ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 6/ मन्त्र 5
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अध॑ जि॒ह्वा पा॑पतीति॒ प्र वृष्णो॑ गोषु॒युधो॒ नाशनिः॑ सृजा॒ना। शूर॑स्येव॒ प्रसि॑तिः क्षा॒तिर॒ग्नेर्दु॒र्वर्तु॑र्भी॒मो द॑यते॒ वना॑नि ॥५॥
स्वर सहित पद पाठअध॑ । जि॒ह्वा । पा॒प॒ती॒ति॒ । प्र । वृष्णः॑ । गो॒षु॒ऽयुधः॑ । न । अ॒शनिः॑ । सृ॒जा॒ना । शूर॑स्यऽइव । प्रऽसि॑तिः । क्षा॒तिः । अ॒ग्नेः । दुः॒ऽवर्तुः॑ । भी॒मः । द॒य॒ते॒ । वना॑नि ॥
स्वर रहित मन्त्र
अध जिह्वा पापतीति प्र वृष्णो गोषुयुधो नाशनिः सृजाना। शूरस्येव प्रसितिः क्षातिरग्नेर्दुर्वर्तुर्भीमो दयते वनानि ॥५॥
स्वर रहित पद पाठअध। जिह्वा। पापतीति। प्र। वृष्णः। गोषुऽयुधः। न। अशनिः। सृजाना। शूरस्यऽइव। प्रऽसितिः। क्षातिः। अग्नेः। दुःऽवर्तुः। भीमः। दयते। वनानि ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 6; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! गोषुयुधो वृष्णो जिह्वा न पापतीत्यधाऽशनिरिव सृजाना शूरस्येवाऽग्नेर्दुर्वर्त्तुः प्रसितिः क्षातिर्भीमो वनानि प्र दयते ॥५॥
पदार्थः
(अध) आनन्तर्य्ये (जिह्वा) वाणी (पापतीति) प्रकर्षेण पुनः पुनः पतति गच्छन्ति (प्र) (वृष्णः) बलिष्ठान् (गोषुयुधः) ये गोषु युध्यन्ते तान् (न) निषेधे (अशनिः) विद्युत् (सृजाना) निष्पादिता (शूरस्येव) (प्रसितिः) प्रकृष्टं बन्धनम् (क्षातिः) क्षयः (अग्नेः) पावकवत्प्रकाशमानस्य (दुर्वर्त्तुः) दुःखेन वर्त्तमानयुक्तस्य (भीमः) भयङ्करः (दयते) हिनस्ति (वनानि) ॥५॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये मनुष्या धर्मात् पतिता न भूत्वा धार्मिकेषु शान्ता दुष्टेष्वग्निरिव भयङ्करा जायन्ते त एव बलवन्तो गण्यन्ते ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को कैसा वर्त्ताव करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वान् ! (गोषुयुधः) वाणियों में युद्ध करनेवाले (वृष्णः) बलिष्ठों को (जिह्वा) वाणी (न) नहीं (पापतीति) अत्यन्त वारवार प्राप्त होती है (अध) इसके अनन्तर (अशनिः) बिजुली जैसे वैसे (सृजाना) उत्पन्न किया गया (शूरस्येव) शूरवीर के सदृश (अग्नेः) अग्नि के समान प्रकाशमान (दुर्वर्त्तुः) दुःख के साथ वर्त्तमान से युक्त का (प्रसितिः) प्रकृष्ट बन्धन (क्षातिः) और नाश (भीमः) भयंकर हुआ (वनानि) वनों को (प्र, दयते) नष्ट करता है ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य धर्म्म से पतित न होकर धार्म्मिकों में शान्त और दुष्टों में अग्नि के सदृश भयंकर होते हैं, वे ही बलवान् गिने जाते हैं ॥ ५ ॥
विषय
शासन और शत्रु नाश ।
भावार्थ
( सृजाना अशनिः ) उत्पन्न होती हुई विद्युत् की जिह्वा ( वृष्ण: ) बरसते और (गो-सु-युधः) भूमि पर प्रहार करते मेघ से निकलती जीभ के समान (पापतीति ) वेग से जाती है उसी प्रकार ( गो-सुयुधः ) भूमि के निमित्त युद्ध करने हारे ( वृष्णः ) बलवान् पुरुष की (जिह्वा) वाणी भी (पापतीति ) बराबर आगे जाती है । वह ( शूरस्य ) शूरवीर पुरुष की (प्र-सितिः ) प्रबन्धक शक्ति और (क्षाति: ) शत्रु को नाश करने वाली शक्ति, दोनों ही ( दुर्वर्तुः ) वारण नहीं की जा सकतीं। (भीमः) इस प्रकार वह भयानक, राजा (वनानि दयते) ऐश्वर्यों वा भोग्य राष्ट्रों या स्वसैन्य दलों को पालता और ( वनानि दयते) शत्रु सैन्य समूहों को नष्ट करता है । 'प्रसिति' अर्थात् प्रबन्धक शक्ति से पालता और 'क्षाति' अर्थात् विनाशक शक्ति से नाश करता है। इसी प्रकार (गो-सु-युधः) वाणी युद्ध करने वाले तार्किक विद्वान् की वाणी विद्युत् के समान ( सृजाना ) नयी रचना करती हुई चलती है, वह उत्तम बन्धनयुक्त, सुग्रथित, दोषरहित हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, २, ३, ४, ५ निचृत्त्रिटुप् । ६, ७ त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
