ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 6/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स श्वि॑ता॒नस्त॑न्य॒तू रो॑चन॒स्था अ॒जरे॑भि॒र्नान॑दद्भि॒र्यवि॑ष्ठः। यः पा॑व॒कः पु॑रु॒तमः॑ पु॒रूणि॑ पृ॒थून्य॒ग्निर॑नु॒याति॒ भर्व॑न् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठसः । श्वि॒ता॒नः । ता॒न्य॒तुः । रो॒च॒न॒ऽस्थाः । अ॒जरे॑भिः । नान॑दत्ऽभिः । यवि॑ष्ठः । यः । पा॒व॒कः । पु॒रु॒ऽतमः॑ । पु॒रूणि॑ । पृ॒थूनि॑ । अ॒ग्निः । अ॒नु॒ऽयाति॑ । भर्व॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स श्वितानस्तन्यतू रोचनस्था अजरेभिर्नानदद्भिर्यविष्ठः। यः पावकः पुरुतमः पुरूणि पृथून्यग्निरनुयाति भर्वन् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठसः। श्वितानः। तन्यतुः। रोचनऽस्थाः। अजरेभिः। नानदत्ऽभिः। यविष्ठः। यः। पावकः। पुरुऽतमः। पुरूणि। पृथूनि। अग्निः। अनुऽयाति। भर्वन् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सोऽग्निः कीदृशोऽस्तीत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यो यविष्ठ इव बलिष्ठः पावकः पुरुतमः श्वितानोऽजरेभिर्नानदद्भिस्तन्यतू रोचनस्था अग्निर्भर्वन् सन्पुरूणि पृथून्यनुयाति स युष्माभिः सम्प्रयोक्तव्यः ॥२॥
पदार्थः
(सः) (श्वितानः) शुभ्रवर्णः (तन्यतुः) विद्युतः (रोचनस्थाः) रोचने दीपने तिष्ठतीति (अजरेभिः) जरादिरोगरहितैः (नानदद्भिः) भृशं शब्दायमानैः (यविष्ठः) अतिशयेन युवावस्थः (यः) (पावकः) (पुरुतमः) (पुरूणि) बहूनि (पृथूनि) विस्तीर्णानि (अग्निः) पावकः (अनुयाति) अनुगच्छति (भर्वन्) भर्जनं दहनं कुर्वन् ॥२॥
भावार्थः
हे विद्वन् ! यदि साङ्गोपाङ्गतो विद्युद्विद्यां जानीयास्तर्हि बहूनि सुखानि लभस्व ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह अग्नि कैसा है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यः) जो (यविष्ठः) अत्यन्त युवावस्था से युक्त जैसे वैसे अत्यन्त बली (पावकः) पवित्र और पवित्र करनेवाला (पुरुतमः) अतीव बहुरूप (श्वितानः) शुभ्रवर्ण (अजरेभिः) जीर्णपन आदि रोगरहित (नानदद्भिः) निरन्तर गर्जनाओं से (तन्यतुः) बिजुलीरूप (रोचनस्थाः) दीपन में स्थिर (अग्निः) अग्नि (भर्वन्) दहन करता हुआ (पुरूणि) बहुत (पृथूनि) विस्तीर्णों के (अनुयाति) पश्चात् जाता है (सः) वह आप लोगों को उत्तम प्रकार प्रयोग करने योग्य है ॥२॥
भावार्थ
हे विद्वन् ! जो आप अङ्ग और उपाङ्ग के सहित बिजुली की विद्या को जानें तो बहुत सुख को प्राप्त होवें ॥ ३ ॥
विषय
वीर नायक का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( पावकः अग्निः पृथूनि भवन् अनुयाति ) जिस प्रकार अग्नि बहुत बड़े २ काष्ठों को जलाता हुआ उनकी ही ओर जाता है उसी प्रकार ( यः ) जो ( पावकः ) अग्नि के समान तेजस्वी, सबको पवित्र करने वाला ( पुरुतमः ) बहुतों में श्रेष्ठ सबको पालन पोषण और तृप्त करने हारा, ( भर्वन् ) शत्रुओं को दग्ध करता और प्रजाओं को पालन करता हुआ (अग्निः ) अग्रणी पुरुष ( पृथूनि पुरूणि ) बड़े २ और बहुत से सैन्यों के ( अनुयाति ) पीछे २ चलता है । ( सः ) वह ( श्वितानः ) विद्युत् के समान अति श्वेत वर्ण, ( तन्यतुः ) गर्जनाशील, ( रोचनस्था: ) सर्वप्रिय पद पर विराजने वाला, ( अजरेभिः) जरारहित, जवान, ( नानदद्भिः ) मेघवत् अति समृद्ध और गर्जनाशील अधीन नायकों के साथ मिलकर स्वयं ( यविष्ठः ) अति बलवान् होकर ( पृथूनि पुरूणि भवन् अनुयाति ) बड़े २ बहुत शत्रु सैन्यों को भस्म करता हुआ अनुगमन करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, २, ३, ४, ५ निचृत्त्रिटुप् । ६, ७ त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'ज्ञान द्वारा पवित्रता' व 'ऐश्वर्य प्राप्ति'
