ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 6/ मन्त्र 7
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स चि॑त्र चि॒त्रं चि॒तय॑न्तम॒स्मे चित्र॑क्षत्र चि॒त्रत॑मं वयो॒धाम्। च॒न्द्रं र॒यिं पु॑रु॒वीरं॑ बृ॒हन्तं॒ चन्द्र॑ च॒न्द्राभि॑र्गृण॒ते यु॑वस्व ॥७॥
स्वर सहित पद पाठसः । चि॒त्र॒ । चि॒त्रम् । चि॒तय॑न्तम् । अ॒स्मे इति॑ । चित्र॑ऽक्षत्र । चि॒त्रऽत॑मम् । व॒यः॒ऽधाम् । च॒न्द्रम् । र॒यिम् । पु॒रु॒ऽवीर॑म् । बृ॒हन्त॑म् । चन्द्र॑ । च॒न्द्राभिः॑ । गृ॒ण॒ते । यु॒व॒स्व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स चित्र चित्रं चितयन्तमस्मे चित्रक्षत्र चित्रतमं वयोधाम्। चन्द्रं रयिं पुरुवीरं बृहन्तं चन्द्र चन्द्राभिर्गृणते युवस्व ॥७॥
स्वर रहित पद पाठसः। चित्र। चित्रम्। चितयन्तम्। अस्मे इति। चित्रऽक्षत्र। चित्रऽतमम्। वयःऽधाम्। चन्द्रम्। रयिम्। पुरुऽवीरम्। बृहन्तम्। चन्द्र। चन्द्राभिः। गृणते। युवस्व ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 6; मन्त्र » 7
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 7
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे चित्र चित्रक्षत्र चन्द्र ! यथा स विद्वान् चन्द्राभिरस्मे चित्रं चन्द्रं चितयन्तं चित्रतमं वयोधां बृहन्तं पुरुवीरं रयिं गृणते तं त्वं युवस्व ॥७॥
पदार्थः
(सः) (चित्र) अद्भुतगुणकर्म्मस्वभाव (चित्रम्) आश्चर्य्यभूतम् (चितयन्तम्) ज्ञापयन्तम् (अस्मे) अस्मभ्यम् (चित्रक्षत्र) चित्रमद्भुतं क्षत्रं राज्यं धनं वा यस्य (चित्रतमम्) अत्यन्ताश्चर्य्ययुक्तं रूपम् (वयोधाम्) यो वयो जीवनं दधाति [(चन्द्रम्) (रयिम्)] (पुरुवीरम्) बहुवीरप्रदम् (बृहन्तम्) महान्तम् (चन्द्र) आह्लादकारक (चन्द्राभिः) आनन्दधनकरीभिः प्रजाभिः (गृणते) स्तौति (युवस्व) संयोजय ॥७॥
भावार्थः
ये मनुष्या अद्भुगुणकर्म्मस्वभावान् स्वीकृत्यान्यान् ग्राहयित्वा धनाढ्यान् कारयन्ति तेऽद्भुतस्तुतयो भवन्तीति ॥७॥ अत्राग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षष्ठं सूक्तमष्टमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (चित्र) अद्भुत गुण कर्म्म और स्वभाववाले (चित्रक्षत्र) अद्भुत राज्य वा धन से युक्त (चन्द्र) आह्लादकारक ! जैसे (सः) वह विद्वान् (चन्द्राभिः) आनन्द और धन करनेवाली प्रजाओं से (अस्मे) हम लोगों के लिये (चित्रम्) आश्चर्यभूत (चन्द्रम्) आनन्द देनेवाले सुवर्ण आदि को (चितयन्तम्) जनाते हुए तथा (चित्रतमम्) अत्यन्त आश्चर्य्ययुक्त रूप और (वयोधाम्) जीवन के धारण करने और (बृहन्तम्) बड़े (पुरुवीरम्) बहुत वीरों के देनेवाले (रयिम्) धन की (गृणते) स्तुति करता है, उसको आप (युवस्व) उत्तम प्रकार युक्त करिये ॥७॥
भावार्थ
जो मनुष्य अद्भुत गुण, कर्म्म और स्वभावों का स्वीकार करके तथा अन्य जनों को ग्रहण कराय के धनाढ्य कराते हैं, वे अद्भुत स्तुतिवाले होते हैं ॥७॥ इस सूक्त में अग्नि तथा विद्वान् के गुणों का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह छठा सूक्त और आठवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
सूर्य के प्रकाश प्रसारवत् राजा का राज्यप्रसार ।
भावार्थ
