ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 57/ मन्त्र 3
नैताव॑द॒न्ये म॒रुतो॒ यथे॒मे भ्राज॑न्ते रु॒क्मैरायु॑धैस्त॒नूभिः॑। आ रोद॑सी विश्व॒पिशः॑ पिशा॒नाः स॑मा॒नम॒ञ्ज्य॑ञ्जते शु॒भे कम् ॥३॥
स्वर सहित पद पाठन । ए॒ताव॑त् । अ॒न्ये । म॒रुतः॑ । यथा॑ । इ॒मे । भ्राज॑न्ते । रु॒क्मैः । आयु॑धैः । त॒नूभिः॑ । आ । रोद॑सी॒ इति॑ । वि॒श्व॒ऽपिशः॑ । पि॒शा॒नाः । स॒मा॒नम् । अ॒ञ्जि । अ॒ञ्ज॒ते॒ । शु॒भे । कम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नैतावदन्ये मरुतो यथेमे भ्राजन्ते रुक्मैरायुधैस्तनूभिः। आ रोदसी विश्वपिशः पिशानाः समानमञ्ज्यञ्जते शुभे कम् ॥३॥
स्वर रहित पद पाठन। एतावत्। अन्ये। मरुतः। यथा। इमे। भ्राजन्ते। रुक्मैः। आयुधैः। तनूभिः। आ। रोदसी इति। विश्वऽपिशः। पिशानाः। समानम्। अञ्जि। अञ्जते। शुभे। कम् ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 57; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते विद्वांसः कीदृशा भवन्तीत्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यथेमे मरुतो रुक्मैरायुधैस्तनूभिस्सह भ्राजन्ते विश्वपिशः पिशानाः शुभे समानमञ्चि कमञ्जते रोदसी आ भ्राजन्ते नैतावदन्ये कर्तुं शक्नुवन्ति ॥३॥
पदार्थः
(न) निषेधे (एतावत्) (अन्ये) (मरुतः) वायुवन्मनुष्याः (यथा) (इमे) (भ्राजन्ते) प्रकाशन्ते (रुक्मैः) देदीप्यमानैः (आयुधैः) (तनूभिः) शरीरैः (आ) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (विश्वपिशः) विश्वस्यावयवभूताः (पिशानाः) संचूर्णयन्तः (समानम्) तुल्यम् (अञ्जि) गमनम् (अञ्जते) गच्छन्ति व्यक्तिं कुर्वन्ति (शुभे) शोभनाय (कम्) सुखम् ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्याः ! यथा विद्वांसः शूरवीरा शरीरात्मबलयुक्ताः स्वायुधाः संग्रामेषु प्रकाशन्ते तथा भीरवो मनुष्या न प्रकाशन्ते यथा प्राणस्सर्वं जगदानन्दयन्ति तथा विद्वांसस्सर्वान् मनुष्यान् सुखयन्ति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे विद्वान् जन कैसे होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वान् जनो ! (यथा) जैसे (इमे) ये (मरुतः) वायु के सदृश मनुष्य (रुक्मैः) प्रकाशमान (आयुधैः) आयुधों और (तनूभिः) शरीरों के साथ (भ्राजन्ते) प्रकाशित होते हैं और (विश्वपिशः) संसार के अवयवभूत (पिशानाः) उत्तम प्रकार चूर्ण करते हुए (शुभे) सुन्दरता के लिये (समानम्) तुल्य (अञ्जि) गमन को और (कम्) सुख को (अञ्जते) व्यतीत करते हैं तथा (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (आ) सब ओर से प्रकाशित करते हैं (न) न (एतावत्) इतना ही (अन्ये) अन्य करने को समर्थ होते हैं ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् शूरवीर जन शरीर और आत्मा के बल से युक्त और श्रेष्ठ आयुधों से युक्त हुए सङ्ग्रामों में प्रकाशित होते हैं, वैसे भीरु मनुष्य नहीं प्रकाशित होते हैं, जैसे प्राण सब जगत् को आनन्दित करते हैं, वैसे विद्वान् सब को सुखी करते हैं ॥३॥
विषय
अध्यक्षों के कर्त्तव्य, उनको उत्तम २ उपदेश ।
भावार्थ
( यथा इमे ) जिस प्रकार ये ( मरुतः ) शत्रुओं को मारने वाले वीर मनुष्य (रुक्मैः) कान्तियुक्त (आयुधैः) हथियारों और (तनूभिः) शरीरों से (म्राजन्ते ) चमकते हैं ( एतावत् ) उतने ( अन्ये मरुतः न भ्राजन्ते ) और दूसरे मनुष्य नहीं चमकते । ये ( विश्व-पिशाः ) सर्वाङ्ग सुन्दर जन ( रोदसी पिशाना: ) आकाश और भूमि दोनों को सुशोभित करते हुए सूर्य किरणों के समान ( समानम् अञ्जि ) एक समान दीप्तियुक्त चिह्न को ( शुभे कम् ) शोभा के लिये ( अञ्जते ) प्रकट करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः - २, ४ त्रिष्टुप्। १ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ५, ६, ७ निचृत्त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
विषय
तेजस्वी योद्धा
पदार्थ
पदार्थ - (यथा इमे) = जैसे ये (मरुतः) = शत्रु घातक वीर मनुष्य (रुक्मैः) = कान्तियुक्त (आयुधैः) = हथियारों और (तनूभिः) = शरीरों से (भ्राजन्ते) = चमकते हैं (एतावत्) = उतने (अन्ये मरुतः न भ्राजन्ते) = दूसरे मनुष्य नहीं चमकते। ये (विश्व-पिश:) = सर्वाङ्ग-सुन्दर जन (रोदसी पिशाना:) = आकाश और भूमि को सुशोभित करते हुए सूर्य किरणों के तुल्य (समानम् अञ्जि) = समान दीप्तियुक्त चिह्न को (शुभे कम्) = शोभा के लिये (अञ्जते) = प्रकट करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सर्वाङ्ग सुन्दर तेजस्वी वीर योद्धा कान्तियुक्त हथियारों तथा शरीरों से चमकते हुए थल सेना, जल सेना तथा वायु सेना में संयुक्त रूप से अपने-अपने ध्वज के साथ सामञ्जस्य बनाकर अन्य शत्रु सेना को तेजहीन करने में समर्थ हों।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे विद्वान शूरवीर पुरुष शरीर व आत्म्याच्या बलाने युक्त होऊन व श्रेष्ठ आयुधांनी युक्त होऊन युद्धात प्रकट होतात, तसे भित्री माणसे प्रकट होत नाहीत. जसे प्राण सर्व जगाला आनंदित करतात तसे विद्वान सर्वांना सुखी करतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
No other powers are like them, nor can anyone else do as much as they do, shining in body with weapons of golden radiance, pervading heaven and earth, wearing blessed brilliance and soothing comeliness equal with the beauty and grandeur of nature to enhance their innate grace.
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