ति प्राप्त होती है। [२] हे प्रभो ! (हुवानः) = पुकारे जाते हुए आप (आहुवतः) = पुकारते हुए मेरी (हवम्) = पुकार को (श्रुधि) = सुनिये । हे अमृत अविनाशी प्रभो ! (त्वावान्) = आप जैसा (त्वद् अन्यः) = आप से भिन्न (न अस्ति) = नहीं है। आप ही हमारी सब कमियों को दूर कर सकते हैं। आपने ही हमें अमरता प्रदान करनी है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का ही स्तवन करना योग्य है। प्रभु ने ही हमें शक्ति व अमृतत्व प्राप्त कराना है।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जसे विद्वान लोक परमेश्वराची स्तुती, प्रार्थना, उपासना करतात तशी उपासना तुम्हीही करा व त्याच्यापेक्षा मोठा कोणीही नाही, हे जाणा. ॥ १० ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord omnipotent, adorable in yajna, these celebrants of your divine powers honour and worship you with their offers of homage and adoration. Listen to the devotee’s call and supplications while invoked. There is none other than you who is like you and who commands powers and virtues such as yours, immortal as you are.
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