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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 21/ मन्त्र 11
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नू म॒ आ वाच॒मुप॑ याहि वि॒द्वान्विश्वे॑भिः सूनो सहसो॒ यज॑त्रैः। ये अ॑ग्निजि॒ह्वा ऋ॑त॒साप॑ आ॒सुर्ये मनुं॑ च॒क्रुरुप॑रं॒ दसा॑य ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नु । मे॒ । आ । वाच॑म् । उप॑ । या॒हि॒ । वि॒द्वान् । विश्वे॑भिः । सू॒नो॒ इति॑ । स॒ह॒सः॒ । यज॑त्रैः । ये । अ॒ग्नि॒ऽजि॒ह्वाः । ऋ॒त॒ऽसापः॑ । आ॒सुः । ये । मनु॑म् । च॒क्रुः । उप॑रम् । दसा॑य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नू म आ वाचमुप याहि विद्वान्विश्वेभिः सूनो सहसो यजत्रैः। ये अग्निजिह्वा ऋतसाप आसुर्ये मनुं चक्रुरुपरं दसाय ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नु। मे। आ। वाचम्। उप। याहि। विद्वान्। विश्वेभिः। सूनो इति। सहसः। यजत्रैः। ये। अग्निऽजिह्वाः। ऋतऽसापः। आसुः। ये। मनुम्। चक्रुः। उपरम्। दसाय ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 21; मन्त्र » 11
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे सहसः सूनो विद्वांस्त्वं मे वाचमुपाऽऽयाहि येऽग्निजिह्वा ऋतसाप आसुस्तैर्विश्वेभिर्यजत्रैस्सह नु मदीयं वचनमुपायाहि। य उपरमिव दसाय मनुं चक्रुस्तान्त्सदा सत्कुर्याः ॥११॥

    पदार्थः

    (नु) सद्यः (मे) मम (आ) समन्तात् (वाचम्) उपदेशम् (उप) (याहि) प्राप्नुहि (विद्वान्) (विश्वेभिः) सर्वैः (सूनो) अपत्य (सहसः) बलवतः (यजत्रैः) सङ्गन्तुमर्हैः (ये) (अग्निजिह्वाः) अग्निरिव तीव्रा प्रज्वलिता जिह्वा येषां ते (ऋतसापः) य ऋतेन सत्येन सपन्ति (आसुः) भवन्ति (ये) (मनुम्) मननशीलं मनुष्यम् (चक्रुः) कुर्वन्ति (उपरम्) मेघमिव (दसाय) शत्रूणामुपक्षयाय ॥११॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । मनुष्याः सदैव सत्यवादिनो विदुषः सङ्गच्छेरन् प्रतिज्ञया च सत्यमाचरेयुः ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सहसः) बलवान् के (सूनो) सन्तान (विद्वान्) विद्यायुक्त जन ! आप (मे) मेरी (वाचम्) वाणी को (उप, आ, याहि) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये और (ये) जो (अग्निजिह्वाः) अग्नि के समान तीव्र प्रज्वलित जिह्वा जिन की (ऋतसापः) सत्य से युक्त होनेवाले (आसुः) होते हैं जिन (विश्वेभिः) सम्पूर्ण (यजत्रैः) मिलने योग्यों के साथ (नु) शीघ्र मेरे उपदेश को प्राप्त हूजिये और (ये) जो (उपरम्) मेघ को जैसे वैसे (दसाय) शत्रुओं के नाश होने के लिये (मनुम्) विचारशील मनुष्य को (चक्रुः) करते हैं, उनका सदा सत्कार करिये ॥११॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य सदा ही सत्यवादी विद्वानों को उत्तम प्रकार मिलें और प्रतिज्ञा से सत्य का आचरण करें ॥११॥

