ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 26/ मन्त्र 8
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
व॒यं ते॑ अ॒स्यामि॑न्द्र द्यु॒म्नहू॑तौ॒ सखा॑यः स्याम महिन॒ प्रेष्ठाः॑। प्रात॑र्दनिः क्षत्र॒श्रीर॑स्तु॒ श्रेष्ठो॑ घ॒ने वृ॒त्राणां॑ स॒नये॒ धना॑नाम् ॥८॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । ते॒ । अ॒स्याम् । इ॒न्द्र॒ । द्यु॒म्नऽहू॑तौ । सखा॑यः । स्या॒म॒ । म॒हि॒न॒ । प्रेष्ठाः॑ । प्रात॑र्दनिः । क्ष॒त्र॒ऽश्रीः । अ॒स्तु॒ । श्रेष्ठः॑ । घ॒ने । वृ॒त्राणा॑म् । स॒नये॑ । धना॑नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वयं ते अस्यामिन्द्र द्युम्नहूतौ सखायः स्याम महिन प्रेष्ठाः। प्रातर्दनिः क्षत्रश्रीरस्तु श्रेष्ठो घने वृत्राणां सनये धनानाम् ॥८॥
स्वर रहित पद पाठवयम्। ते। अस्याम्। इन्द्र। द्युम्नऽहूतौ। सखायः। स्याम। महिन। प्रेष्ठाः। प्रातर्दनिः। क्षत्रऽश्रीः। अस्तु। श्रेष्ठः। घने। वृत्राणाम्। सनये। धनानाम् ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 26; मन्त्र » 8
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे महिनेन्द्र ! वयं तेऽस्यां द्युम्नहूतौ प्रेष्ठाः सखायः स्याम। भवान् प्रातर्दनिर्वृत्राणां घने धनानां सनये श्रेष्ठः क्षत्रश्रीरस्तु ॥८॥
पदार्थः
(वयम्) (ते) तव (अस्याम्) (इन्द्र) सर्वसुखप्रद (द्युम्नहूतौ) द्युम्नेन धनेन यशसा वा हूतिराह्वानं यस्यां तस्याम् (सखायः) (स्याम) (महिन) महत्तम (प्रेष्ठाः) अतिशयेन प्रियाः (प्रातर्दनिः) प्रातःकाले दनिर्दानं यस्य (क्षत्रश्रीः) राज्यलक्ष्मीः (अस्तु) (श्रेष्ठः) अतिशयेन प्रशस्तः (घने) हनने (वृत्राणाम्) धर्मावरकाणाम् (सनये) विभागाय (धनानाम्) ॥८॥
भावार्थः
यो राजा गुणग्राही पुरुषार्थी श्रेष्ठानां पालको दुष्टानां निवर्त्तकः सर्वस्य मित्रं स्यात्तेन सह सज्जनैः सख्यं विधेयमिति ॥८॥ अत्रेन्द्रपरीक्षकसभ्यराजप्रजाकृत्यर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षड्विंशं सूक्तं द्वाविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (महिन) बड़े श्रेष्ठ (इन्द्र) सब के सुख देनेवाले ! (वयम्) हम लोग (ते) आपकी (अस्याम्) इस (द्युम्नहूतौ) धन वा यश से आह्वान जिसमें उसमें (प्रेष्ठाः) अतिशय प्रिय (सखायः) मित्र (स्याम) होवें और आप (प्रातर्दनिः) प्रातःकाल में देना जिनका वह (वृत्राणाम्) धर्म के आवरण करनेवालों के (घने) नाश करने में (धनानाम्) धनों के (सनये) विभाग के लिये (श्रेष्ठः) अत्यन्त प्रशंसनीय (क्षत्रश्रीः) राज्यलक्ष्मीवान् (अस्तु) होवें ॥८॥
भावार्थ
जो राजा गुणग्राही, पुरुषार्थी, श्रेष्ठ जनों का पालन करने और दुष्ट जनों का निवारण करनेवाला तथा सबका मित्र होवे, उसके साथ सज्जनों को चाहिये कि मित्रता करें ॥८॥ इस सूक्त में इन्द्र, परीक्षक, श्रेष्ठ, राजा और प्रजा के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह छब्बीसवाँ सूक्त और बाईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
प्रजा सेवकादिभक्त इन्द्र । उसका दुष्टदमन का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे ( महिन) महान् ! पूज्य ! ( वयम् ) हम लोग ( अस्याम् ) इस ( ते ) तेरी (द्युम्न-हूतौ ) धन के निमित्त आदरपूर्वक पुकार तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति करने के निमित्त ( ते-प्रेष्ठाः ) तेरे अति प्रिय ( सखायः स्याम ) मित्र होकर रहें । ( वृत्राणां ) बढ़ते और विघ्न करने वाले शत्रुओं के ( घने ) हनन और ( धनानाम् सनये ) धनों को प्रजा में यथोचित विभाग के लिये ( प्रातर्दनिः ) शत्रुओं को अच्छी प्रकार छिन्न भिन्न करने वाले सैन्य बल का स्वामी पुरुष हो, ( श्रेष्ठः ) सबसे उत्तम, प्रशंसनीय ( क्षत्र-श्रीः अस्तु ) बल वीर्य और क्षात्र शक्ति की उत्तम शोभा से युक्त वा बल का आश्रय हो । इति द्वाविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १ पंक्तिः । २, ४ भुरिक पंक्तिः। ३ निचृत् पंक्ति: । ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् । ८ निचृत्त्रिष्टुप् ।। अष्टर्चं सूक्तम् ।।
