ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 27/ मन्त्र 8
ऋषि: - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - गावः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
द्व॒याँ अ॑ग्ने र॒थिनो॑ विंश॒तिं गा व॒धूम॑न्तो म॒घवा॒ मह्यं॑ स॒म्राट्। अ॒भ्या॒व॒र्ती चा॑यमा॒नो द॑दाति दू॒णाशे॒यं दक्षि॑णा पार्थ॒वाना॑म् ॥८॥
स्वर सहित पद पाठद्व॒यान् । अ॒ग्ने॒ । र॒थिनः॑ । विं॒श॒तिम् । गाः । व॒धूऽम॑तः । म॒घऽवा॑ । मह्य॑म् । स॒म्ऽराट् । अ॒भि॒ऽआ॒व॒र्ती । चा॒य॒मा॒नः । द॒दा॒ति॒ । दुः॒ऽनाशा॑ । इ॒यम् । दक्षि॑णा । पा॒र्थ॒वाना॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्वयाँ अग्ने रथिनो विंशतिं गा वधूमन्तो मघवा मह्यं सम्राट्। अभ्यावर्ती चायमानो ददाति दूणाशेयं दक्षिणा पार्थवानाम् ॥८॥
स्वर रहित पद पाठद्वयान्। अग्ने। रथिनः। विंशतिम्। गाः। वधूऽमन्तः। मघऽवा। मह्यम्। सम्ऽराट्। अभिऽआवर्ती। चायमानः। ददाति। दुःऽनाशा। इयम्। दक्षिणा। पार्थवानाम् ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 27; मन्त्र » 8
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजा किं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! ये वधूमन्तो रथिनस्स्युर्यान् द्वयान् मघवा सम्राडभ्यावर्त्ती चायमानो भवान् विंशतिं गा ददाति स त्वं मह्यं या पार्थवानामियं दूणाशा दक्षिणा भवता दत्तास्ति तया तान् प्रीणीहि ॥८॥
पदार्थः
(द्वयान्) प्रजासेनाजनान् (अग्ने) (रथिनः) प्रशस्ता रथा येषां सन्ति ते (विंशतिम्) (गाः) धेनूरिव (वधूमन्तः) प्रशस्ता वध्वो विद्यन्ते येषान्ते (मघवा) प्रशस्तधनवान् (मह्यम्) (सम्राट्) यः सम्यग्राजते (अभ्यावर्ती) यो विजेतुमभ्यावर्त्तते सः (चायमानः) पूज्यमानः (ददाति) (दूणाशा) दुर्लभो नाशो यस्याः सा (इयम्) (दक्षिणा) (पार्थवानाम्) पृथौ विस्तीर्णायां विद्यायां भवानां राज्ञाम् ॥८॥
भावार्थः
यो राजा कुलीनान् विद्याव्यवहारविचक्षणान् धार्मिकान् राजप्रजाजनानभयान् करोति सोऽतुलां प्रतिष्ठां प्राप्नोतीति ॥८॥ अत्रेन्द्रेश्वराजप्रजागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति सप्तविंशतितमं सूक्तं चतुर्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान ! जो (वधूमन्तः) अच्छी श्रेष्ठ वधुयें और (रथिनः) श्रेष्ठ रथोंवाले होवें जिन (द्वयान्) प्रजा और सेना के जनों को (मघवा) प्रशंसित धनवाले (सम्राट्) उत्तम प्रकार से शोभित और (अभ्यावर्ती) जीतने को चारों ओर से वर्त्तमान (चायमानः) आदर किये गये आप (विंशतिम्) बीस (गाः) गौओं को जैसे वैसे (ददाति) देते वह आप (मह्यम्) मेरे लिये जो (पार्थवानाम्) राजाओं की (इयम्) यह (दूणाशा) दुर्लभ नाश जिसका ऐसी (दक्षिणा) दक्षिणा आपसे दी गई है, उससे उनको प्रसन्न करिये ॥८॥
भावार्थ
जो राजा कुलीन, विद्या और व्यवहार में निपुण, धार्मिक राजा और प्रजाजनों को भय रहित करता है, वह अतुल प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है ॥८॥ इस सूक्त में इन्द्र, ईश्वर, राजा और प्रजा के गुणवर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सत्ताईसवाँ सूक्त और चौबीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो राजा कुलीन, विद्याव्यवहारात कुशल, धार्मिकांना व राज प्रजाजनांना भयरहित करतो त्याला अत्यंत प्रतिष्ठा प्राप्त होते. ॥ ८ ॥
English (1)
Meaning
Agni, refulgent ruler, commanding wealth, power, honour and excellence, dynamic leader ever on the move for progress and victory, revered and celebrated all round, gives me both chariot warriors for defence of the nation and happy families and a team of twenty creative ministers to bear the burdens of the nation, which gift from any of global rulers is invulnerable indeed.
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