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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 22/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तमु॑ नः॒ पूर्वे॑ पि॒तरो॒ नव॑ग्वाः स॒प्त विप्रा॑सो अ॒भि वा॒जय॑न्तः। न॒क्ष॒द्दा॒भं ततु॑रिं पर्वते॒ष्ठामद्रो॑घवाचं म॒तिभिः॒ शवि॑ष्ठम् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । ऊँ॒ इति॑ । नः॒ । पूर्वे॑ । पि॒तरः॑ । नव॑ऽग्वाः । स॒प्त । विप्रा॑सः । अ॒भि । वा॒जय॑न्तः । न॒क्ष॒त्ऽदा॒भम् । ततु॑रिम् । प॒र्व॒ते॒ऽस्थाम् । अद्रो॑घऽवाचम् । म॒तिऽभिः॑ । शवि॑ष्ठम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमु नः पूर्वे पितरो नवग्वाः सप्त विप्रासो अभि वाजयन्तः। नक्षद्दाभं ततुरिं पर्वतेष्ठामद्रोघवाचं मतिभिः शविष्ठम् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। ऊँ इति। नः। पूर्वे। पितरः। नवऽग्वाः। सप्त। विप्रासः। अभि। वाजयन्तः। नक्षत्ऽदाभम्। ततुरिम्। पर्वतेऽस्थाम्। अद्रोघऽवाचम्। मतिऽभिः। शविष्ठम् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यं नक्षद्दाभं ततुरिं पर्वतेष्ठामद्रोघवाचं शविष्ठं परमात्मानं नः पूर्वे नवग्वा विप्रासः सप्तेव पितरोऽभिवाजयन्त उपदिशन्ति तमु यूयमुपाध्वम्। मतिभिरयमेव सेवनीयः ॥२॥

    पदार्थः

    (तम्) (उ) (नः) अस्माकम् (पूर्वे) (पितरः) (नवग्वाः) नवीनगतयः (सप्त) सप्तसङ्ख्याकाः पञ्चप्राणमनोबुद्धयश्चेव (विप्रासः) मेधाविनः (अभि) आभिमुख्ये (वाजयन्तः) ज्ञापयन्तः (नक्षद्दाभम्) नक्षतानां प्राप्तानां दोषाणां हिंसितारम् (ततुरिम्) दुःखात्तारयितारम् (पर्वतेष्ठाम्) पर्वते मेघे स्थितां विद्युतमिव शुद्धस्वरूपम् (अद्रोघवाचम्) द्रोहरहिता वाग्यस्य तम् (मतिभिः) मननशीलैर्मनुष्यैः (शविष्ठम्) अतिशयेन बलयुक्तम् ॥२॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यूयं, योगिनो यं योगेनोपासते तमेव योगाभ्यासेन ध्यायत ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जिस (नक्षद्दाभम्) प्राप्त दोषों के नाश करने और (ततुरिम्) दुःख से पार करनेवाले (पर्वतेष्ठाम्) मेघ में वर्त्तमान बिजुली के समान शुद्धस्वरूप और (अद्रोघवाचम्) द्रोहरहित वाणीवाले (शविष्ठम्) अत्यन्त बल से युक्त परमात्मा का (नः) हम लोगों के (पूर्वे) पहिले (नवग्वाः) नवीन गमन करनेवाले (विप्रासः) बुद्धिमान् और (सप्त) सात संख्या से युक्त अर्थात् पाँच प्राण और मन बुद्धि इनके सदृश वर्त्तमान (पितरः) पितृजन (अभि) सम्मुख (वाजयन्तः) बुद्धि को देते हुए उपदेश देते हैं (तम्) उसकी (उ) और आप लोग उपासना करो और (मतिभिः) मननशील मनुष्यों से यही सेवा करने योग्य है ॥२॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम, जिसकी योगीजन योग से उपासना करते हैं, उसी का योगाभ्यास से ध्यान करो ॥२॥

