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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 23/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अस्मै॑ व॒यं यद्वा॒वान॒ तद्वि॑विष्म॒ इन्द्रा॑य॒ यो नः॑ प्र॒दिवो॒ अप॒स्कः। सु॒ते सोमे॑ स्तु॒मसि॒ शंस॑दु॒क्थेन्द्रा॑य॒ ब्रह्म॒ वर्ध॑नं॒ यथास॑त् ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस्मै॑ । व॒यम् । यत् । व॒वान॑ । तत् । वि॒वि॒ष्मः॒ । इन्द्रा॑य । यः । नः॒ । प्र॒ऽदिवः । अपः॑ । क॒रिति॑ कः । सु॒ते । सोमे॑ । स्तु॒मसि॑ । शंस॑त् । उ॒क्था । इन्द्रा॑य । ब्रह्म॑ । वर्ध॑नम् । यथा॑ । अस॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मै वयं यद्वावान तद्विविष्म इन्द्राय यो नः प्रदिवो अपस्कः। सुते सोमे स्तुमसि शंसदुक्थेन्द्राय ब्रह्म वर्धनं यथासत् ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मै। वयम्। यत्। ववान। तत्। विविष्मः। इन्द्राय। यः। नः। प्रऽदिवः। अपः। करिति कः। सुते। सोमे। स्तुमसि। शंसत्। उक्था। इन्द्राय। ब्रह्म। वर्धनम्। यथा। असत् ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 23; मन्त्र » 5
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः परस्परं कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यः प्रदिवो नोऽपस्क इन्द्रायोक्था शंसद्यथा ब्रह्म वर्धनमसदस्मा इन्द्राय वयं यद्विविष्मस्तद्यो वावान तथा तं सुते सोमे वयं स्तुमसि ॥५॥

    पदार्थः

    (अस्मै) पूर्वमन्त्रोक्ताय (वयम्) (यत्) (वावान) वनते। अत्र तुजादीनामित्यभ्यासदैर्घ्यम् (तत्) (विविष्मः) व्याप्नुमः (इन्द्राय) ऐश्वर्याय (यः) (नः) अस्मान् (प्रदिवः) प्रकर्षेण कामयमानान् (अपः) कर्म (कः) करोति (सुते) निष्पादिते (सोमे) ऐश्वर्ये (स्तुमसि) स्तुमः (शंसत्) शंसेत् (उक्था) प्रशंसनीयानि कर्माणि (इन्द्राय) परमैश्वर्याय (ब्रह्म) धनम् (वर्धनम्) वर्धते येन (यथा) (असत्) भवेत् ॥५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । ये धनवत्सर्ववर्धकाः सन्ति ते परमैश्वर्यं लब्ध्वा प्रयतन्ते ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को परस्पर कैसा वर्त्ताव करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यः) जो (प्रदिवः) अत्यन्तपन से कामना करते हुओं (नः) हमलोगों और (अपः) कर्म को (कः) करता है और (इन्द्राय) अत्यन्त ऐश्वर्ययुक्त जन के लिये (उक्था) प्रशंसा करने योग्य कर्मों को (शंसत्) कहे और (यथा) जैसे (ब्रह्म) धन (वर्धनम्) बढ़ता है जिससे वह (असत्) होवे और (अस्मै) पूर्व मन्त्र में कहे हुए (इन्द्राय) ऐश्वर्य के लिये (वयम्) हम लोग (यत्) जिसको (विविष्मः) व्याप्त होते हैं (तत्) उसका जो (वावान) उत्तम प्रकार सेवन करता है, वैसे उसकी (सुते) उत्पन्न किये गये (सोम) ऐश्वर्य में हम लोग (स्तुमसि) स्तुति करते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो धन के सदृश सब के बढ़ानेवाले हैं, वे अत्यन्त ऐश्वर्य को प्राप्त होकर प्रयत्न करते हैं ॥५॥