पदार्थ
[१] (सः अग्निः) = वे अग्रेणी प्रभु (श्वितान:) = अत्यन्त श्वेतवर्णवाले, एकदम शुद्ध व अपापविद्ध हैं। (तन्यतुः) = हमारे हृदयों में स्थित हुए-हुए ज्ञान-वाणियों का गर्जन करनेवाले हैं। (रोचनस्था:) = इस नक्षत्रों से देदीप्यमान अन्तरिक्षलोक में स्थित हैं। (अजरेभिः) = कभी जीर्ण न होनेवाले (नानदद्भिः) = खूब ऊँचे उच्चरित होते हुए इन वेद शब्दों से (यविष्ठः) = युवतम हैं, हमें बुराइयों से अधिक से अधिक दूर करनेवाले हैं। इन ज्ञानवाणियों से वे प्रभु हमें सब अच्छाइयों से युक्त करते हैं । [२] (यः) = जो अग्रेणी प्रभु (पावकः) = पवित्र करनेवाले हैं। पवित्रता के द्वारा (पुरुतमः) = हमारा अधिक से अधिक पालन व पूरण करनेवाले हैं। ये प्रभु (भर्वन्) = हमारे शत्रुओं का संहार करते हुए (पुरूणि) = पालन व पूरण करनेवाले (पृथूनि) = विशाल धनों को (अनुयाति) = [या प्रापणे] अनुकूलता से प्राप्त कराते हैं । प्रभु से प्राप्त कराये गये धन हमारे जीवनों में व्यसनों को उत्पन्न नहीं होने देते।
भावार्थ
भावार्थ- ज्ञान देकर प्रभु हमारे जीवनों को पवित्र बनाते हैं। जीवनयात्रा की पूर्ति के लिये उत्कृष्ट धनों को देते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे विद्वाना ! जर सांगोपांग विद्युतविद्या जाणली तर खूप सुख मिळते. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That energy, Agni, which is brilliant, expansive and roaring, constant in light without a flicker, abiding in imperishable thunder and lightning, is the fire purifier which lies dormant in many forms in solids, and it is versatile and explosive.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The form of Agni (in the form of electricity) is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should apply Agni (electricity) for the accomplishment of various purposes which is white coloured, very powerful like the most youthful person, purifier, multiformed, loud voiced and undecaying, dwelling in splendor, and on burning ( switching to. Ed.) goes to various objects.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! if you know the sciences of energy/electricity with all its branches, you can enjoy much happiness.
Foot Notes
(तन्यतुः ) विद्युत्। = Electricity/power/energy. (भर्वन्) (भर्जनं) दहनं कुर्वन् । = Creating burning. (भर्व) हिंसायाम् । = Destroying, here burning. (रोचनस्था:) रोचने दीपने तिष्ठति । रूच-दीप्तौ (भ्वा० ) ष्ठा-गतिनिवृत्तौ (भ्वा० ) । = Dwelling in splendor.
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