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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 88 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 88/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वरुणः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ध्रु॒वासु॑ त्वा॒सु क्षि॒तिषु॑ क्षि॒यन्तो॒ व्य१॒॑स्मत्पाशं॒ वरु॑णो मुमोचत् । अवो॑ वन्वा॒ना अदि॑तेरु॒पस्था॑द्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ध्रु॒वासु॑ । त्वा॒ । आ॒सु । क्षि॒तिषु॑ । क्षि॒यन्तः॑ । वि । अ॒स्मत् । पाश॑म् । वरु॑णः । मु॒मो॒च॒त् । अवः॑ । व॒न्वा॒नाः । अदि॑तेः । उ॒पऽस्था॑त् । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ध्रुवासु त्वासु क्षितिषु क्षियन्तो व्य१स्मत्पाशं वरुणो मुमोचत् । अवो वन्वाना अदितेरुपस्थाद्यूयं पात स्वस्तिभि: सदा नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ध्रुवासु । त्वा । आसु । क्षितिषु । क्षियन्तः । वि । अस्मत् । पाशम् । वरुणः । मुमोचत् । अवः । वन्वानाः । अदितेः । उपऽस्थात् । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभिः । सदा । नः ॥ ७.८८.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 88; मन्त्र » 7
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 7
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ध्रुवासु, त्वासु, क्षितिषु) अस्यां नित्यायां दृढायां च पृथिव्यां (क्षियन्तः) निवसतां (वन्वानाः) भजमानानां (अस्मत्पाशम्) अस्माकं पाशं (वरुण) हे भगवन् ! (वि) निश्चयं (मुमोचत्) मुञ्च (अदितेः) अस्मिन्नखण्डमातृभूमिस्थले (उपस्थात्) निवसतामस्माकं (अवः) रक्षां कुरु तथा च (यूयम्) भवान् (स्वस्तिभिः) कल्याणवाग्भिः (सदा) शश्वत् (नः) अस्मान् (पात) रक्षतु ॥७॥ इत्यष्टाशीतितमं सूक्तं दशमो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (ध्रुवासु, त्वासु, क्षितिषु) इस दृढ़ और नित्य पृथिवी में (क्षियन्तः) निवास करते हुए (अस्मत्पाशं) हम लोगों के बन्धनों को (वरुण) हे सर्वपूज्य परमात्मा ! (वि) अवश्य (मुमोचत्) मुक्त करें, (अदितेः) इस अखण्डनीय मातृभूमि के (उपस्थात्) अङ्क में रहते हुए हम लोगों की (अवः) आप रक्षा करें और विद्वान् लोगों से हम सदैव (वन्वानाः) भजन करते हुए यह प्रार्थना करें कि (यूयं) आप लोग सदा सदैव (स्वस्तिभिः) कल्याणप्रद वाणियों से (नः) हमारी (पात) रक्षा करें ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में जो पृथिवी को नित्य कथन किया है, इससे यह तात्पर्य्य है कि यह संसार मिथ्या नहीं, क्योंकि ध्रुव पदार्थ मिथ्या नहीं होता, किन्तु दृढ़ होता है ॥७॥ यह ८८वाँ सूक्त और १०वाँ वर्ग समाप्त हुआ।

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    विषय

    कर्मबन्धन को काटने हारा प्रभु । कर्म-बन्धन के छेदन का प्रकार ।

    भावार्थ

    परमेश्वर जीवों के कर्म बन्धन किस प्रकार काटता है ? हम लोग ( आसु ध्रुवासु क्षितिषु ) इन नाना धारण करने योग्य, सुव्यवस्थित, कर्म और भोग-भूमियों में ( क्षियन्तः ) निवास करते हुए वा ( क्षियन्तः ) ऐश्वर्ययुक्त वाहते हुए कभी ऊर्ध्वगति और कभी नीच गति प्राप्त करते हुए, ( अदितेः उपस्थात् ) भूमि से जिस प्रकार ( अवः वन्वानाः ) तृप्तिकारक अन्न प्राप्त करते हैं और जिस प्रकार ( अदितेः उपस्थात् अवः अन्वानाः ) सूर्य से कान्ति दीप्ति प्राप्त करते हैं उसी प्रकार ( अदितेः ) अखण्ड स्वरूप परमेश्वर से हम ( अवः ) परम रक्षा, सुख, प्रेम ( वन्वाना: ) प्राप्त करते रहें। तब वह ( वरुणः ) सर्वश्रेष्ठ प्रभु ( अस्मत् पाशं ) हम से उस पाश को ( वि मुमोचत् ) छुड़ाता है। ( नः यूयं सदा स्वस्तिभिः पात ) हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग हमारी सदा उत्तम सत् उपायों से रक्षा किया करो । इति दशमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ वरुणो देवता ॥ छन्दः – १, २, ३, ६ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ५, ७ विराट् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    परमेश्वर जीवों के कर्म बन्धन काटता है

