ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 22/ मन्त्र 11
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स नो॑ नि॒युद्भिः॑ पुरुहूत वेधो वि॒श्ववा॑राभि॒रा ग॑हि प्रयज्यो। न या अदे॑वो॒ वर॑ते॒ न दे॒व आभि॑र्याहि॒ तूय॒मा म॑द्र्य॒द्रिक् ॥११॥
स्वर सहित पद पाठसः । नः॒ । नि॒युत्ऽभिः॑ । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । वे॒धः॒ । वि॒श्वऽवा॑राभिः । आ । ग॒हि॒ । प्र॒य॒ज्यो॒ इति॑ प्रऽयज्यो । न । याः । अदे॑वः । वर॑ते । न । दे॒वः । आ । आ॒भिः॒ । या॒हि॒ । तूय॑म् । आ । म॒द्र्य॒द्रिक् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स नो नियुद्भिः पुरुहूत वेधो विश्ववाराभिरा गहि प्रयज्यो। न या अदेवो वरते न देव आभिर्याहि तूयमा मद्र्यद्रिक् ॥११॥
स्वर रहित पद पाठसः। नः। नियुत्ऽभिः। पुरुऽहूत। वेधः। विश्वऽवाराभिः। आ। गहि। प्रयज्यो इति प्रऽयज्यो। न। याः। अदेवः। वरते। न। देवः। आ। आभिः। याहि। तूयम्। आ। मद्र्यद्रिक् ॥११॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 22; मन्त्र » 11
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 6
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे प्रयज्यो पुरुहूत वेधः ! स त्वं देवो न विश्ववाराभिराभिर्नियुद्भिर्न आ गहि या रीतिरदेवो नाऽऽवरते मद्र्यद्रिक् सँस्त्वं तूयमायाहि ॥११॥
पदार्थः
(सः) (नः) अस्मान् (नियुद्भिः) निश्चिद्गतिभिरश्वैरिव (पुरुहूत) बहुभिः पूजित (वेधः) मेधाविन् (विश्ववाराभिः) सर्वैः स्वीकरणीयाभिर्गतिभिः (आ) (गहि) आगच्छ (प्रयज्यो) प्रकर्षेण यज्ञकर्त्तः (न) निषेधे (याः) (अदेवः) अविद्वान् (वरते) स्वीकरोति (न) (देवः) विद्वान् (आ) (आभिः) (याहि) (तूयम्) तूर्णम् (आ) (मद्र्यद्रिक्) मदभिमुखः ॥११॥
भावार्थः
या रीतिर्विदुषां भवति तामविद्वांसो न स्वीकुर्वन्ति तस्माद्विदुषामविदुषां च पृथक् प्रस्थानमस्तीति वेद्यम् ॥११॥ अत्रेन्द्रविद्वदीश्वरराजप्रजाधर्मवर्णनादेतर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्वाविंशतितमं सूक्तं चतुर्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (प्रयज्यो) अत्यन्त यज्ञ करनेवाले (पुरुहूत) बहुतों से आदर किये गये (वेधः) बुद्धियुक्त (सः) वह आप (देवः) विद्वान् के (न) समान (विश्ववाराभिः) सब से स्वीकार करने योग्य गमनों से और (आभिः) इन (नियुद्भिः) निश्चित गमनवाले घोड़ों से जैसे वैसे (नः) हम लोगों को (आ, गहि) प्राप्त हूजिये और (याः) जिन रीतियों को (अदेवः) विद्वान् जनसे भिन्न (न) नहीं (आ, वरते) अच्छे प्रकार स्वीकार करता है (मद्र्यद्रिक्) मेरे सन्मुख हुए आप (तूयम्) शीघ्र (आ, याहि) प्राप्त हूजिये ॥११॥
भावार्थ
जो रीति विद्वानों की है उसको अविद्वान् जन नहीं स्वीकार करते हैं, इससे विद्वानों और अविद्वानों का पृथक् प्रस्थान है, यह जानना चाहिये ॥११॥ इस सूक्त में इन्द्र, विद्वान्, ईश्वर, राजा और प्रजा के धर्म का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह बाईसवाँ सूक्त और चौदहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
पक्षान्तर में राजा के कर्तव्य।
भावार्थ