हे (चित्र) आश्चर्य कर्म करने हारे ! विद्वन् राजन् ! (सः) वह तू हे ( चित्र क्षत्र ) आश्चर्यकारी वीर्य बल और राज्य के स्वामिन् ! तू ( अस्मे ) हमें (चित्रम्) अद्भुत (चित्र-तमम् ) सबसे अधिक संग्रह करने योग्य ( वयो-धाम् ) जीवन के पालन करने वाले, बलप्रद, अन्नप्रद, ( चन्द्रं ) आह्लादकारी ( पुरु-वीरं ) बहुत से वीरों और पुत्रों से युक्त ( रयिं ) ऐश्वर्य और ( बृहन्तं ) बड़े भारी ( चन्द्रं ) आह्लादकारी सुवर्णादि को भी ( चन्द्राभिः) आह्लादकारिणी, सुखजनक वाणियों सहित ( गृणते युवस्व ) उपदेष्टा पुरुष को प्रदान कर । इत्यष्टमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, २, ३, ४, ५ निचृत्त्रिटुप् । ६, ७ त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
अद्भुत धन की प्राप्ति
पदार्थ
[१] हे (चित्र) = [चित्+र] ज्ञान को देनेवाले, (चित्रक्षत्र) = अद्भुत बलवाले (चन्द्र) = आह्लादमय [आनन्दस्वरूप] (चन्द्राभिः) = आह्लादकारिणी स्तुतियों से (गृणते) = स्तवन करनेवाले (अस्मे) = हमारे लिये (रयिं युवस्व) = धन को प्राप्त कराइये [ यु मिश्रणे] । [२] उस धन को प्राप्त कराइये जो (चित्रम्) = ज्ञान को देनेवाला है, (चितयन्तम्) = हमारी चेतना को बढ़ानेवाला है। (चित्रतमम्) = अतिशयेन अद्भुत है। (वयोधाम्) = उत्कृष्ट जीवन को धारण करनेवाला है (चन्द्रम्) = आह्लाद का जनक है। (पुरुवीरम्) = पालक व पूरक होता हुआ [पृ पालनपूरणयोः] विशेषरूप से शत्रुओं को कम्पित करके दूर करनेवाला है [वि+ ईर] और इस प्रकार (बृहन्तम्) = वृद्धि का कारण है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु अपने स्तोताओं को उस सात्त्विक धन की प्राप्ति कराते हैं जो उन्नति का ही साधन बनता है। अगले सूक्त में 'भारद्वाज बार्हस्पत्य' वैश्वानर का स्मरण करते हैं -
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे अद्भुत गुण, कर्म स्वभावाचा स्वीकार करून इतरांनाही ग्रहण करवून धनाढ्य करवितात त्यांची अत्यंत स्तुती होते. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, marvellous leading light of the world, mler of the wonderful human order of brilliance, inspirer of love, benevolence and bliss, join and mix various wonderful elements with beautiful and soothing elements and then create for us enlightening, most surprising, invigorating, blissful, life giving, self- expansive wealth inspiring for all the youth and for the dedicated celebrant.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do is elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king of wonderful merits! you are active and of sober temperament, whose kingdom or wealth is wondrous. O gladdener of all ! as a highly learned person praises (you. Ed.) along with delightful subjects, (it is. Ed.) wealth in the form of delightful gold etc. It is wondrous, marked, most wonderful and life-giving, giver of many heroes and great (by. Ed.) disseminating knowledge. So you also associate with him.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons who accept wonderful merits and actions and urge others also to do so and thus make people rich, become wonderfully renowned and glorious.
Foot Notes
(चितयन्तम्) ज्ञापयन्तम् | चिती-संज्ञाने (भ्वा०) । = Teaching or disseminating knowledge. (चन्द्र) आहूलादकारक |चदि-आळ्हादे (भ्वा०) चन्द्रमिति हिरण्यनाम (NG 1,2)। = Source of delight, gladdener. (चित्रक्षत) चित्रमदुभूतं क्षत्रं राज्यं धनं वा यस्य । क्षत्रं हि राष्ट्रम् (ऐतरेय ब्राह्मणे 7, 22)। = Whose kingdom or wealth is wonderful. (युवस्व) संयोजय। = Unite.
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