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    विषय

    स्तुत्य प्रभु ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( नः ) हमारी (प्र-दिवः) उत्तम २ कामनाओं को पूर्ण करने के लिये वा सनातन, अनादि काल से ( अपः कः ) नाना कर्म करता है वह ( यत् ववान ) जो भी चाहता है (तत् विविष्मः) हम वह २ प्राप्त करें । (वयं ) हम (अस्मै इन्द्राय) इस ऐश्वर्यवान् के लिये ( सुते सोमे ) ऐश्वर्य, अन्न और उत्पन्न पुत्र आदि प्राप्त होने पर अवश्य ( स्तुमसि ) स्तुति करें । मनुष्य को चाहिये कि (इन्द्राय ) उस परमेश्वर के ( उक्था) स्तुतियां अवश्य ( शंसत् ) किया करे, (यथा ) जिससे कि हमारा ( ब्रह्म ) बृहत् ज्ञान और धन, अन्न और जीव आत्मा आदि जो प्राप्त किया है वह ( वर्धनम् ) स्वयं वृद्धिशील, हमें बढ़ती देने हारा ( असत् ) हो । इति पञ्चदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्द्रः – १, ३, ८,९ निचृत्त्रिष्टुप् । ५,६,१० त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४ स्वराट् पंक्ति: ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    स्तवन के द्वारा ज्ञान व उत्कृष्ट कर्मों की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो परमैश्वर्यशाली प्रभु (नः) = हमारे लिए (प्रदिवः) = प्रकृष्ट ज्ञान प्रकाशों को तथा (अपः) = कर्मों को (कः) = करते हैं (अस्मै) = इस प्रभु के लिए (वयम्) = हम (तद्विविष्मः) = उस स्तोत्र का व्यापन करते हैं (यद्वावान) = जिस स्तोत्र को प्रभु चाहते हैं। अर्थात् हम स्तोत्रों के द्वारा प्रभु को प्रीणित करनेवाले बनते हैं और प्रभु हमें ज्ञान व उत्कृष्ट कर्मों को करते हैं। [२] (सुते सोमे) = सोम के उत्पन्न होने पर (स्तुमसि) = हम प्रभु का स्तवन करते हैं। हम (उक्था शंसत्) = स्तोत्रों का शंसन करते हुए [शंसंतः] ऐसा प्रयत्न करते हैं (यथा) = जिससे (ब्रह्म) = ज्ञानपूर्वक किया गया स्तवन (इन्द्राय) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिये (वर्धनं असत्) = वृद्धि का करनेवाला हो, अर्थात् स्तवन के द्वारा हम प्रभु के प्रकाश को अधिकाधिक देखनेवाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करते हैं। प्रभु हमें प्रकृष्ट ज्ञान व कर्मों को प्राप्त कराते हैं । सोम का अपने अन्दर रक्षण करते हुए हम प्रभु-स्तवन करें जिससे अधिकाधिक प्रभु के प्रकाश को देखनेवाले हों।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे धनाप्रमाणे सर्वांची वृद्धी करतात ते अत्यंत ऐश्वर्य प्राप्त करून प्रयत्न करतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Whatever Indra, lord ruler of light and love, wishes, we do for him since he creates for us the holy acts and does all other divine acts of sustenance. When the soma is distilled and the songs of praise arise, we celebrate and exalt him so that knowledge, food, energy and moral rectitude may arise and grow the way it should.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should men deal with one another is elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! we praise on occasion of the acquisition of wealth, the king, who is bringer of prosperity and does great deeds for our good, who are intensely desirous of the welfare of all and who admires praiseworthy noble deeds, so that, the wealth may be the means of advancement or development. We praise him for prosperity which we pervade and which he appreciates with love.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who are multipliers of all like the wealth, and try for more having obtained prosperity.

    Foot Notes

    (वावान) वनते । अत्र तुजादीनामित्यभ्यासदैर्घ्यम् । वन-संभक्तौ (भ्वा.) = Likes, appreciates, enjoys. (विविष्मः ) व्याप्नुमः । विब्ल् व्याप्तौ (जु.) = Pervade. (प्रदिवः) प्रकर्षेण कामनयमान् । प्र + दिवु धातोरनेकार्थेष्वत्र कान्त्यर्थं ग्रहणम् । कान्तिः-कामना | = Intensely desiring.

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