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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 68/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृदार्चीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒त त्यद्वां॑ जुर॒ते अ॑श्विना भू॒च्च्यवा॑नाय प्र॒तीत्यं॑ हवि॒र्दे । अधि॒ यद्वर्प॑ इ॒तऊ॑ति ध॒त्थः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । त्यत् । वा॒म् । जु॒र॒ते । आ॒श्वि॒ना॒ । भू॒त् । च्यवा॑नाय । प्र॒तीत्य॑म् । ह॒विः॒ऽदे । अधि॑ । यत् । वर्पः॑ । इ॒तःऽऊ॑ति । ध॒त्थः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत त्यद्वां जुरते अश्विना भूच्च्यवानाय प्रतीत्यं हविर्दे । अधि यद्वर्प इतऊति धत्थः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । त्यत् । वाम् । जुरते । आश्विना । भूत् । च्यवानाय । प्रतीत्यम् । हविःऽदे । अधि । यत् । वर्पः । इतःऽऊति । धत्थः ॥ ७.६८.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 68; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अश्विना) हे राजपुरुषाः ! (वां) युष्माकं (जुरते) उत्साहाय (च्यवानाय) देशान्तरगमनाय (उत)(प्रतीत्यं) प्रतिदिनं (हविर्दे) हविर्दातारः स्मः। (यत्) यतः (त्यत्) भवतां कल्याणम् अखिलप्राणिनां सुखञ्च (भूत्) स्यात् अन्यच्च यूयं  (वर्पः) सुरूपान् (धत्थः) धारयत, यस्माद्धेतोः (अधि) सर्वतः (इतः) प्रजानां (ऊति) रक्षा स्यात् ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अश्विना) हे राजपुरुषो ! (वां) तुम्हारे (जुरते) उत्साह के (उत) और (च्यवानाय) देशान्तर में गमन के लिये (प्रतीत्यं) प्रतिदिन (हविः, दे) हवि देते हैं, (यत्) जिससे (त्यत्) तुम्हारा कल्याण हो, सब प्राणियों को सुख (भूत्) हो और तुम (वर्पः, धत्थः) उस नूतन रूप को धारण करो, जिससे (इतः) प्रजा की (अधि, ऊति) सब ओर से रक्षा हो ॥६॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे न्यायाधीश तथा सेनाधीश राजपुरुषो ! तुम्हारे याज्ञिक लोग तुम्हारी उन्नति तथा प्रजा के कल्याणार्थ प्रतिदिन यज्ञ करें, जिससे तुम्हारा शुभ हो और तुम वैदिक कर्मों द्वारा बलयुक्त शत्रुओं पर चढ़ाई के लिये सदा सन्नद्ध रहो, जिससे प्रजा की रक्षा हो। तात्पर्य्य यह है कि जो राजा लोग अपने दर्शपौर्णमास अथवा होली दिवाली आदि ऋतुयज्ञों में अपनी सेना को सदा उत्तेजित करते हुए युद्ध के लिये सन्नद्ध रहते हैं, वे राजा प्रजा की रक्षा में समर्थ होते हैं ॥६॥

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    विषय

    शिष्यशिष्याओं के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) उत्तम वेगवान् रथों, यन्त्रों के स्वामी स्त्री पुरुषो ! आप लोग ( हविर्दे) उत्तम अन्न, भूति और उत्तम साधनों के देने वाले ( जुरते ) वृद्ध, मान्य ( च्यवानाय ) जाने को उद्यत पुरुष के हितार्थं ( प्रतीत्यम् ) प्रत्येक देश में पहुंचने योग्य ( इतः-ऊति) इधर उधर से रक्षायुक्त, ( वर्पः ) उत्तम रूपयुक्त स्थादि ( अधि धत्थः ) प्रदान करते रहो ( वां त्यत् ) आप दोनों का वही ( प्रतीत्यं भूत् ) प्रसिद्धि कर कर्म है । ( २ ) उत्तम जितेन्द्रिय शिष्य शिष्याएं वृद्ध गुरुजनों के हितार्थ इस लोक में रक्षाकारी सन्ततिमय रूप को धारण करते हैं वही उनका उत्तम कर्म है । ( ३ ) विद्वान् शिल्पी जन वृद्धादि, गमनोत्सुक, भाड़ा देने के लिये वेग से जाने वाले रथादि को बनाते हैं। अध्यात्म में— 'जुरत् च्यवान' यह देह है । अन्न से प्राणों में बल देता है, उसको ये प्राण अपान ही उत्तम रूप और कान्ति धारण कराते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, ६, ८ साम्नी त्रिष्टुप् । २, ३, ५ साम्नी निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ७ साम्नी भुरिगासुरी विराट् त्रिष्टुप् । निचृत् त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूकम्॥

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    विषय

    रक्षायुक्त रथ

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (अश्विना) = वेगवान् रथों, यन्त्रों के स्वामी स्त्री-पुरुषो! आप लोग (हविर्दे) = अन्न, भूमि और उत्तम साधनों के दाता (जुरते) = वृद्ध, मान्य च्यवानाय जाने को उद्यत पुरुष हितार्थ (प्रतीत्यम्) = प्रत्येक देश में पहुँचने योग्य (इत: ऊति) = इधर-उधर से रक्षायुक्त, (वर्पः) = उत्तम रूपयुक्त रथादि (अधि धत्थः) = प्रदान करते रहो। (वां त्यत्) = आप दोनों का वही (प्रतीत्यं भूत्) = प्रसिद्धकर कर्म है।

    भावार्थ

    भावार्थ - जो यन्त्रों व रथों वाहनों के स्वामी हैं वे देश-विदेश आने-जाने के लिए यात्रियों व व्यापारियों को समय पर वाहन उपलब्ध करावें तथा उन वाहनों व यात्रियों की सुरक्षा व्यवस्था भी करें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And let that insight, incentive and experiment of your help for people in need be for the weak and elderly, for those on the move such as the deprived, the fallen, uprooted and refugees, and let it be for those who give in charity for the sake of charity. That is the philanthropic role you take on for the protection of people.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो, की हे न्यायधीश व सभाधीश राजपुरुषांनो! तुमच्या याज्ञिकांनी तुमच्या उन्नतीसाठी व प्रजेच्या कल्याणासाठी प्रत्येक दिवशी यज्ञ करावा. ज्यामुळे तुमचे भले व्हावे. तुम्ही वैदिक कर्माद्वारे बलवान बनून शत्रूवर चढाई करून सदैव तयार राहा. ज्यामुळे प्रजेचे रक्षण व्हावे.

    टिप्पणी

    तात्पर्य हे, की जे राजे लोक दर्श पौर्णमासी किंवा होळी-दिवाळी इत्यादी ऋतूत यज्ञामध्ये आपल्या सेनेला सदैव उत्तेजित करीत युद्धासाठी तयार असतात तेच राजे प्रजेच्या रक्षणात समर्थ असतात. ॥६॥

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