हे (पुरुहूत) बहुतों से प्रशंशित ! हे (वेधः) विधान, धारा वा राजनियमों के बनानेहारे ! विद्वन् ! हे (प्रयज्यो) उत्तम पूज्य ! सत्संग योग्य उत्तम न्याय वा विद्या अदि के दातः ! राजन् ! ( सः ) वह तू ( विश्व-वाराभिः ) सबकी रक्षा करने वाली ( नियुद्भिः ) निरन्तर युद्ध करने वाली, ऐसी सेनाओं और अश्ववत् सदा नियुक्त रहने वाले भृत्यादि सहित तू ( नः ) हमें (आ गहि) प्राप्त हो ! (या) जिनको (न अदेव:) न तो अदानशील (वरते ) निवारण कर सके और ( न देवः ) न विजयेच्छुक शत्रु वा केवल चाहने वाला ही ( वरते ) प्राप्त कर सके, ( आभिः ) उनसे तू (मद्रयद्रिक्) मेरे प्रति ( तूयम् ) शीघ्र ही ( आ याहि ) आ । इति चतुर्दशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १, ७ भुरिक् पंक्ति: । ३ स्वराट् पंक्तिः । १० पंक्तिः । २, ४, ५ त्रिष्टुप् । ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९, ११ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सुक्तम् ।।
विषय
वरणीय इन्द्रियाश्व
पदार्थ
[१] हे पुरुहूत बहुतों से पुकारे जानेवाले (वेधः) = विधातः प्रभो ! (सः) = वे आप (नः) = हमें (विश्वावाराभिः) = सब से वरणीय (नियुद्भिः) = इन्द्रियाश्वों के साथ (आगहि) = प्राप्त होइये । आपकी कृपा से हमें वे इन्द्रियाश्व प्राप्त हों जो सब से वरणीय, चाहने योग्य हों। [२] हे (प्रयज्यो) = प्रकर्षेण पूजनीय प्रभो! (याः) = जिन इन्द्रियाश्वों को (अदेव:) = कोई भी अ-देव, अर्थात् आसुरभाव (न वरते) = रोक नहीं पाता और (न) = नांही कोई (देव) = [वरते] क्रीडा, मद् व स्वप्न [दिव्- क्रीड मद स्वप्नेषु ] आदि का भाव घेर पाता है। (आभिः) = इन इन्द्रियाश्वों के साथ (तूयम्) = शीघ्र (मद्र्यद्रिक्) = मदभिमुख (आयाहि) = आइये, शीघ्र मुझे आभिमुखेन प्राप्त होइये । अर्थात् मैं आपकी कृपा से शोभन इन्द्रियाश्वों को प्राप्त कर सकूँ, जो इन्द्रियाश्व, राजस व तामस संसार में विचरनेवाले न होकर सात्त्विक गतिवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमें सब से वरणीय इन्द्रियाश्वों को प्राप्त कराएँ, उन इन्द्रियाश्वों को जो राजस्वी व तामसी मार्गों से न गति करते हुए सात्त्विक गतिवाले ही हों। अगले सूक्त में भी 'भरद्वाज बार्हस्पत्य' इन्द्र का आराधन करते हैं -
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वानांच्या मार्गाने अविद्वान लोक चालत नाहीत. त्यामुळे विद्वान व अविद्वानांचा मार्ग वेगवेगळा आहे हे जाणले पाहिजे. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O lord all wise and worshipful, universally adored and invited, come to us by well controlled and well directed modes and means of advancement with those laws and policies of universal interest and value and application, which neither the impious obstruct nor the pious camouflage. Come straight here to us with these without delay.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of an ideal king are described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O performer of many Yajnas! O revered by many wise persons! come to us with the movements which are accepted by all and which are like the horses of fixed movement; come to me quickly with the methods that an unenlightened person cannot accept.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The way adopted by the enlightened persons is not generally accepted by the ignorant people, Therefore, men should know that the manners of the enlightened men are different from those of the ignorant. This (difference) you must know.
Foot Notes
(नियुदिभ:) निश्चियद्गतिभिरश्वैरिव। = With fixed movements like those of the horses. (मद्यद्रिक) कदभिमुखः = Towards me. (वेधः) मेधाविन् । विधा इति मेधाविनाम । (NG 3, 15) = Very wise, genius.
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