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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 88 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 88/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वरुणः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अधा॒ न्व॑स्य सं॒दृशं॑ जग॒न्वान॒ग्नेरनी॑कं॒ वरु॑णस्य मंसि । स्व१॒॑र्यदश्म॑न्नधि॒पा उ॒ अन्धो॒ऽभि मा॒ वपु॑र्दृ॒शये॑ निनीयात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑ । नु । अ॒स्य॒ । स॒म्ऽदृश॑म् । ज॒ग॒न्वान् । अ॒ग्नेः । अनी॑कम् । वरु॑णस्य । मं॒सि॒ । स्वः॑ । यत् । अश्म॑न् । अ॒धि॒ऽपाः । ऊँ॒ इति॑ । अन्धः॑ । अ॒भि । मा॒ । वपुः॑ । दृ॒शये॑ । नि॒नी॒या॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधा न्वस्य संदृशं जगन्वानग्नेरनीकं वरुणस्य मंसि । स्व१र्यदश्मन्नधिपा उ अन्धोऽभि मा वपुर्दृशये निनीयात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध । नु । अस्य । सम्ऽदृशम् । जगन्वान् । अग्नेः । अनीकम् । वरुणस्य । मंसि । स्वः । यत् । अश्मन् । अधिऽपाः । ऊँ इति । अन्धः । अभि । मा । वपुः । दृशये । निनीयात् ॥ ७.८८.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 88; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अध) अधुना (नु) सत्वरं (अस्य) पूर्वोक्तपरमात्मनः (संदृशम्) साक्षात्कारं (जगन्वान्) अनुभवन् (वरुणस्य,अग्नेः) ज्ञानस्वरूपपरमात्मनः (अनीकम्) स्वरूपं (मंसि) लभे (अश्मन्) हे सर्वग परमात्मन् ! (अधिपाः) सर्वस्येश्वर ! (अन्धः) अखिलजगदधिष्ठान ! (ऊम्) तथा (यत्, स्वः) यद्भवत आनन्दस्वरूपं तत् (मा) मम (अभि) सम्यक् (वपुः) स्वरूपं (दृशये) प्रत्यक्षं (निनीयात्) कारय ॥२॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (अध) अब (नु) शीघ्र (अस्य) उक्त परमात्मा के (संदृशम्) साक्षात्कार को (जगन्वान्) अनुभव करता हुआ (वरुणस्य, अग्नेः) ज्ञानस्वरूप परमात्मा के (अनीकम्) स्वरूप को (मंसि) प्राप्त करता हूँ, (अश्मन्) अश्नुते व्याप्नोति सर्वमिति अश्मा परमात्मा, जो व्यापक परमात्मा है, उसका नाम यहाँ अश्मा है, हे परमात्मन् ! (अधिपाः) सबके स्वामिन् ! (अन्धः) सर्वाधिष्ठान (ऊम्) और (यत्, स्वः) जो आपका आनन्दस्वरूप है, वह (मा) मुझको (अभि) भलीभाँति (वपुः) उस स्वरूप की (दृशये) प्राप्ति के (निनीयात्) योग्य बनायें ॥२॥

    भावार्थ

    हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन् ! आप मेरी चितवृत्ति को निर्मल करके अपने स्वरूपप्राप्ति के योग्य बनायें ॥२॥

