ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 23/ मन्त्र 7
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स नो॑ बोधि पुरो॒ळाशं॒ ररा॑णः॒ पिबा॒ तु सोमं॒ गोऋ॑जीकमिन्द्र। एदं ब॒र्हिर्यज॑मानस्य सीदो॒रुं कृ॑धि त्वाय॒त उ॑ लो॒कम् ॥७॥
स्वर सहित पद पाठसः । नः॒ । बो॒धि॒ । पु॒रो॒ळाश॑म् । ररा॑णः । पि॒ब॒ । तु । सोम॑म् । गोऽऋ॑जीकम् । इ॒न्द्र॒ । आ । इ॒दम् । ब॒र्हिः । यज॑मानस्य । सी॒द॒ । उ॒रुम् । कृ॒धि॒ । त्वा॒ऽय॒तः । ऊँ॒ इति॑ । लो॒कम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स नो बोधि पुरोळाशं रराणः पिबा तु सोमं गोऋजीकमिन्द्र। एदं बर्हिर्यजमानस्य सीदोरुं कृधि त्वायत उ लोकम् ॥७॥
स्वर रहित पद पाठसः। नः। बोधि। पुरोळाशम्। रराणः। पिब। तु। सोमम्। गोऽऋजीकम्। इन्द्र। आ। इदम्। बर्हिः। यजमानस्य। सीद। उरुम्। कृधि। त्वाऽयतः। ऊँ इति। लोकम् ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 23; मन्त्र » 7
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! स त्वं पुरोळाशं रराणो गोऋजीकं सोमं पिबा [नो]बोधि यजमानस्येदं बर्हिरासीदोरुं लोकमु त्वायतस्तु कृधि ॥७॥
पदार्थः
(सः) (नः) अस्मान् (बोधि) बुध्यस्व (पुरोळाशम्) सुसंस्कृतमन्नम् (रराणः) ददन् (पिबा) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (तु) (सोमम्) महौषधिरसम् (गोऋजीकम्) गाव इन्द्रियाणि ऋजीकानि सरलानि येन तम् (इन्द्र) ऐश्वर्य्यधर्त्तः (आ) (इदम्) (बर्हिः) उत्तमासनम् (यजमानस्य) (सीद) (उरुम्) बहुम् (कृधि) (त्वायतः) त्वां कामयमानान् (उ) (लोकम्) द्रष्टव्यम् ॥७॥
भावार्थः
ये रोगहराणि भोजनानि पानानि च ददति परोपकारं कुर्वन्ति तेऽत्र प्रशंसनीयाः सन्ति ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्य के धारण करनेवाले (सः) वह आप (पुरोळाशम्) उत्तम प्रकार संस्कारयुक्त अन्न को (रराणः) देते हुए (गोऋजीकम्) इन्द्रिय सरल जिससे उस (सोमम्) बड़ी ओषधियों के रस को (पिबा) पीजिये और (नः) हम लोगों को (बोधि) जानिये और (यजमानस्य) यजमान के (इदम्) इस (बर्हिः) उत्तम आसन पर (आ, सीद) सब प्रकार से विराजिये तथा (उरुम्) बहुत (लोकम्) देखने योग्य को (उ) और (त्वायतः) आपकी कामना करते हुओं को (तु) तो (कृधि) करिये ॥७॥
भावार्थ
जो लोग रोग के हरनेवाले भोजनों और जलपानादि को देते हैं और परोपकार करते हैं, वे प्रशंसा करने योग्य हैं ॥७॥
विषय
ऐश्वर्यवान् के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! धनाढ्य पुरुष ! वह तू ( रराणः ) अति प्रसन्न होकर एवं ( पुरोडासं रराणः ) अन्न प्रदान करता हुआ, ( गो-ऋजीकम् ) गोरस, दूध आदि संस्कृत, तथा (गो-ऋजीकं ) और इन्द्रियों को ऋजु, सरल, सौम्य स्वभाव बनाने वाले तथा ( गो-ऋजीकं ) वाणी, से संस्कृत, प्रशस्त और भूमि आदि से सुसम्पन्न (सोमम्) अन्न, ऐश्वर्य और पुत्रादि का (पिब ) स्वयं पान तथा पालन कर । और तू ( यजमानस्य ) दान देने वाले, यज्ञशील पुरुष के योग्य ( इदं बर्हि: ) वृद्धि प्रतिष्ठाजनक इस उत्तम आसन पर (सीद ) विराज । ( त्वायतः ) तुझे चाहने वाले प्रियजन के लिये (लोकं ) स्थान को ( उरुं कृधि ) विशाल कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्द्रः – १, ३, ८,९ निचृत्त्रिष्टुप् । ५,६,१० त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४ स्वराट् पंक्ति: ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
