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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 57 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 57/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मरुतः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    कृ॒ते चि॒दत्र॑ म॒रुतो॑ रणन्तानव॒द्यासः॒ शुच॑यः पाव॒काः। प्र णो॑ऽवत सुम॒तिभि॑र्यजत्राः॒ प्र वाजे॑भिस्तिरत पु॒ष्यसे॑ नः ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कृ॒ते । चि॒त् । अत्र॑ । म॒रुतः॑ । र॒ण॒न्त॒ । अ॒न॒व॒द्यासः॑ । शुच॑यः । पा॒व॒काः । प्र । नः॒ । अ॒व॒त॒ । सु॒म॒तिऽभिः॑ । य॒ज॒त्राः॒ । प्र । वाजे॑भिः । ति॒र॒त॒ । पु॒ष्यसे॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कृते चिदत्र मरुतो रणन्तानवद्यासः शुचयः पावकाः। प्र णोऽवत सुमतिभिर्यजत्राः प्र वाजेभिस्तिरत पुष्यसे नः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कृते। चित्। अत्र। मरुतः। रणन्त। अनवद्यासः। शुचयः। पावकाः। प्र। नः। अवत। सुमतिऽभिः। यजत्राः। प्र। वाजेभिः। तिरत। पुष्यसे। नः ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 57; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसः कीदृशा भूत्वा किं कुर्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! यथाऽनवद्यासः शुचयः पावकाः मरुतश्चित्कृतेऽत्र रणन्त तथा यजत्रास्सन्तो यूयं सुमतिभिर्वाजेभिस्सह नः प्रावत नः पुष्यसे प्र तिरत ॥५॥

    पदार्थः

    (कृते) (चित्) अपि (अत्र) अस्मिन् संसारे (मरुतः) मनुष्याः (रणन्त) रमध्वम् (अनवद्यासः) अनिन्द्याः धर्माचाराः (शुचयः) पवित्राः (पावकाः) पवित्रकराः (प्र) (नः) अस्मान् (अवत) रक्षत (सुमतिभिः) उत्तमप्रज्ञैर्मनुष्यैः (यजत्राः) सङ्गन्तारः (प्र) (वाजेभिः) अन्नादिभिः (तिरत) निष्पादयत (पुष्यसे) पुष्टये (नः) अस्मान् ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। य आप्तवद्धार्मिकाः पवित्रा विद्वांसो भूत्वा सर्वे सर्वान् रक्षन्ति ते सर्वान् पुष्टान् सुखिनः कर्तुं शक्नुवन्ति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् जन कैसे होकर क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वान् जनो ! जैसे (अनवद्यासः) नहीं निन्दा करने योग्य और धर्म्माचरण से युक्त (शुचयः) पवित्र और (पावकाः) पवित्र करनेवाले (मरुतः) मनुष्य (चित्) भी (कृते) उत्तम कर्म्म में (अत्र) इस संसार में (रणन्त) रमें, वैसे (यजत्राः) मिलनेवाले हुए आप लोग (सुमतिभिः) उत्तम बुद्धिवाले मनुष्यों और (वाजेभिः) अन्न आदिकों के साथ (नः) हम लोगों की (प्र, अवत) रक्षा कीजिये और (नः) हम लोगों को (पुष्यसे) पुष्टि के लिये (प्र, तिरत) निष्पन्न कीजिये ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो यथार्थवक्ता, धार्मिक, पवित्र, विद्वान् होके सब सबकी रक्षा करते हैं, वे सब को पुष्ट और सुखी कर सकते हैं ॥५॥

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    विषय

    अध्यक्षों के कर्त्तव्य, उनको उत्तम २ उपदेश ।

    भावार्थ

    हे ( मरुतः ) विद्वान् और वीर जनो ! ( कृते चित् अत्र इस संसार में अपने किये कर्म और करने योग्य कर्त्तव्य में ही ( रणन्त ) सुख लाभ करो । आप लोग ( अनवद्यासः ) अनिन्दित उत्तम धर्म करने वाले, उत्तम कीर्त्तियुक्त ( शुचयः ) शुद्ध पविन आचारवान्, ईमानदार ( पावकाः ) अन्यों को भी पवित्र करने वाले होओ। हे ( यजत्राः) उत्तम संगति योग्य, ज्ञान मान देने वाले सज्जनो ! आप लोग ( सुमतिभिः ) उत्तम बुद्धियों और ज्ञानों से ( नः अवत) हमारी रक्षा करो। आप लोग ( वाजेभिः ) अन्नों से ( पुष्यसे ) हमें पुष्ट करने के लिये ( प्र तिरत ) बढ़ाओ ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः - २, ४ त्रिष्टुप्। १ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ५, ६, ७ निचृत्त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    कर्मशील बनो

    पदार्थ

    पदार्थ - हे (मरुतः) = वीर जनो ! (कृते चित् अत्र) = इस संसार में अपने किये कर्म और करने योग्य कर्त्तव्य में ही (रणन्त) = सुख लाभ करो। आप (अनवद्यासः) = अनिन्दित कर्म करनेवाले, (शुचय:) = शुद्ध आचारवान्, (पावका:) = पवित्र करनेवाले होओ। हे (यजत्राः) = संगति-योग्य ज्ञान, मान देनेवाले सज्जनो! आप (सुमतिभि:) = उत्तम ज्ञानों से (नः अवत) = हमारी रक्षा करो। आप लोग (वाजेभिः) = अन्नों से (पुण्यसे) = हमें पुष्ट करने के लिये (प्र तिरत) = बढ़ाओ।

    भावार्थ

    भावार्थ- विद्वान् जन उपदेश करें कि संसार में मनुष्य को कर्मशील बनना चाहिए। जो व्यक्ति अपने कर्त्तव्य कर्म को शुद्ध व ईमानदारी से करता है उसकी कीर्ति संसार में बढ़ती है तथा लोग उसका सम्मान करते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे यथार्थ वक्ते, धार्मिक, पवित्र, विद्वान होऊन, सर्वजण सर्वांचे रक्षण करतात ते सर्वांना पुष्ट करून सुखी व पुष्ट करू शकतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Maruts, irreproachable, pure and sanctifying powers of nature and humanity, heroic in action, in this yajnic order of positive action, abide in joy. O friendly powers of joint yajnic creativity, protect and promote us with love and good will and noble laws and policy in the company of noble people and, for the sake of good health and all round progress, lead us across the world of action to perfection.

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