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    विषय

    उसके सत्संगी । उसके पितृगण ।

    भावार्थ

    ( नः पूर्वे पितरः ) हमारे पूर्व के पालक, माता पिता और गुरुजन ( नवग्वाः ) नये से नये अति स्तुत्य, रम्य भूमियों, वाणियों और गतियों वाले, (सप्त) देह में सात प्राणों के समान, (विप्रासः) बुद्धिमान् पुरुष ( अभि वाजयन्तः ) एक साथ ज्ञान, ऐश्वर्य प्राप्त करते हुए ( नक्षत्-दाभं ) प्राप्त या राष्ट्र में और फैलते हुए शत्रु और सेना को नाश करने वाले, (ततुरिं ) अति शीघ्र कार्य सम्पादन करने वाले, (पर्वतेष्ठाम् ) मेघ में विद्यमान, विद्युत् के समान तेजस्वी, धर्ममेघ दशा में विराजमान, ( अद्रोघवाचम् ) द्रोह रहित वाणी वाले ( शविष्ठम् ) अति बलवान् (तम् ) उसको प्राप्त करें, उसके पास जाकर सत्संग लाभ करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १, ७ भुरिक् पंक्ति: । ३ स्वराट् पंक्तिः । १० पंक्तिः । २, ४, ५ त्रिष्टुप् । ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९, ११ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सुक्तम् ।।

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    विषय

    'पूर्व-पिता - नवग्व-सप्त विप्र'

    पदार्थ

    [१] (नः) = हमारे (पूर्वे) = अपना पालन व पूरण करनेवाले, (पित्तरः) = रक्षणात्मक कार्यों में व्याप्त (नवग्वा:) = स्तुत्य गतिवाले (सप्त विप्रासः) = 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्' इन सातों का पूरण करनेवाले लोग (उ) = निश्चय से (तं अभि वाजयन्तः) = उस प्रभु की ओर अपने को ले जा रहे होते हैं [गमयन्तः] । प्रभु प्राप्ति का मार्ग यही है कि हम 'पूर्व बनें, पिता बनें, नवग्व व सप्त- विप्र' बनें । [२] उस प्रभु की ओर अपने को ले जाते हैं जो कि (नक्षद्दाभम्) = अभिगन्ता शत्रुओं का हिंसन करते हैं, (ततुरिं) = भवसागर से तराते हैं, (पर्वतेष्ठाम्) = [पर्व पूरणे] अपना पूरण करनेवाले व्यक्तियों में स्थित होते हैं, (अद्रोघवाचम्) = द्रोह शून्य वाणीवाले हैं और मतिभिः शविष्ठम् प्रज्ञानों के साथ बलवत्तम हैं। अपनी ओर आनेवालों को भी प्रभु ऐसा ही बनाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ—प्रभु प्राप्ति का मार्ग यह है कि हम [क] अपनी न्यूनताओं को दूर करें [पूर्व], [ख] रक्षणात्मक कामों में व्याप्त हों [पिता], [ग] स्तुत्य गतिवाले बनें, प्रशस्त कर्मोंवाले [नवग्व], [घ] दोनों कानों, नासिकाछिद्रों, आँखों व मुख को सब कमियों से रहित करने का प्रयत्न करें [सप्त विप्र ] । प्रभु की उपासना शत्रु संहार द्वारा हमें भवसागर से तरायेगी।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! योगी लोक योगाने ज्याची उपासना करतात त्याचेच योगाभ्यासाने तुम्ही ध्यान करा. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Him our ancient forefathers and the seven sages, like our five senses, mind and intellect, alongwith their fellow men, have celebrated and glorified, the lord that is tamer and controller of opposition, saviour from suffering, pervasive in clouds and over mountains, sweet of tongue and strongest in force and power.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of ideal person is dealt.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should also adore that one God, who is the destroyer of all evils and defects that come, taking beyond all miseries, pure in nature as the lightning in the cloud, whose speech ( in the form of the evades ) is free from malice. (To) Almighty, our fore-fathers of admirable movement and knowledge, very wise and who taught about Him to others like the five Pranas, mind and intellect. He alone should be adored and served by all men.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should meditate upon that One God by the practice of Yoga, as the Yogis do.

    Foot Notes

    (सप्त) सप्तसङ्ख्याकाः पंचप्राणमनो- बुद्धयश्चेव । = Like the seven (five Pranas, Mind and intellect.) (नक्षद्दाभं) नक्षतानां प्राप्तानां दोषाणां हिंसितारम् । नक्षति गतिकर्मा (NG 2,14) गतोत्रिष्वर्थेष्वत्न प्राप्त्यथग्रहणम् । दभ्नोति बधकर्मा (NG 2,19)। = Destroyer of the evils and defects that come. (ततुरिम्) दु:खात्तारयितारम् |Taking beyond miseries. (पर्वतेष्ठाम्) पर्वते मेघे स्थितां विद्युतमिव शुद्धस्वरूम् । तृ-प्लवनसन्तरणयो: (भ्वा०) अत्र सन्तरणार्थ: । = Of Pure nature like the lightning in the cloud.

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