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    विषय

    श्लेष से अन्नवत् प्रभु का वर्णन ।

    भावार्थ

    (अध नु) और मैं (अस्थ) इस ( अग्नेः ) तेजोमय ( वरुणस्य ) सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर के विषय में ( जगन्वान् ) ज्ञान प्राप्त कर और उसकी शरण में प्राप्त होकर उसके ( सं-दृशम् ) सम्यक् दर्शन रूप ( अनीकं ) तेज को ( मंसि ) मनन करता हूं । ( यद् ) जिस प्रकार (अश्मन् अन्धः वपुः दृशये निनीयात् ) पत्थर या शिला, चक्की आदि में पिसा अन्न या कुटी औषधि, या ( अश्मन् अन्धः ) मेघ के आधार पर उत्पन्न अन्न शरीर को उत्तम दर्शन योग्य बना देते हैं उसी प्रकार ( यत् ) जो ( अधिपाः ) सर्वोपरिपालक (स्वः) सुखकारी वा सूर्यवत् तेजस्वी है वह ( अन्धः ) अन्नवत् प्राणों का धारक होकर ( दृशये ) साक्षात् करने के लिये ( मा ) मुझे ( वपुः ) उत्तम रूप, शरीर आदि ( निनीयात् ) प्राप्त कराता है । अर्थात् प्रभु हमें शरीर भी इसीलिये देता है कि हम उससे साधना करके भगवान् सुखमय, प्राणप्रद रूप को प्राप्त करने की साधना करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ वरुणो देवता ॥ छन्दः – १, २, ३, ६ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ५, ७ विराट् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    ईश-तेज का मनन

    पदार्थ

    पदार्थ- (अध नु) = और मैं (अस्य) = इस (अग्ने:) = तेजोमय (वरुणस्य) = परमेश्वर के विषय में (जगन्वान्) = ज्ञान प्राप्त कर और उसकी शरण जाकर उसके (सं-दृशम्) = सम्यक्-दर्शन-योग्य (अनीकं) = तेज का (मंसि) = मनन करता हूँ। (यद्) = जैसे (अश्मन् अन्धः वपुः दृशये निनीयात्) = चक्की आदि में पीसा अन्न या कुटी ओषधि, या (अश्मन् अन्ध:) = मेघ के आधार पर उत्पन्न अन्न शरीर को उत्तम, दर्शन योग्य बनाता है वैसे ही (यत्) = जो (अधिपाः) = सर्वोपरिपालक (स्वः) = सुखकारी है वह (अन्धः) = अन्नवत् प्राणों का धारक होकर (दृशये) = साक्षात् करने के लिये (मा) = मुझे (वपुः) = रूप, शरीर आदि (निनीयात् प्राप्त) = कराता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- उपासक जन ईश्वर के प्रति समर्पण करके सदैव उसके तेजोमय स्वरूप का दिग्दर्शन करें और उसी का मनन किया करें क्योंकि यह अन्नमय शरीर परमेश्वर ने इसी निमित्त दिया है।

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    मन्त्रार्थ

    (अधा नु) अब तो (अस्य) इस वरुण परमात्मा की (सन्दृशं जगन्वान्) झांकी को मैंने पालिया जब (अग्नेः-अनीकं वरुणस्य मंसि) मैं अग्नि अनिमात्र विद्युत्-सूर्य की अग्नि के भी बल-तेज प्रकाश को वरुण परमात्मा का मान लिया-जान लिया "तस्य भासा सर्वमिदं विभाति” (कठोप० ५।१५) (यत्) जब (अश्मन्-अन्धः-अधिया:-उ) शिला पर दिसा सोमरूप है । उसके खूब पान कर्त्ता की भाँति 'यहाँ उपमालङ्कार' है या "उ" उपमार्थ छान्दस है । "अन्धसस्पते सोमस्य पते" (शत० १।१।१।२४) मेरे अभ्यासरूप शिला पर उपासनारूप तथा जप और अर्थभावनारूप पिसे घुटे सोम का खूब पान कर चुके वरुण परमात्मा (स्वः-वपुः) रमण करने वाले रूप-स्वाधीन सुखस्वरूप को "वपु: -रूपम्" (नि० ३।७) ( दृशये-मा-अभि निनीयात्) दिखाने के लिए मुझे अपनी ओर लेता है-प्रालिङ्गित करता है ॥२॥

    विशेष

    ऋषिः—वसिष्ठः (उपासक पूर्ववत्) देवता-वरुणः (परमात्मा पूर्ववत्)

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Meditating on the blissful presence of Varuna, lord of light and wisdom, when I feel the flames of fire and divine exhilaration, then, I pray, the lord of bliss and sovereign of the world may reveal to me his divine presence as it is so that I may experience it in the inner being and live the ecstasy of life divine.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे ज्ञानस्वरूप परमात्मा! तू माझ्या चित्तवृत्ती निर्मल करून तुझ्या स्वरूपप्राप्तीसाठी योग्य बनव. ॥२॥

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