ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 26/ मन्त्र 5
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वं तदु॒क्थमि॑न्द्र ब॒र्हणा॑ कः॒ प्र यच्छ॒ता स॒हस्रा॑ शूर॒ दर्षि॑। अव॑ गि॒रेर्दासं॒ शम्ब॑रं ह॒न्प्रावो॒ दिवो॑दासं चि॒त्राभि॑रू॒ती ॥५॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । तत् । उ॒क्थम् । इ॒न्द्र॒ । ब॒र्हणा॑ । क॒रिति॑ कः । प्र । य॒त् । श॒ता । स॒हस्रा॑ । शू॒र॒ । दर्षि॑ । अव॑ । गि॒रेः । दास॑म् । शम्ब॑रम् । ह॒न् । प्र । आ॒वः॒ । दिवः॑ऽदासम् । चि॒त्राभिः॑ । ऊ॒ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं तदुक्थमिन्द्र बर्हणा कः प्र यच्छता सहस्रा शूर दर्षि। अव गिरेर्दासं शम्बरं हन्प्रावो दिवोदासं चित्राभिरूती ॥५॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। तत्। उक्थम्। इन्द्र। बर्हणा। करिति कः। प्र। यत्। शता। सहस्रा। शूर। दर्षि। अव। गिरेः। दासम्। शम्बरम्। हन्। प्र। आवः। दिवःऽदासम्। चित्राभिः। ऊती ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 26; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र राजन् ! यद्यतस्त्वं चित्राभिरूती तदुक्थं बर्हणा कः। हे शूर ! शता सहस्रा प्र दर्षि गिरेर्दासं शम्बरमव हन्त्सूर्य इव हंसि तथा दिवोदासं प्रावः ॥५॥
पदार्थः
(त्वम्) (तत्) (उक्थम्) प्रशंसनीयं वचनम् (इन्द्र) सुखप्रद (बर्हणा) वर्धनेन (कः) कुर्याः (प्र) (यत्) यतः (शता) शतानि (सहस्रा) सहस्राणि (शूर) शत्रूणां हिंसक (दर्षि) विदृणासि (अव) (गिरेः) मेघस्य (दासम्) सेवकम् (शम्बरम्) शङ्करम् (हन्) हंसि (प्र) (आवः) रक्ष (दिवोदासम्) प्रकाशवज्जातदानशीलम् (चित्राभिः) अद्भुताभिः (ऊती) रक्षाभिः ॥५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजन् ! भवान्त्सर्वदा प्रजावर्धनं दुष्टनिक्रन्दनं विद्वत्सेवां च करोतु यतोऽसङ्ख्यं सुखं स्यात् ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) सुख के देनेवाले राजन् ! (यत्) जिससे (त्वम्) आप (चित्राभिः) अद्भुत (ऊती) रक्षाओं से (तत्) उस (उक्थम्) प्रशंसनीय वचन को (बर्हणा) बढ़ने से (कः) करें और हे (शूर) शत्रुओं के नाश करनेवाले ! (शता) सैकड़ों और (सहस्रा) हजारों का (प्र, दर्षि) नाश करते हो और (गिरेः) मेघ के (दासम्) सेवक और (शम्बरम्) कल्याण करनेवाले का (अव, हन्) और सूर्य जैसे वैसे नाश करते हो वह आप (दिवोदासम्) प्रकाश के समान उत्पन्न दानशील अर्थात् दान देनेवाले की (प्र, आवः) रक्षा करो ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! आप सर्वदा प्रजा की वृद्धि, दुष्टों का नाश और विद्वानों की सेवा करो, जिससे असङ्ख्य सुख होवे ॥५॥
विषय
प्रजा सेवकादिभक्त इन्द्र । उसका दुष्टदमन का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः ! हे (शूर) वीर पुरुष ! ( कः ) कर । ( यत् ) जो तू ( शता सहस्रा ) सैकड़ों हजारों शत्रुसैन्यों को दलन करता है वह ( त्वं ) तू ( बर्हणा ) वृद्धिशील वा समृद्ध बल से ( तत् ) वह नाना वा ( उक्थं ) प्रशंसनीय ( गिरेः दास शम्बरं ) मेघ के बीच विद्यमान शान्तिदायक जल को जिस प्रकार सूर्य वा विद्युत् ( अव हन्ति ) नीचे गिराता है उसी प्रकार ( गिरेः ) पर्वत के बीच में ( दासं ) प्रजाजनों का नाश करने वाले ( शम्बरं ) शान्ति-नाशक शत्रुजन को तू (अव हन्) नीचे मार गिरा । अथवा (गिरेः दासं ) मेघवत् निष्पक्षपात गुरु के सेवकवत् ( शम्बरं ) शान्तिकारक उत्तम शिष्यवत् प्रजाजन को ( अव हन् ) अवगत कर अर्थात् उसे यथार्थ ज्ञान दे वा उसको दण्डादि द्वारा दोषों से मुक्त कर । इत्येकत्रिंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १ पंक्तिः । २, ४ भुरिक पंक्तिः। ३ निचृत् पंक्ति: । ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् । ८ निचृत्त्रिष्टुप् ।। अष्टर्चं सूक्तम् ।।