    पदार्थ

    पदार्थ- परमेश्वर जीवों के कर्म-बन्धन किस प्रकार काटता है? हम लोग (आसु ध्रुवासु क्षितिषु) = इन धारने योग्य, कर्म और भोग-भूमियों में (क्षियन्तः) = निवास करते हुए वा ऐश्वर्ययुक्त, वा क्षीण होते हुए, कभी ऊर्ध्वगति, कभी नीच गति प्राप्त करते हुए, (अदितेः उपस्थात्) = भूमि से (अव: वन्वाना:) = तृप्तिकारक अन्न प्राप्त करते हैं और जैसे (अदितेः उपस्थात् अवः अन्वानाः) = सूर्य से दीप्ति प्राप्त करते हैं वैसे ही (अदितेः) = अखण्ड परमेश्वर से हम (अव:) = रक्षा सुख, प्रेम (वन्वाना:) = प्राप्त करते रहें। वह (वरुणः) = प्रभु (अस्मत् पाशं) = हम से पाश को (वि मुमोचत्) = छुड़ाता है। हे विद्वान् पुरुषो! (नः यूयं सदा स्वस्तिभिः पात) = आप लोग हमारी सदा उत्तम उपायों से रक्षा करो।

    भावार्थ

    भावार्थ-जीव कर्म के अनुसार भोग व भूमियों को भोगता हुआ ऊँची व नीची योनियों में जाता है। । दुःख और सुख को भोगता है। किन्तु जब वह परमेश्वर की रक्षा व प्रेम का अनुभव करने लगता है तो ईश्वर उसको कर्म पाश-बन्धन से मुक्त कर देता है। आगामी सूक्त का ऋषि वसिष्ठ व देवता वरुण है।

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    मन्त्रार्थ

    (आसु ध्रुवासु क्षितिषु क्षियन्तः) इन निचली भूमियोंस्थितियों में “क्षितिः पृथिवीनाम" (निघं• १।१) रहते हुए हम (त्वा) तुझ स्तुति योग्य की स्तुति करते हैं (वरुणः-अस्मत् पाशं विमुमोचत्) आप वरुण परमात्मा हम से इस पाश को हटा दो जिसके कारण भिन्न भिन्न नीच स्थितियों में हम पडे हैं (दितेः-उपस्थात्) आप अखण्ड सुखसम्पत्ति मुक्ति के उपस्थ-पीठ-आश्रम-आधार हैं "उपस्थे-उपस्थाने (निघं० ७|२६) (अवस-चन्वानाः) आपसे रक्षा की याचना करते हुए "वनु याचने" (तनादि०) मुक्ति को प्राप्त करें । अतः (यूयं स्वस्तिभिः सदा नः पात) तुम अपनी कृपाओं से हमारी पालना करो ॥७॥

    टिप्पणी

    'स्तुम इति सायणः' ।

    विशेष

    ऋषिः—वसिष्ठः (उपासक पूर्ववत्) देवता-वरुणः (परमात्मा पूर्ववत्)

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Living in these settled homes in these peaceful lands of mother earth, we pray, may Varuna release us from the bonds of sin and sinful existence. Enjoying peace and protection received from the lap of inviolable earth and mother Infinity, O saints and sages, protect and promote us with all modes of peace and well being always without relent.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात पृथ्वीला नित्य म्हटले आहे. तात्पर्य हे, की जग मिथ्या नाही. कारण दृढ पदार्थ मिथ्या नसतो, तर तो दृढ असतो. ॥७॥

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