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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 23/ मन्त्र 10
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒वेदिन्द्रः॑ सु॒ते अ॑स्तावि॒ सोमे॑ भ॒रद्वा॑जेषु॒ क्षय॒दिन्म॒घोनः॑। अस॒द्यथा॑ जरि॒त्र उ॒त सू॒रिरिन्द्रो॑ रा॒यो वि॒श्ववा॑रस्य दा॒ता ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । इत् । इन्द्रः॑ । सु॒ते । अ॒स्ता॒वि॒ । सोमे॑ । भ॒रत्ऽवा॑जेषु । क्षय॑त् । इत् । म॒घोनः॑ । अस॑त् । यथा॑ । ज॒रि॒त्रे । उ॒त । सू॒रिः । इन्द्रः॑ । रा॒यः । वि॒श्वऽवा॑रस्य । दा॒ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवेदिन्द्रः सुते अस्तावि सोमे भरद्वाजेषु क्षयदिन्मघोनः। असद्यथा जरित्र उत सूरिरिन्द्रो रायो विश्ववारस्य दाता ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव। इत्। इन्द्रः। सुते। अस्तावि। सोमे। भरत्ऽवाजेषु। क्षयत्। इत्। मघोनः। असत्। यथा। जरित्रे। उत। सूरिः। इन्द्रः। रायः। विश्वऽवारस्य। दाता ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 23; मन्त्र » 10
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथेन्द्रः सुते सोम इद्भरद्वाजेष्वस्तावि यथा सूरिरिन्द्रो जरित्रे विश्ववारस्य रायो दातोत क्षयदिन्मघोनो रक्षमाणोऽस्ति स इदेव तथा सुख्यसत् ॥१०॥

