ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 23/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
यद्वा॑ दि॒वि पार्ये॒ सुष्वि॑मिन्द्र वृत्र॒हत्येऽव॑सि॒ शूर॑सातौ। यद्वा॒ दक्ष॑स्य बि॒भ्युषो॒ अबि॑भ्य॒दर॑न्धयः॒ शर्ध॑त इन्द्र॒ दस्यू॑न् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठयत् । वा॒ । दि॒वि । पार्ये॑ । सुस्वि॑म् । इ॒न्द्र॒ । वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑ । व॑सि । शूर॑ऽसातौ । यत् । वा॒ । दक्ष॑स्य । बि॒भ्युषः॑ । अबि॑भ्यत् । अर॑न्धयः । शर्ध॑तः । इ॒न्द्र॒ । दस्यू॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वा दिवि पार्ये सुष्विमिन्द्र वृत्रहत्येऽवसि शूरसातौ। यद्वा दक्षस्य बिभ्युषो अबिभ्यदरन्धयः शर्धत इन्द्र दस्यून् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठयत्। वा। दिवि। पार्ये। सुस्विम्। इन्द्र। वृत्रऽहत्ये। अवसि। शूरऽसातौ। यत्। वा। दक्षस्य। बिभ्युषः। अबिभ्यत्। अरन्धयः। शर्धतः। इन्द्र। दस्यून् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 23; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! यद्यस्त्वं पार्ये दिवि वृत्रहत्ये वा शूरसातौ सुष्विमवसि यद्यो वा भवान् दक्षस्य बिभ्युषोऽबिभ्यत् स त्वं हे इन्द्र ! शर्धतो दस्यूनरन्धयः ॥२॥
पदार्थः
(यत्) (वा) विकल्पे (दिवि) कमनीये (पार्ये) पारभवे (सुष्विम्) सुष्ठु सोतारम् (इन्द्र) दुष्टविदारक (वृत्रहत्ये) मेघस्य हननमिव (अवसि) रक्षसि (शूरसातौ) शूरैर्विभक्तव्ये सङ्ग्रामे (यत्) यः (वा) (दक्षस्य) बलयुक्तस्य (बिभ्युषः) यो बिभेति तस्य (अबिभ्यत्) बिभेति (अरन्धयः) हिंसय (शर्धतः) बलतः (इन्द्र) (दस्यून्) बलात् परस्वाऽऽदातॄन् ॥२॥
भावार्थः
स एव राजा भवितुमर्हेद्यो युद्धे स्वसेनां संरक्षेच्छत्रूंस्तेनांश्च हन्यात् ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) दुष्ट जनों के नाश करनेवाले (यत्) जो आप (पार्ये) पार में हुए (दिवि) कामना करने योग्य के निमित्त (वृत्रहत्ये) मेघ के हनन (वा) वा (शूरसातौ) शूर जनों से विभाग करने योग्य संग्राम में (सुष्विम्) उत्तम प्रकार उत्पन्न करनेवाले की (अवसि) रक्षा करते हो और (यत्) जो (वा) वा आप (दक्षस्य) बली (बिभ्युषः) भय करनेवाले का (अबिभ्यत्) भय करते हैं वह आप हे (इन्द्र) प्रतापी जन ! (शर्धतः) बलयुक्त से (दस्यून्) हठ से दूसरे के पदार्थ ग्रहण करनेवालों का (अरन्धयः) नाश करिये ॥२॥
भावार्थ
वही राजा होने को योग्य होवे कि जो युद्ध में अपनी सेना की रक्षा करे और शत्रु तथा चोरों का नाश करे ॥२॥
विषय
उसके उत्तम २ कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( यद् वा ) और जब तू ( पायें दिवि ) सबसे उत्कृष्ट, दूर तक फैलने वाले, तेज में ( वृत्र-हत्ये) विघ्नकारियों के नाश करने और ( शूर-सातौ ) शूरवीर पुरुषों के लाभ कर लेने पर ( सु-ष्विम् ) उत्तम ऐश्वर्योत्पादक राष्ट्र को भी ( अवसि ) प्राप्त कर ले, ( यद्वा ) और जब ( बिभ्युषः ) भयभीत ( दक्षस्य ) व्यवहारकुशल प्रजा को (शर्धत) नाश करने वाले ( दस्यून् ) शत्रु, दुष्ट पुरुषों को भी स्वयं ( अबिभ्यत्) भय रहित होकर भी ( अरन्धयः ) वश कर सके तो भी हे राजन् ! तू ( निमिश्लः सन् राज्यं शाधि ) निसंगत को राज्य का शासन, प्रजा का पालन शत्रु का नाश करता रहा कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्द्रः – १, ३, ८,९ निचृत्त्रिष्टुप् । ५,६,१० त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४ स्वराट् पंक्ति: ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'सुष्वि' बनना