वासना वन-विनाश
पदार्थ
[१] (अध) = अब गत मन्त्र के अनुसार हृदय में प्रभु की गति का अनुभव होने पर, (वृष्णः) = उस सुखों का वर्षण करनेवाले प्रभु की (जिह्वा) = ज्ञान-प्रदायिनी वाणी (प्रपापतीति) = खूब ही हमारे जीवनों में गतिवाली होती है। यह प्रभु की जिह्वा (गोषुयुधः) = इन्द्रियों के विषयों में वासनाओं से युद्ध करनेवाले जितेन्द्रिय पुरुष के (सृजाना अशनिः इव) = उत्पन्न किये जाते हुए वज्र के समान है। जैसे कि जितेन्द्रिय पुरुष क्रियाशीलता रूप वज्र के द्वारा वासनारूप शत्रुओं का विनाश करता है, उसी प्रकार प्रभु की ज्ञानवाणी भी इन वासनारूप शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाली होती है । [२] (शूरस्य) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले (अग्नेः) = उस अग्रणी प्रभु की (प्रसितिः) = शत्रु-बन्धन शक्ति तथा (क्षातिः) = शत्रुक्षय सामर्थ्य (दुर्वतुः) = शत्रुओं से वारण के योग्य नहीं होती। यह (भीमः) = शत्रुओं के भयंकर अग्नि का सामर्थ्य (वनानि दयते) = वासना वनों का हिंसन करता है। प्रभु की उपासना से सब वासना वन भस्मीभूत हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की ज्ञानाग्नि में सब वासनाएँ भस्म हो जाती हैं। प्रभु की उपासना से प्राप्त सामर्थ्य सब वासना वनों का हिंसन करनेवाला होता है ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जी माणसे धर्मापासून न ढळता धार्मिकांना शांत व दुष्टांना अग्नीप्रमाणे भयंकर असतात तीच बलवान समजली जातात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Further, the tongue of flame, the flash of lightning, like the thunderbolt of mighty Indra, warrior of the flash and thunder’s roar, shakes and shines with the blaze, striking and shattering things like a warrior’s blow, and thus the terrible onslaught of irresistible Agni destroys the forests.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should men behave is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned person ! the tongue of the mighty person who fights on earth against the wicked does not go in vain, (such a brave person does not use his tongue uselessly). When it is used, it generates zeal and is like the fierce fire which is radiant; and its exalted restraint and destroying power destroy the wicked, like the fire burns the trees and grass of the forests.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men only are considered as powerful who never go astray from the path of Dharma or righteousness and are calm (supportive. Ed.) towards the righteous, but fierce against the wicked like the fire.
Foot Notes
(प्रसिति:) प्रकृष्टं बन्धनम् । प्र + षिन्-बन्धने ( स्वा० ) = Exalted restraint. (क्षति:) क्षय:। = Destroying power. (दयते) हिनस्ति । दय-दानगतिरक्षणहिंसादानेषु (भ्वा० ) । अत्र हिंसार्थक:। = Destroys.
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