ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 22/ मन्त्र 10
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
आ सं॒यत॑मिन्द्र णः स्व॒स्तिं श॑त्रु॒तूर्या॑य बृह॒तीममृ॑ध्राम्। यया॒ दासा॒न्यार्या॑णि वृ॒त्रा करो॑ वज्रिन्त्सु॒तुका॒ नाहु॑षाणि ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठआ । स॒म्ऽयत॑म् । इ॒न्द्र॒ । नः॒ । स्व॒स्तिम् । श॒त्रु॒ऽतूर्या॑य । बृ॒ह॒तीम् । अमृ॑ध्राम् । यया॑ । दासा॑नि । आर्या॑णि । वृ॒त्रा । करः॑ । व॒ज्रि॒न् । सु॒ऽतुका॑ । नाहु॑षाणि ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ संयतमिन्द्र णः स्वस्तिं शत्रुतूर्याय बृहतीममृध्राम्। यया दासान्यार्याणि वृत्रा करो वज्रिन्त्सुतुका नाहुषाणि ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठआ। सम्ऽयतम्। इन्द्र। नः। स्वस्तिम्। शत्रुऽतूर्याय। बृहतीम्। अमृध्राम्। यया। दासानि। आर्याणि। वृत्रा। करः। वज्रिन्। सुऽतुका। नाहुषाणि ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 22; मन्त्र » 10
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे वज्रिन्निन्द्र ! त्वं यया दासान्यार्याणि सुतुका नाहुषाणि वृत्राऽऽकरस्ताममृध्रां बृहतीं सेनां शत्रुतूर्याय कुर्यास्तया नः संयतं स्वस्तिं कुर्याः ॥१०॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (संयतम्) कृतसंयमम् (इन्द्र) परमैश्वर्यकारक (नः) अस्मभ्यम् (स्वस्तिम्) सुखम् (शत्रुतूर्याय) शत्रूणां हिंसनाय (बृहतीम्) महतीम् (अमृध्राम्) अहिंसिकाम् (यया) (दासानि) दासकुलानि (आर्याणि) द्विजकुलानि (वृत्रा) धनानि (करः) करोति (वज्रिन्) शस्त्रास्त्रभृत् (सुतुका) सुष्ठु वर्धकानि (नाहुषाणि) मनुष्यसम्बन्धीनि ॥१०॥
भावार्थः
हे राजंस्त्वं सत्यविद्यादानोपदेशाभ्यां शूद्रकुलोत्पन्नानपि द्विजान् कुर्याः सर्वत ऐश्वर्यं प्रापय्य शत्रून्निवार्य सुखं वर्धय ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (वज्रिन्) शस्त्र और अस्त्र के धारण करनेवाले (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य के करनेवाले ! आप (यया) जिससे (दासानि) शूद्र के कुलों को (आर्याणि) द्विजकुल और (सुतुका) उत्तम प्रकार बढ़नेवाले (नाहुषाणि) मनुष्यसम्बन्धी (वृत्रा) धनों को (आ) सब प्रकार (करः) करती हैं उस (अमृध्राम्) नहीं हिंसा करनेवाली (बृहतीम्) बड़ी सेना को (शत्रुतूर्याय) शत्रुओं के नाश के लिये करिये और उससे (नः) हम लोगों के लिये (संयतम्) किया है संयम जिसके निमित्त उस (स्वस्तिम्) सुख को करिये ॥१०॥
भावार्थ
हे राजन् ! आप सत्यविद्या के दान और उपदेश से शूद्र के कुल में उत्पन्न हुओं को भी द्विज करिये और सब प्रकार से ऐश्वर्य को प्राप्त कराय तथा शत्रुओं का निवारण करके सुख की वृद्धि कीजिये ॥१०॥
विषय
पक्षान्तर में राजा के कर्तव्य।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( यमा ) जिस बुद्धि वा शक्ति से ( दासानि ) मनुष्यों के नाश करने वाले ( वृत्रा ) विघ्नकारी कुलों वा धनों को ( आर्याणि ) उत्तम श्रेष्ठ, सदाचार युक्त कुल, वा ‘अर्य’ अर्थात् स्वामी के उपभोग योग्य ( करः ) बना देता है, और हे (वज्रिन्) शस्त्रास्त्र के स्वामिन् ! हे बलशालिन् ! और जिस बुद्धि वा शक्ति से तू (नाहुषाणि ) मनुष्यों के कुलों वा धनों को ( सु-तुका ) उत्तम, सुखपूर्वक वृद्धिशील कर देता है, और ( वृत्रा सु-तुकानि ) विघ्नकारी जनों का सुखपूर्वक मारने योग्य करता है, तू (नः) हमारे लिये उस (संयतम् स्वस्तिम् ) कल्याणकारिणी, अच्छी प्रकार प्रजा को नियमादि में बांधने वाली, और अच्छी प्रकार यत्न करने वाली कर । और ( शत्रु-तूर्यम् ) शत्रु के नाश करने के लिये ( अमृध्राम् ) न नाश होने वाली ( बृहतीम् ) बड़े भारी सेना को भी बना ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १, ७ भुरिक् पंक्ति: । ३ स्वराट् पंक्तिः । १० पंक्तिः । २, ४, ५ त्रिष्टुप् । ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९, ११ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सुक्तम् ।।
