ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 68/ मन्त्र 2
प्र वा॒मन्धां॑सि॒ मद्या॑न्यस्थु॒ररं॑ गन्तं ह॒विषो॑ वी॒तये॑ मे । ति॒रो अ॒र्यो हव॑नानि श्रु॒तं न॑: ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वा॒म् । अन्धां॑सि । मद्या॑नि । अ॒स्थुः॒ । अर॑म् । ग॒न्त॒म् । ह॒विषः॑ । वी॒तये॑ । मे॒ । ति॒रः । अ॒र्यः । हव॑नानि । श्रु॒तम् । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वामन्धांसि मद्यान्यस्थुररं गन्तं हविषो वीतये मे । तिरो अर्यो हवनानि श्रुतं न: ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । वाम् । अन्धांसि । मद्यानि । अस्थुः । अरम् । गन्तम् । हविषः । वीतये । मे । तिरः । अर्यः । हवनानि । श्रुतम् । नः ॥ ७.६८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 68; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे राजपुरुषाः ! भवन्तः (नः) अस्मद्वचनानि (श्रुतं) शृण्वन्तु अन्यच्च ये अस्माकं (अर्यः) शत्रवस्तेषां (हवनानि, तिरः) शक्तीस्तिरस्कृत्य (मे, हविषः) मम यज्ञस्य (वीतये) प्राप्त्यर्थम् (गन्तं) आगच्छन्तु (वां) युष्माकं (अन्धांसि, मद्यानि) मदकारकाणि वस्तूनि (अरं) सम्यक्प्रकारेण (प्रास्थुः) दूरीभवन्तु ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे राजपुरुषो ! (नः) हमारे वचनों को (श्रुतं) सुनो; (अर्यः) हमारे शत्रुओं की (हवनानि) शक्तियों को (तिरः) तिरस्कार करके (मे, हविषः) हमारे यज्ञों की (वीतये) प्राप्ति के लिये (गन्तं) आयें, (वां) तुम्हारे (अन्धांसि, मद्यानि) मद करनेवाले राजमद (प्र, अस्थुः, अरं) भले प्रकार दूर हों ॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे राजपुरुषो ! तुम्हारा परम कर्त्तव्य है कि तुम राजपद त्यागकर प्रजा के धार्मिक यज्ञों में सम्मिलित होओ और धार्मिक प्रजा का विरोधी जो शत्रुदल है, उसका सदैव तिरस्कार करते रहो, ताकि यज्ञादि धार्मिक कार्यो में विघ्न न हो, अथवा राजा को चाहिये कि वह मादक पदार्थों के अधीन होकर कोई प्रमाद न करे और अपने राजपद को सर्वथा त्याग कर प्रेमभाव से प्रजा के साथ व्यवहार करे। वेदवेत्ता याज्ञिकों को चाहिये कि वह राजपुरुषों को सदैव यह उपदेश करते रहें ॥२॥
विषय
शिष्यशिष्याओं के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे विद्वान्, स्त्री पुरुषो ! ( वां ) आप दोनों को ( मघानि ), उत्तम आनन्द देने वाले ( अन्धांसि ) जीवन धारण कराने वाले उत्तम अन्न ( प्र अस्थुः ) आपके लिये अच्छी प्रकार रक्खे हैं आप दोनों (मे) मेरे ( हविषः ) उत्तम अन्न को ( वीतये ) खाने के लिये ( अरं गन्तं ) अवश्य आइये । ( अर्यः ) शत्रु के ( हवनानि ) आह्वानों को ( तिरः ) तिरस्कार करके ( नः हवनानि ) हमारे उत्तम वचनों को ( श्रुतं ) श्रवण करो। इस प्रकार उत्तम स्त्री पुरुषों का भोजन, वचनादि से सत्कार करना चाहिये ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, ६, ८ साम्नी त्रिष्टुप् । २, ३, ५ साम्नी निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ७ साम्नी भुरिगासुरी विराट् त्रिष्टुप् । निचृत् त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूकम्॥
विषय
सात्त्विक भोजन
पदार्थ
पदार्थ- हे विद्वान्, स्त्री पुरुषो! (वां) = आप दोनों के लिये (मद्यानि) = आनन्दप्रद (अन्धांसि) = जीवनधारक उत्तम अन्न (प्र अस्थुः) = अच्छी प्रकार रक्खे हैं आप दोनों (मे) = मेरे (हविषः) = उत्तम अन्न को (वीतये) = खाने के लिये (अरं गन्तं) = अवश्य आइये । (अर्यः) = शत्रु के (हवनानि) = आह्वानों को (तिरः) = तिरस्कार करके (नः हवनानि) = हमारे उत्तम वचनों को (श्रुतं) श्रवण करो ।
भावार्थ
भावार्थ - विद्वान् स्त्री-पुरुष सदैव सात्त्विक अन्न का ही ग्रहण करें, दुष्ट लोगों के आग्रह को कभी भी स्वीकार न करें। और विद्वानों के उत्तम वचनों को सुनें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Delightful delicacies are here laid out for you. Come straight to partake of our holy offerings. Throw off the enemies, root out distress, listen to our call and prayers.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो, की हे राजपुरुषांनो! हे तुमचे परम कर्तव्य आहे, की तुम्ही राजपदाचा त्याग करून प्रजेच्या धार्मिक यज्ञात सम्मिलित व्हा व धार्मिक प्रजेच्या विरोधी जे शत्रूदल आहे त्याचा सदैव तिरस्कार करा. त्यामुळे यज्ञ इत्यादी धार्मिक कार्यात विघ्न येता कामा नये. राजाने मादक द्रव्याच्या अधीन होऊन प्रमाद करता कामा नये व आपल्या राजमदाचा त्याग करून प्रेमाने प्रजेबरोबर व्यवहार करावा. वेदवेत्ता याज्ञिकांनी राजपुरुषांना सदैव उपदेश करावा. ॥२॥
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