विषय
प्रातर्दनि क्षत्र श्री
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (वयम्) = हम (ते) = आपकी (अस्याम्) = इस (द्युम्नहूतौ) = ज्ञानयुक्त पुकार में, ज्ञानपूर्वक की गई स्तुतियों के होने पर (सखायः) = सखा (स्याम) = हों । हे (महिन) = पूज्य प्रभो ! आपके ज्ञानी भक्त बनते हुए हम (प्रेष्ठा:) = आपके प्रियतम हों। [२] यह आपका उपासक (प्रातर्दनिः) = शत्रुओं का हिंसन करनेवाला (क्षत्रश्रीः) = बल की शोभावाला (अस्तु) = हो । (वृत्राणां घने) = वासनाओं के विनाश के लिये और (धनानां सनये) = धनों की प्राप्ति के लिये होता हुआ यह उपासक (श्रेष्ठो) = प्रशस्यतम जीवनवाला हो ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के ज्ञानी-भक्त बन पायें। इस प्रकार प्रभु के मित्र व प्रियतम हों । शत्रुओं का हिंसन करनेवाले, बल की शोभावाले होते हुए वासनाओं को विनष्ट करने व धनों को प्राप्त करने में समर्थ हों, हमारा जीवन सम्पन्न व श्रेष्ठ हो । अगले सूक्त में भी 'भरद्वाज बार्हस्पत्य' इन्द्र का स्तवन करते हैं -
मराठी (1)
भावार्थ
जो राजा गुणग्राही, पुरुषार्थी, श्रेष्ठांचा पालक व दुष्टांचा निवारक असून सर्वांचा मित्र असेल तर त्याच्याबरोबर सज्जनांनी मैत्री करावी.
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, greatest lord of grace and glory, may we, in this yajnic programme of power and prosperity of the human nation, be your dearest friends and supportive participants, and may the rising generosity and gracious glory of the world order rise highest in our battle against darkness of ignorance, injustice and poverty for the achievement of all round prosperity and well being.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of the duties of a king-is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O glorious Indra-king (bestower of all happiness) at this holy invocation with wealth or glory, may we be your best beloved friends. You being a liberal donor every morning be an illustrious ruler in the destruction of the obstructors of righteousness and distribution of wealth of various kinds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Good men should have friendship with that king who is accepted as lover of virtues and industrious, protector of the noble persons and remover of the wicked and the friend of all.
Foot Notes
(द्युम्नहूतौ) द्यम्नेन धनेन यशसा वा हूतिराह्नानं यस्यां तस्याम् दयुम्नमिति धननामा (NG 2, 10 ) । दयुम्नं द्योततेर्यशोवा: अन्नं वेति (NKT 5,1,5) = An act in which there is an invocation with wealth or glory. (प्रातर्दनि:) प्रातःकाले दनिदर्शनं यस्य । = Who is a liberal donor every morning. (क्षत्रश्री:) राज्य लक्ष्मीः । क्षत्रं हि राष्ट्रम् (ऐतरेये 7,22) । = Endowed with the wealth of the State.
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