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    विषय

    उसके प्रति प्रार्थना ।

    भावार्थ

    ( ये ) जो (ऋत-सापः ) सत्य वचन के आधार पर दृढ़ता से समवाय बनाने वाले, सत्य पर दृढ़ (अग्निजिह्वा ) अग्नि की ज्वाला के समान ज्ञान का प्रकाश करने वाली वाणी को बोलने वाले, ( आसुः ) हैं और ( ये ) जो ( मनुं ) मननशील ( उपरं ) सर्वोपरि विराजमान, मेघवत् उदारता से निष्पक्षपात होकर दान देने वाले को ( दसाय ) अज्ञान वा शत्रु का नाश करने के लिये ( चक्रुः ) नियुक्त करते हैं उन ( यजत्रैः ) दानशील, सत्संगी और पूजा के योग्य, ( विश्वेभिः ) समस्त पुरुषों के साथ या उन द्वारा हे (सहसः सूनो ) बलवान् पुत्र, बल, सैन्य के सञ्चालक ! तू ( विद्वान् ) ज्ञानवान् होकर (मे) मेरी ( वाचम् ) वाणी को ( उप याहि ) प्राप्त कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, २, ९, १०, १२ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, ११ त्रिष्टुप् । ३, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ स्वराड्बृहती ।। द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'ऋतसाप:' देव

    पदार्थ

    [१] हे (सहसः सूनो) = बल के पुञ्ज प्रभो ! (विद्वान्) = सर्वज्ञ होते हुए आप (विश्वेभिः यजत्रैः) = सब यजनीय देवों के साथ मे (वाचम्) = मेरे से की जाती हुई इस स्तुतिवाणी को (नू) = निश्चय से (उप आयाहि) = समीपता से प्राप्त होइये। मैं आपका स्तवन करूँ और सब दिव्य गुणों को प्राप्त करनेवाला बनूँ। [२] मैं उन देवों [विद्वानों] के सम्पर्क में आऊँ, (ये) = जो (अग्निजिह्वा:) = अग्नि के समान जिह्वावाले हैं, अर्थात् ज्ञानोपदेश द्वारा सब बुराइयों को दग्ध करनेवाले हैं और (ऋतसापः आसुः) = यज्ञों का सेवन करनेवाले हैं। सदा उत्तम कर्मों में लगे रहते हैं। (ये) = जो हमें (मनुम्) = ज्ञानवाला (उपरम्) = वासनाओं से ऊपर उठनेवाला तथा (दसाय चक्रुः) = वासनाओं के उपक्षय के लिए करते हैं। जो हमें अपने ज्ञानोपदेश तथा जीवन से प्रभावित करके वासनाओं के संहार में समर्थ करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारी प्रार्थना को सुनें, हमें दिव्यभावों को प्राप्त कराएँ । प्रभु कृपा से हमें उन ज्ञानियों का सम्पर्क प्राप्त हो जो हमें ज्ञान देकर वासनाओं के पराभव के लिए समर्थ करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी सदैव सत्यवादी विद्वानांना भेटावे व प्रतिज्ञापूर्वक सत्याचरण करावे. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O lord of knowledge, creator and giver of strength, listen to my words of prayer and come to me with all universal forms of wealth and those adorable powers worthy of being cherished who have the tongue of fire, serve the truth of divine law and who raise humanity high like the cloud for charity toward the weak and exhausted.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do again-is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O son of the mighty father ! you who are highly learned, come quickly to accept my words (of prayers). Come to accept my words with all those noble persons who are worthy or effective of association, whose tongue is sharp like the fire and who are absolutely truthful. Respect them, who have made a thoughtful person fit, to drive away the foes like a cloud.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should always accompany the truthful and enlightened persons and should observe the vow of truth.

    Foot Notes

    (यजत्नै:) सङ्गन्तुमर्हेः । यज-देवपूजा सकृतिकरण दानेषु (भ्वा० ) अत्र सङ्गतिकरणार्थ: अमि नक्षियजिबधिपतिभ्योऽवन् (उणादिकोबे 3,105) इति यजधातो: 1 = Worthy of association. (उपरम् ) मेधमिव । उपर इति मेघनाथ (NG 1,10) | Like a cloud. ( दसय) शत्र णामूपक्षमाम दसु-उपक्षये (दिवा०) = For the destruction of the enemies.

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