विषय
संयतं स्वस्तिम् [संयम का शुभ मार्ग ]
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = सब शक्तिशाली कार्यों को करनेवाले प्रभो! आप (नः) = हमारे लिए (वृत्र तूर्याय) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं के विनाश के लिए (बृहतीम्) = वृद्धि की कारणभूत (अमृध्राम्) = हिंसारहित (संयतं स्वस्तिम्) = संयमरूप कल्याण के मार्ग को (आ करः) = सर्वथा करिये हम संयत शुभ जीवनवाले होकर वासनाओं से दूर रहें। [२] आप उस संयमवृत्ति को हमारे लिये करिये कि (यथा) = जिससे (दासानि) = कर्मरहित लोगों को (आर्याणि) = कर्मयुक्त [ऋ गतौ] (करः) = दीजिये और हे (वज्रिन्) = वज्रहस्त प्रभो ! (नाहुषाणि) = मनुष्य सम्बन्धी (वृत्रा) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को (सुतुका) = अच्छी प्रकार [पूर्णतया] हिंसायुक्त करिये, अर्थात् वासनाओं का सम्यक् विनाश करके ज्ञान को दीप्त करिये।
भावार्थ
भावार्थ—प्रभु कृपा से हम संयम के शुभ मार्ग पर चलते हुए वासनाओं से दूर रहें। कर्महीनता को परे फेंक कर्मशील बनें। वृत्र का पूर्ण विनाश करने में समर्थ हों ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! सत्य विद्या दान व उपदेश याद्वारे शूद्र कुळात उत्पन्न झालेल्यांनाही द्विज कर व सर्व प्रकारचे ऐश्वर्य प्राप्त करून शत्रूंचे निवारण करून सुखाची वृद्धी कर. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of adamantine will and power, ruler of the world, bring in that wide ranging and inviolable peace and well being in a state of constant vigilance and dynamism to win over enmity and opposition by which darkness and ignorance can be replaced by light and knowledge and the lower and average orders of society can be raised to higher state of enlightenment and action.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of what a king should do-is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! you are the wielder of the powerful arms and missiles. (Adopt or pursue) the policy by which you convert the men belonging to the Shudra class into the higher classes of the twice-born (Brahmanas, Kshatriyas or Vaishyas) and make (transform) all wealth belonging to men as means for good advancement. Use that big arms which does not unjustly cause harm to any one, (and) use (it) only for the destruction of the foes and by that create happiness for us with self-control.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king ! convert those who are born in the Shudra families, into the classes of the twice-born, make the people prosperous and by driving away enemies, increase happiness.
Foot Notes
(शत्रुतूर्याय) शत्रुणां हिंसनाय । तूरी गतित्वरण हसनयोः (दिवा० ) अथ हिंसार्थंक:। = For the destruction of the enemies. (अमृध्राम्) अहिंसिकम् । मृध मर्दने (भ्वा० ) काशकृत्स्नधातु पाठे (1, 6, 72) = Non-violence. (सुतुका) सुष्ठु वर्धकानि । सु तु गति वृद्धिहिंसायु (अदा०) सौत्रोधातु अत्र वृद्धचर्थक: । = Increasers of the intellect. (नाहुषाणी ) मनुष्यसम्बन्धीने । = Belonging to the human race.
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