ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 21/ मन्त्र 5
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒दा हि ते॒ वेवि॑षतः पुरा॒जाः प्र॒त्नास॑ आ॒सुः पु॑रुकृ॒त्सखा॑यः। ये म॑ध्य॒मास॑ उ॒त नूत॑नास उ॒ताव॒मस्य॑ पुरुहूत बोधि ॥५॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दा । हि । ते॒ । वेवि॑षतः । पु॒रा॒ऽजाः । प्र॒त्नासः॑ । आ॒सुः । पु॒रु॒ऽकृ॒त् । सखा॑यः । ये । म॒द्य॒मासः॑ । उ॒त । नूत॑नासः । उ॒त । अ॒व॒मस्य॑ । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । बो॒धि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदा हि ते वेविषतः पुराजाः प्रत्नास आसुः पुरुकृत्सखायः। ये मध्यमास उत नूतनास उतावमस्य पुरुहूत बोधि ॥५॥
स्वर रहित पद पाठइदा। हि। ते। वेविषतः। पुराऽजाः। प्रत्नासः। आसुः। पुरुऽकृत्। सखायः। ये। मध्यमासः। उत। नूतनासः। उत। अवमस्य। पुरुऽहूत। बोधि ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 21; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह्
अन्वयः
हे पुरुहुत पुरुकृद् बहुकृदिन्द्र राजन् ! ये हि पुराजाः प्रत्नासो मध्यमास उत नूतनासस्ते सखाय आसुस्तानिदा वेविषत उतावमस्य सम्बन्धिनस्त्वं बोधि ॥५॥
पदार्थः
(इदा) इदानीम् (हि) (ते) तव (वेविषतः) व्याप्नुवतः (पुराजाः) ये पूर्वं जाता (प्रत्नासः) प्राचीनाः (आसुः) सन्ति (पुरुकृत्) बहुकृत् (सखायः) सुहृदः (ये) (मध्यमासः) मध्ये भवाः (उत) अपि (नूतनासः) नवीनाः (उत) (अवमस्य) अर्वाचीनस्य (पुरुहूत) बहुभिः कृतप्रशंस (बोधि) बोधय ॥५॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! ये युष्माभिः सह मैत्रीमाचरन्ति ते वृद्धा वृद्धतरा मध्यमा उतापि तुल्यवयसः स्युस्तेषु सख्यं ध्रुवं रक्षेयुरेवं सति ध्रुवो राज्याभ्युदयो भवति। इदमेव पूर्वमन्त्रप्रश्नानामुत्तरम् ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (पुरुहूत) बहुतों से प्रशंसा किये गये (पुरुकृत्) बहुतों को करनेवाले प्रतापयुक्त राजन् ! (ये) जो (हि) निश्चित (पुराजाः) पूर्व प्रकट हुए (प्रत्नासः) प्राचीन (मध्यमासः) मध्य अवस्था में हुए और (उत) भी (नूतनासः) नवीन (ते) आपके (सखायः) मित्र (आसुः) हैं उनको (इदा) इस समय तथा (वेविषतः) व्याप्त हुए और (उत) भी (अवमस्य) आधुनिक के सम्बन्धियों को आप (बोधि) चेतन करिये ॥५॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो आप लोगों के साथ मैत्री का आचरण करते हैं, वे वृद्ध, वृद्धतर तथा मध्यम और भी तुल्य अवस्थावाले होवें, उन में मित्रता की निश्चय रक्षा करिये, ऐसा होने पर निश्चित राज्य की वृद्धि होती है, यह ही पूर्वमन्त्र में कहे हुए प्रश्नों का उत्तर है ॥५॥
विषय
वह सर्वज्ञ है ।
भावार्थ
हे परमेश्वर ! हे ( पुरुहूत ) बहुतों से स्तुति किये हुए ! हे ( पुरुकृत् ) बहुत से लोकों को बनाने हारे ! ( ये ) जो ( पुराजाः ) पूर्वकाल में उत्पन्न हुए, (प्रत्नासः ) अति पुरातन, (मध्यमासः ) मध्यकाल में उत्पन्न ( उत ) और ( नूतनासः ) नये विद्वान् (इदा हि ) इस समय भी ( वेविषतः ते ) सर्वव्यापक तेरे ( सखायः ) मित्र ही हैं ! हे ( पुरुहूत ) बहुतों से प्रशंसित ! ( उत ) और तू ( अवमस्य ) अब के अर्थात् अन्तिम और आगे के सबको ( बोधि ) जानता है । इत्येकादशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, २, ९, १०, १२ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, ११ त्रिष्टुप् । ३, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ स्वराड्बृहती ।। द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
क्रियाशीलता व प्रभु मित्रता
पदार्थ
[१] (इदा हि) [इदानीम् इव ] = अब की तरह (ते वे वेविषतः) = कर्मों में व्याप्त होनेवाले (पुराजा:) = पूर्वकाल में उत्पन्न हुए हुए (प्रत्नासः) = पुराणे 'अग्नि, वायु, आदित्य व आंगिरा' आदि ऋषि हे (पुरुकृत्) = पालक व पूरक कर्मों को करनेवाले प्रभो ! (सखायः आसुः) = आपके मित्र थे । कर्मशील पुरुष ही प्रभु का मित्र होता है, अकर्मण्य नहीं। [२] ये (मध्यमासः) = जो मध्यम काल में होनेवाले कर्मशील पुरुष थे (उत) = और (नूतनासः) = इस नवयुग में होनेवाले क्रियाशील पुरुष हुए वे सब आपके मित्र हैं, आपकी मित्रता उन्हें सदा प्राप्त रही है । हे पुरुहूत बहुतों से पुकारे जानेवाले प्रभो ! (उत) = और (अवमस्य) = इस सब से अवम काल में स्थित व सब से अवम [lowest] स्थिति में स्थित मुझ उपासक का भी (बोधि) = आप ध्यान करें, मैं आपकी कृपादृष्टि से वञ्चित न होऊँ ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु सब कालों में क्रियाशील उपासकों के मित्र हैं। मैं भी प्रभु की मित्रता का पात्र बनूँ ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जे तुमच्याबरोबर मैत्री करतात ते वृद्ध, वृद्धतर, मध्यम व तुल्य अवस्थायुक्त असावेत. त्यांच्याबरोबर निश्चयाने मैत्री करा. असे करण्याने राज्याची निश्चित वृद्धी होते. हा मंत्र पूर्व मंत्रात विचारलेल्या प्रश्नांचे उत्तर आहे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O lord of universal acts, universally invoked and adored, all are your friends, pray know and enlighten them all here and now, all those who are ancient, old and eminent, middling ones, modems, most recent ones, existing and active all over the world.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do is further told
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king! admired by many, doer of many good deeds, give us good teachings, to enlighten all your aged friends who were born earlier, and were of ancient time. Or who are in the middle, scattered at many places even. in recent times Think of all of them and give them good advice.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! those who keep friendship with you, whether they be old, very old, or of middle age or at par with you, you must also keep (maintain) firm friendship with them. By so doing, the progress of the State and its welfare are brought about.
Foot Notes
(वेषिषतः) व्याप्नुवत: विष्लृ-व्याप्तौ (जु०) । = Pervading or scattered at different places. (अवमस्य) अर्वाचीनस्य | = Of recent.
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