विषय
शम्बर हनन
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (बर्हणा) = शत्रुओं के उद्बर्हण के हेतु से (तद् उक्थं कः) = वह अति प्रशंसनीय कार्य करते हो (यत्) = कि हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो ! (शता सहस्त्रा) = इन आसुरभावों के सैंकड़ों व हजारों दुर्गों को (प्रदर्षि) = विदीर्ण कर देते हो। [२] (गिरेः) = इस अविद्यापर्वत से निर्गत, अर्थात् अविद्या के कारण उत्पन्न (दासम्) = हमारा उपक्षय करनेवाले (शम्बरम्) = शान्ति पर परदा डाल देनेवाले ईर्ष्यारूप आसुरभाव को आप (अवहन्) = सुदूर विनष्ट करते हैं। और (दिवोदासम्) = ज्ञान के भक्त इस उपासक को (चित्राभिः ऊती) = अद्भुत रक्षणों के द्वारा (प्रावः) = रक्षित करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ज्ञान के उप क भक्त का रक्षण करते हैं। वे सब आसुरभावों को विनष्ट करते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा ! तू सदैव प्रजेची वृद्धी, दुष्टांचा नाश व विद्वानांची सेवा कर. ज्यामुळे अत्यंत सुख प्राप्त होईल. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, mighty destroyer of evil and preserver of the good, it is praise worthy that with your great force you destroy a hundred thousand evils, O brave lord, and, with wondrous saving powers, release from the cloud pent up showers, so soothing and refreshing, and thus relieve and protect humanity dedicated as a liberal servant of divinity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of duties of a king-is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra-king-giver of happiness ! with wonderful protections you utter the admirable words encouraging people thereby. O destroyer of your enemies! you destroy hundreds of thousands of the foes. You slay a servant and accomplice of the wicked foe, pleasing him who like cloud covers or obstructs the happiness of good persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king ! you should always increase the power and wealth of your subjects, destroy the wicked and serve the enlightened persons, so that there may be infinite happiness or joy for all.
Foot Notes
(बर्हणा) वर्धनेन । बृह-बुद्धौ (भ्वा०)। = By an act that makes people grow or by encouraging. (गिरेः) मेघस्य | गिरिरिति मेघनाम (NG 1, 10) = Of the cloud. (शम्वरम्) शङ्करम् । शम्बर इति मेघनाम (NG 1, 10) श सुख वृणोति येन वं मेघमिव शत्रुम् इति महर्षि दयानन्द सरस्वती ऋ. 1, 5, 4, 4 भाष्ये । अधर्मं सम्बन्धिनम् अत्र शम्बधातो रोणादि कोऽस्न प्रत्ययः इति स एव ऋ० 1, 1, 1, 2, भाष्ये। = Causing happiness to a wicked person.
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