यज्ञशेष का सेवन व दृष्टिकोण की विशालता
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (रराणः) = [ रममाण:] हमारे से किये जाते हुए सब यज्ञों में रमण करते हुए आप (नः) = हमारे इस (पुरोडाशम्) = [पुर: दाश्यते] भोजन से पूर्व दिये जानेवाले हविर्लक्षण अन्न को आप (बोधि) = जानिये । अर्थात् हम आपकी कृपा से सदा यज्ञों में हवि को देकर यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाले बनें। इस प्रकार यज्ञशेषरूप अमृत का सेवन होने पर आप (गो ऋजीकम्) = ज्ञान की वाणियों द्वारा शरीर में दृढ़ किये गये [ऋज - be firm] (सोमम्) = सोम को [वीर्य को] तु (पिब) = अवश्य शरीर में ही पीने की व्यवस्था करिये। ज्ञान प्राप्ति में लगने से वासनाओं का आक्रमम नहीं होता और उससे सोम शरीर में सुरक्षित होता है । [२] इस सोमरक्षण के हेतु से ही (यजमानस्य) = यज्ञशील पुरुष के (इदं बर्हिः) = इस वासना शून्य हृदय में (आसीद) = आप आसीन होइये। हे प्रभो ! (त्वायतः) = आपकी प्राप्ति की कामनावाले इस पुरुष के (लोकं उरुं कृधि) = लोक को विशाल बनाइये, इसके आलोक [प्रकाश] को अत्यन्त विस्तारवाला करिये अथवा इसे विशाल दृष्टिकोणवाला बनाइये ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के अनुग्रह से [क] हम सदा हवि को देकर यज्ञशेष का ही सेवन करें, [ख] ज्ञान की वाणियों में प्रवृत्त रहकर सोम को शरीर में सुरक्षित करें, [ग] अपने हृदय को प्रभु का आसन बना पायें, [घ] और अपने दृष्टिकोण को विशाल बना सकें।
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक रोग नाहीसे करतात. भोजन, जलपान इत्यादी देतात व परोपकार करतात ते प्रशंसा करण्यायोग्य असतात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of majesty, know and enlighten us, happily taste the delicious pudding and drink the exhilarating soma seasoned with cow’s milk so soothing to the mind and senses. Come, be seated on the yajamana’s vedi, and create a wider and higher world of beauty for your devotees.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra upholder of wealth! giving well cooked food and drink the juice of the great nourishing herbs which strengthens the senses. Asana (grass or wooden seats) offered by the Yajamaana (performer Enlighten us. Be seated on the good of the Yajna), and to us who desire the great worth-seeing or good articles.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons become admirable who give to others food and drink that drives away diseases and who do good to others.
Foot Notes
(रराणः) ददन् । रा-दाने (अदा०) | = (गोऋ जीकम् ) गाव: इन्द्रियाणी ऋजीकानि सरलानि येन तम् । गौरिति वाङ्नाम (NG = Giving. 1, 11) वाक् उपलक्षणमन्येन्द्रियाणम् । = Which makes the senses strong and straight-forward i. e. free from diseases. (वर्हिः) उत्तमासनम् । = Good seat. (लोकम् ) द्रष्टव्यम् । लोकु-दशने (भ्वा०) = Worth seeing, good.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal