Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 23 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 23/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सु॒त इत्त्वं निमि॑श्ल इन्द्र॒ सोमे॒ स्तोमे॒ ब्रह्म॑णि श॒स्यमा॑न उ॒क्थे। यद्वा॑ यु॒क्ताभ्यां॑ मघव॒न्हरि॑भ्यां॒ बिभ्र॒द्वज्रं॑ बा॒ह्वोरि॑न्द्र॒ यासि॑ ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ते । इत् । त्वम् । निऽमि॑श्लः । इ॒न्द्र॒ । सोमे॑ । स्तोमे॑ । ब्रह्म॑णि । श॒स्यमा॑ने । उ॒क्थे । यत् । वा॒ । यु॒क्ताभ्या॑म् । म॒घ॒ऽव॒न् । हरि॑ऽभ्याम् । बिभ्र॑त् । वज्र॑म् । बा॒ह्वोः । इ॒न्द्र॒ । यासि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुत इत्त्वं निमिश्ल इन्द्र सोमे स्तोमे ब्रह्मणि शस्यमान उक्थे। यद्वा युक्ताभ्यां मघवन्हरिभ्यां बिभ्रद्वज्रं बाह्वोरिन्द्र यासि ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुते। इत्। त्वम्। निऽमिश्लः। इन्द्र। सोमे। स्तोमे। ब्रह्मणि। शस्यमाने। उक्थे। यत्। वा। युक्ताभ्याम्। मघऽवन्। हरिऽभ्याम्। बिभ्रत्। वज्रम्। बाह्वोः। इन्द्र। यासि ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 23; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! यस्त्वं स्तोमे ब्रह्मणि निमिश्लः सोमे सुते शस्यमान उक्थे युक्ताभ्यां हरिभ्यां बाह्वोर्वज्रं बिभ्रद् यासि यद्वा हे मघवन्निन्द्र ! त्वमायासि स त्वमित् सत्कर्त्तव्योऽसि ॥१॥

    पदार्थः

    (सुते) निष्पन्ने (इत्) एव (त्वम्) (निमिश्लः) नितरां मिश्रः (इन्द्र) शत्रुविदारक (सोमे) ऐश्वर्ये (स्तोमे) प्रशंसायाम् (ब्रह्मणि) धने (शस्यमाने) प्रशंसनीये (उक्थे) श्रोतुं वक्तुमर्हे वा (यत्) यः (वा) (युक्ताभ्याम्) (मघवन्) बहुधनयुक्त (हरिभ्याम्) हरणशीलाभ्यां मनुष्याभ्याम् (बिभ्रत्) धरन् (वज्रम्) (बाह्वोः) भुजयोः (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (यासि) गच्छसि ॥१॥

    भावार्थः

    ये राजानोऽप्रमाद्यन्तः पितृवत्प्रजाः पालयन्तः शस्त्रभृतः सन्तो दुष्टान्निवारयन्तः सन्ति तेषां राज्यं स्थिरं भवति ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब दश ऋचावाले तेईसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्रविषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) शत्रुओं के नाशक ! जो (त्वम्) आप (स्तोमे) प्रशंसा के निमित्त (ब्रह्मणि) धन में (निमिश्लः) अत्यन्त मिले हुए (सोमे) ऐश्वर्य के (सुते) उत्पन्न होने पर (शस्यमाने) प्रशंसा करने योग्य और (उक्थे) सुनने वा कहने योग्य में (युक्ताभ्याम्) जुड़े हुए (हरिभ्याम्) हरणशील मनुष्यों से (बाह्वोः) भुजाओं में (वज्रम्) वज्र को (बिभ्रत्) धारण करते हुए (यासि) जाते हो और (यत्) जो (वा) वा हे (मघवन्) बहुत धनों से युक्त (इन्द्र) परमश्वर्य्यप्रद ! आप प्राप्त होते हैं, वह आप (इत्) ही सत्कार करने योग्य हैं ॥१॥

    भावार्थ

    जो राजा नहीं प्रमाद करते, पिता के सदृश प्रजाओं का पालन करते और शस्त्रों को धारण करते हुए तथा दुष्टों का निवारण करते हुए हैं, उनका राज्य स्थिर होता है ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा की निःसंग स्थिति ।

