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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 55/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    त्वं सू॑क॒रस्य॑ दर्दृहि॒ तव॑ दर्दर्तु सूक॒रः। स्तो॒तॄनिन्द्र॑स्य रायसि॒ किम॒स्मान्दु॑च्छुनायसे॒ नि षु स्व॑प ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । सू॒क॒रस्य॑ । द॒र्दृ॒हि॒ । तव॑ । द॒र्द॒र्तु॒ । सू॒क॒रः । स्तो॒तॄन् । इन्द्र॑स्य । रा॒य॒सि॒ । किम् । अ॒स्मान् । दु॒च्छु॒न॒ऽय॒से॒ । नि । सु । स्व॒प॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं सूकरस्य दर्दृहि तव दर्दर्तु सूकरः। स्तोतॄनिन्द्रस्य रायसि किमस्मान्दुच्छुनायसे नि षु स्वप ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। सूकरस्य। दर्दृहि। तव। दर्दर्तु। सूकरः। स्तोतॄन्। इन्द्रस्य। रायसि। किम्। अस्मान्। दुच्छुनऽयसे। नि। सु। स्वप ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 55; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे गृहस्थ ! यस्य सूकरस्येन्द्रस्य तव सूकरो दर्दर्तु त्वं रायसि यत् सर्वान् दर्दृहि स्तोतॄनस्मान् किं दुच्छुनायसे तत्र गृहे सुखेन नि सु स्वप ॥४॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (सूकरस्य) यः सुष्ठु करोति (दर्दृहि) भृशं वर्धय (तव) (दर्दर्तु) भृशं वर्द्धताम् (सूकरः) यः सम्यक् करोति (स्तोतॄन्) विदुषः (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यस्य (रायसि) रा इवाचरसि (किम्) (अस्मान्) (दुच्छुनायसे) (नि) (सु) (स्वप) ॥४॥

    भावार्थः

    हे गृहस्थ ! त्वमैश्वर्यं संचित्य धर्मे व्यवहारे संवीय विदुषः सत्कृस्य श्रीमानिवाचरास्मान् प्रति किमर्थं श्वेवाचरति नीरोगस्सन् प्रतिसमयं सुखेन शयस्व ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे गृहस्थ ! जिस (सूकरस्य) सुन्दरता से कार्य करनेवाले (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्यवान् (तव) तुम्हारे (सूकरः) कार्य को अच्छे प्रकार करनेवाला (दर्दर्तु) निरन्तर बढ़े (त्वम्) आप (रायसि) लक्ष्मी के समान आचरण करते हो और जो सब को (दर्दृहि) निरन्तर उन्नति दें अर्थात् सब की वृद्धि करें (स्तोतॄन्) स्तुति करनेवाले विद्वान् (अस्मान्) हम लोगों को (किम्) क्या (दुच्छुनायसे) दुष्ट कुत्तों में जैसे वैसे आचरण से प्राप्त होते हो, उस घर में सुख से (नि, सु, स्वप) निरन्तर सोओ ॥४॥

    भावार्थ

    हे गृहस्थ ! आप ऐश्वर्य का संचय कर, धर्म व्यवहार में अच्छे प्रकार विस्तार कर और विद्वानों का सत्कार कर श्रीमानों के समान आचरण करो, हम लोगों के प्रति किसलिये कुत्ते के समान आचरण करते हैं, नीरोग होते हुए प्रति समय सुख से सोओ ॥४॥

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    विषय

    सैन्य का शत्रु के प्रति कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! ( त्वं ) तू ( सू-करस्य ) उत्तम कार्य करने वाले को ( दर्दृहि ) खूब बढ़ा । ( सूकरस्य = सु-करस्य ) उत्तम रीति से वश करने योग्य, सुसाध्य शत्रु को (दर्दृहि) विदीर्ण कर । उसमें अच्छी प्रकार भेद नीति का प्रयोग कर । और ( सूकर: ) उत्तम युद्धकर्त्ता शत्रुजन ( तव दर्दृहि ) तेरे राष्ट्र में भी भेदन करने में समर्थ है । तू ( स्तोतॄन् ) उत्तम विद्वानों के प्रति ( इन्द्रस्य ) ऐश्वर्य का (रायसि) दान दिया कर । ( अस्मान् किम् दुच्छुनायसे ) हमारे प्रति क्यों दुष्ट कुत्ते के समान दुर्व्यवहार करता है, ( नि सु स्वप ) तू सदा सावधान रहकर सुख की निद्रा सोया कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ १ वास्तोष्पतिः । २—८ इन्द्रो देवता॥ छन्दः —१ निचृद्गायत्री। २,३,४ बृहती। ५, ७ अनुष्टुप्। ६, ८ निचृदनुष्टुप् । अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    रायसि

    पदार्थ

    पदार्थ- हे राजन् ! (त्वं) = तू (सू करस्य) = उत्तम कार्य करनेवाले को (दर्दृहि) = बढ़ा। (सूकरस्य) = उत्तम रीति से वश करने योग्य शत्रु को (दर्दृहि) = विदीर्ण कर और (सूकर:) = उत्तम युद्धकर्त्ता शत्रुजन (तव दर्दृहि) = तेरे राष्ट्र में भी भेदन करने में समर्थ है। तू (स्तोतॄन्) = उत्तम विद्वानों के प्रति (इन्द्रस्य) = ऐश्वर्य का (रायसि) = दान कर। (अस्मान् किम् दुच्छुनायसे) = हमारे प्रति क्यों दुष्ट कुत्ते के समान करता है, (नि सु स्वप) = तू सावधान रहकर सुख की निद्रा ले ।

    भावार्थ

    भावार्थ- राजा सज्जनों का सम्मान और राष्ट्र द्रोहियों को कठोर दण्ड दे।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे गृहस्थांनो! तुम्ही ऐश्वर्याचा संचय करून धर्मव्यवहारात चांगल्या प्रकारे वागून विद्वानांचा सत्कार करा व श्रीमान लोकांप्रमाणे वागा. आमच्याबरोबर (सर्वांबरोबर) कुत्र्यासारखे आचरण का करता? निरोगी बनून प्रत्येक वेळी सुखाने झोपी जा. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Promote with incentive the forces of positive action and let the forces of good action promote you and the social order. You advance the supporters and admirers of the order and you protect us against saboteurs and evil doers for sure. In such a state of vigilance and readiness you may rest in peace and security.

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