    पदार्थः

    (एव) (इत्) अपि (इन्द्रः) परमैश्वर्यः (सुते) निष्पन्नेऽस्मिञ्जगति (अस्तावि) स्तूयते (सोमे) ऐश्वर्ये (भरद्वाजेषु) धृतविज्ञानेषु (क्षयत्) निवसेत् (इत्) अपि (मघोनः) धनाढ्यान् (असत्) भवेत् (यथा) (जरित्रे) स्तावकाय (उत) अपि (सूरिः) विद्वान् (इन्द्रः) (रायः) धनस्य (विश्ववारस्य) विश्वे सर्वे वारा स्वीकारा यस्मिंस्तस्य (दाता) ॥१०॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । ये मनुष्या अस्मिञ्जगति धर्म्याणि कर्माणि कुर्वन्ति ते सर्वदा स्तूयन्ते यथा दानं प्रियकारकं भवति तथा ह्यादानं न भवतीति ॥१०॥ अत्रेन्द्रविद्वद्राजप्रजागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यृग्वेदभाष्ये षष्ठे मण्डले द्वितीयोऽनुवाकस्त्रयोविंशं सूक्तं षोडशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो (यथा) जैसे (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्यवाला जन (सुते) उत्पन्न हुए इस संसार में (सोमे) ऐश्वर्य में (इत्) निश्चय (भरद्वाजेषु) विज्ञान को धारण किए हुओं में (अस्तावि) स्तुति किया जाता है और जैसे (सूरिः) विद्वान् और (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य से युक्त जन (जरित्रे) स्तुति करनेवाले जन के लिये (विश्ववारस्य) सम्पूर्ण स्वीकार जिसमें उस (रायः) धन का (दाता) देनेवाला (उत) निश्चय से (क्षयत्) निवास करे और (इत्) निश्चय कर (मघोनः) धन से युक्त जनों की रक्षा करता हुआ हो वह (एव) ही उस प्रकार का सुखी (असत्) होवे ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य इस संसार में धर्मयुक्त कर्म्म करते हैं, वे सर्वदा स्तुति किये जाते हैं, जैसा देना प्रियकारक होता है, वैसा लेना नहीं प्रियकारक होता है ॥१०॥ इस सूक्त में इन्द्र, विद्वान्, राजा और प्रजा के गुणवर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह ऋग्वेदभाष्य के छठे मण्डल में दूसरा अनुवाक, तेईसवाँ सूक्त और सोलहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    अभिषिक्त के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( इन्द्र एव इत् ) वह शत्रुहन्ता, ऐश्वर्यवान्, इस राष्ट्र को न्यायपूर्वक देखने वाला पुरुष ही ( सुते सोमे ) उत्पन्न हुए पुत्र के तुल्य इस ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र में ( क्षयत् ) निवास करे। और ( भरद्-वा-जेषु ) ऐश्वर्य, और अन्न, ज्ञान आदि को धारण करने वाले मनुष्यों के निमित्त ( मघोनः ) ऐश्वर्यवान् सम्पन्न लोगों को भी पालन करे। ( यथा ) जिससे ( इन्द्रः ) वह राजा ( जरित्रे ) विद्वान् जनों के हित के लिये ( सूरिः ) उत्तम शासक ( उत ) तथा (विश्व-वारस्य रायः दाता) सबको स्वीकार करने योग्य, उत्तम धनों का दाता ( असत् ) हो । इति षोडशो वर्गः ॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्द्रः – १, ३, ८,९ निचृत्त्रिष्टुप् । ५,६,१० त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४ स्वराट् पंक्ति: ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'प्रेरणा व धन' की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] (सोमे सुते) = सोम के शरीर में उत्पन्न होने पर (एव) = ही (इत्) = निश्चय से (इन्द्रः) = वह शत्रुओं का विद्रावक प्रभु (अस्तावि) = स्तुत होता है। सोम का सम्पादन करनेवाला ही प्रभु का सच्चा स्तोता बनता है। (भरद्वाजेषु) = अपने में शक्ति का भरण करनेवालों में (इत्) = ही (मघोनः) = उस ऐश्वर्यवान् प्रभु का (क्षयत्) = निवास होता है। प्रभु का प्रीणन इसी प्रकार होता है कि हम सोमरक्षण द्वारा अपने में शक्ति का भरण करनेवाले बनें। [२] (उत) = और (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (यथा) = जैसे (जरित्रे) = स्तोता के लिए (सूरिः असत्) = उत्कृष्ट प्रेरणा देनेवाला होता है, उसी प्रकार वह (विश्ववारस्य) = सबसे वरणीय अथवा सब वरणीय वस्तुओं को प्राप्त करानेवाले (रायः) = धन का (दाता) = देनेवाला होता है। प्रभु स्तोता को उत्कृष्ट प्रेरणा व धन प्राप्त कराते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ—प्रभु प्राप्ति का उपाय यही है कि सोमरक्षण द्वारा हम अपने में शक्ति को भरें। प्रभु स्तोता को प्रेरणा व धन प्राप्त कराते हैं। प्रेरणा से हम मार्ग को जान पाते हैं, धन से मार्ग पर चलने की शक्ति प्राप्त होती है। अगले सूक्त में भी 'भरद्वाज बार्हस्पत्य' इन्द्र का स्तवन करते हैं -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे धर्मयुक्त कर्म करतात त्यांची स्तुती होते. जसे दान देणे प्रिय असते तसे दान घेणे प्रिय नसते. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Thus is Indra admired and adored among saints and scholars in the world of honour and excellence when the soma is distilled and ready for celebration so that he, lord of honour, power and knowledge, may settle and abide by men of power and prosperity and be the giver of universal wealth of value to the devoted celebrant.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of dealing with one another-is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! Indra- the king endowed with great wealth is praised in this world among the upholders of true knowledge for prosperity. As highly learned king is the giver of wealth acceptable to all and dwelling place to an admirer of good virtues and to a devotee of God, he is the protector of the wealthy also. So he may enjoy happiness who follows him.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those men who perform righteous deeds in this world are always admired by all. Giving in charity is more pleasing than accepting it.

    Foot Notes

    (सुते) निस्प्न्नेस्मिजगति। =In this world which has been created by God.(जरित्ने) स्रावकाय । जरिता इति । स्तोतृनाम। (NG 3, 16) = For an admirer of good virtues or a devotee of God. (भरद्वाजेषु) धृतविज्ञानेषु । भृञ्-भरणे (जु०) वाज इति वज्रधातो: वज गतौ (भ्वा०) गतेस्त्रिष्वर्थेअत्र ज्ञानार्थग्रहणम्। = Among the upholders of true knowledge.

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