    भावार्थ

    हे ( मघवन् ) उत्तम पूजित ऐश्वर्य के स्वामिन् ! हे (इन्द्र) शत्रुहन्तः ! ( यत् वा ) जब भी तू ( बाह्वो:) शत्रु को पीड़न करने वाली दो बाहुओं के समान दायें बायें की दो विशाल सेनाओं में ( वज्रं ) शत्रु को वर्जन करने वाले शस्त्र बल को ( बिभ्रत्) धारण करता हुआ ( युक्ताभ्यां हरिभ्याम् ) जुते दो अश्वों से महारथी के समान ( युक्ताभ्यां हरिभ्याम् ) अधीन नियुक्त प्रजा के स्त्री पुरुषों सहित (यासि ) प्रयाण करता है तब तू ( स्तोमे ) स्तुतियोग्य, ( उक्थे ) उत्तम प्रशंसनीय वचन के ( शस्यमाने ) कहे जाते हुए, ( ब्रह्मणि ) उत्तम, महान् ऐश्वर्य में तथा (सोमे) सर्वप्रेरक, राजपद पर ( सुते ) अभिषिक्त होने पर भी ( निमिश्लः ) तू उसमें निःसक्त होकर रह । वह सब ऐश्वर्य का ठाठ तुझे गर्वयुक्त और विलासी न बनावे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्द्रः – १, ३, ८,९ निचृत्त्रिष्टुप् । ५,६,१० त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४ स्वराट् पंक्ति: ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रभु कब मिलते हैं ?

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (सोमे सुते) = शरीर में सोम के उत्पादन के होने पर (इत्) = ही (निमिश्ल:) = [निमिश्ल:] निश्चय से हमारे साथ मेलवाले होते हैं, अर्थात् आपको वही उपासक प्राप्त कर पाता है, जो सोम को शरीर में सुरक्षित करनेवाला हो । (स्तोमे) = स्तुति समूहों के होने पर आप प्राप्त होते हैं तथा (उक्थे) = उच्चैः गेयं (ब्रह्मणि शस्यमाने) = इन ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करने पर आप प्राप्त होते हैं। प्रभु प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि - [क] सोम का रक्षण करें, [ख] स्तुति को अपनाएँ, [ग] ज्ञान की वाणियों का ही उच्चारण करें। [२] (यद्वा) = अथवा हे (मधवन्) = परमैश्वर्यशालिन् (इन्द्र) = शत्रु विद्रावक प्रभो! आप (बाह्वोः) = बाहुवों में (वज्रं बिभ्रत्) = वज्र को धारण करते हुए (युक्ताभ्यां हरिभ्याम्) = शरीर-रथ में जुते इन्द्रियाश्वों के साथ (यासि) = आप गति करते हैं । अर्थात् आपकी प्राप्ति तव होती है जब कि हाथों में क्रियाशीलता रूप वज्र हो और इन्द्रियाश्व चर ही न रहे हों, अपितु शरीर-रथ में जुते हुए यात्रा के मार्ग पर आगे बढ़ रहे हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि – [क] सोम का शरीर में रक्षण हो, [ख] प्रभु-स्तवन निरन्तर चले, [ग] ज्ञान की वाणियाँ का उच्चारण हो, [घ] सतत क्रियाशील जीवन हो, यह क्रियाशीलता ही हमारा वह वज्र बन जाए जो राक्षसीभावों का विनाशक बने ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात इंद्र, विद्वान, राजा व प्रजा यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    जे राजे प्रमाद करीत नाहीत, पित्याप्रमाणे प्रजेचे पालन करतात व शस्त्र धारण करतात, दुष्टांचे निवारण करतात त्यांचे राज्य स्थिर होते. ॥ १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of honour, wealth and excellence of the world, when the soma is distilled, songs of prayer and adoration are sung and the music of Vedic hymns swells in the air, and when you move and come, one with us, loving and ecstatic, drawn by your own fiery motive powers of saving grace and holding the thunderbolt in hand, you are great and glorious.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top