पदार्थ
[१] (पार्ये दिवि) = भवसागर से पार करने में उत्तम ज्ञान की प्राप्ति के निमित्त, हे इन्द्र शत्रु विद्रावक प्रभो ! (यद्वा) = अथवा (वृत्रहत्ये) = इस ज्ञान की आवरणभूत (वासना) = को विनष्ट करने के निमित्त अथवा (शूरसातौ) = शूरों से संभजनीय संग्राम में आप (सुष्विम्) = सोम का सम्पादन करनेवाले, शरीर में सोम का रक्षण करनेवाले पुरुष को (अवसि) = रक्षित करते हैं। आप से रक्षित होकर ही वह उत्कृष्ट ज्ञान को प्राप्त करता है, वासना को विनष्ट कर पाता है और अध्यात्म संग्राम में विजयी होता है। [३] (यद्वा) = अथवा हे इन्द्र शत्रु विद्रावक प्रभो! आप ही (दक्षस्य) = इस यज्ञादि उत्तम कर्मों में कुशल (बिभ्युषः) = सदा आपके भय में चलनेवाले उपासक के (शर्धतः) = आक्रमण करके हिंसन करनेवाले (दस्यून्) = दास्यभावों को (अबिभ्यत्) = भीति रहित हुए हुए (अरन्धयः) = वशीभूत करते हैं। आपकी शक्ति से शक्ति सम्पन्न उपासक ही इन आसुरभावों पर विजय पा सकता है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही उपासक को [क] तारक ज्ञान प्राप्त करते हैं, [ख] वासना का विजेता बनाते हैं, [ग] संग्राम में जिताते हैं, [घ] और इन दास्यव भावों को वशीभूत करने में समर्थ करते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
जो युद्धात आपल्या सेनेचे रक्षण करतो व शत्रू आणि चोरांचा नाश करतो तोच राजा होण्यायोग्य असतो. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Or when, O mighty lord Indra, free from fear, you protect the creator of the soma of life’s joy in the battle of the brave for the elimination of darkness and want and for advancement of light and showers of love and cherished prosperity, or when you scare away even the mighty fearsome warriors against life, you shine in divine glory. O lord Indra, we pray, subdue the forces of violence, fear and destruction.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a king do is elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (destroys of the wicked) ! you protect an industrious devotee in the exalted and desirable dealing, in the battle where heroes are divided in two parties (camps) and which is like the destruction of the cloud. You are not afraid of fthe mighty person, who on the other hand is afraid of you. You being fearless and undaunted kill the powerful, wicked robbers who take other's property by force.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
He alone deserves to be a king who protects and leads his army in the battle and slays the enemies, thieves and robbers.
Foot Notes
(अरन्धयः) हिंसय । रध-हिंससंराध्यो ( दिवा.) अत्र हिंसार्थंक: । = Destroy. (दस्यून् ) बलात्परस्वाऽऽदातुन् । दसु-उपभते (दिवा) = Robbers, taking away by force other's wealth. (वर्धत:) बलवः = Powerful, mighty.
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