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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 88 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 88/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वरुणः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वसि॑ष्ठं ह॒ वरु॑णो ना॒व्याधा॒दृषिं॑ चकार॒ स्वपा॒ महो॑भिः । स्तो॒तारं॒ विप्र॑: सुदिन॒त्वे अह्नां॒ यान्नु द्याव॑स्त॒तन॒न्यादु॒षास॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वसि॑ष्ठम् । ह॒ । वरु॑णः । ना॒वि । आ । अ॒धा॒त् । ऋषि॑म् । च॒का॒र॒ । सु॒ऽअपाः॑ । महः॑ऽभिः । स्तो॒तार॑म् । विप्रः॑ । सु॒दि॒न॒ऽत्वे । अह्वा॑म् । यात् । नु । द्यावः॑ । त॒तन॑न् । यात् । उ॒षसः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वसिष्ठं ह वरुणो नाव्याधादृषिं चकार स्वपा महोभिः । स्तोतारं विप्र: सुदिनत्वे अह्नां यान्नु द्यावस्ततनन्यादुषास: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वसिष्ठम् । ह । वरुणः । नावि । आ । अधात् । ऋषिम् । चकार । सुऽअपाः । महःऽभिः । स्तोतारम् । विप्रः । सुदिनऽत्वे । अह्वाम् । यात् । नु । द्यावः । ततनन् । यात् । उषसः ॥ ७.८८.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 88; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वसिष्ठम्) उत्तमगुणविशिष्टं विद्वांसं (ह) खलु (वरुणः) सर्वपूज्यः परमात्मा (नावि) कर्म्मरूपायां नौकायां (आ, अधात्) आरोपयत् (महोभिः) उत्तमैः साधनैः तं वसिष्ठं (ऋषिम्) मन्त्रद्रष्टारं चकार तथा (स्वपाः) सुकर्माणं चकार (विप्रः) मेधावी वरुणः तं (स्तोतारम्) स्तुतिकर्तारं चकार (अह्नाम्) दिवसानां मध्ये (सुदिनत्वे) शोभने दिने तमस्थापयत् अन्यच्च (द्यावः) दिवसान् (यात्) गच्छतः तथा (उषसः) प्रकाशान् (यात्) गच्छतः (ततनन्) विस्तारयन् सन् तं वसिष्ठं ऋषिं करोतीति शेषः ॥४॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (वरुणः) सर्वपूज्य परमात्मा (वसिष्ठं) उत्तमगुणवाले विद्वान् को (नावि) कर्मों के आधार पर (आधात्) स्थिर करता है, (ह) निश्चय करके (ऋषिं) ऋषि (चकार) बनाता है और (महोभिः) उत्तम साधनों द्वारा (स्वपाः) सुन्दर कर्मोंवाला बनाता है, (विप्रः) मेधावी परमात्मा (स्तोतारं) स्तुति करनेवाला बनाता है और (अह्नां) उक्त विद्वान् के दिनों को (सुदिनत्वे) अच्छे दिनों में परिणत करता है तथा (उषसः) प्रातःकाल के प्रकाशों को और (द्यावः) दिन के प्रकाश को (नु) अच्छी तरह (यात्) प्राप्त करता हुआ (ततनन्) विस्तार करता है ॥४॥

    भावार्थ

    परमात्मा जिस पुरुष के शुभ कर्म देखता है, उसको उत्तम विद्वान् बनाता है और कर्मानुसार ही परमात्मा ऋषि, विप्र, ब्राह्मणादि पदवियें प्रदान करता है। इस मन्त्र में वर्णव्यवस्था भी गुणकर्मानुसार कथन की गई है, यही भाव “तमेव ऋषिं तमु ब्रह्माणं” ॥ ऋग् अ० ८ अ० ६ व० ४ ॥ “तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्” ॥ ऋ० ८।७।११।४॥ इत्यादि मन्त्रों में भी कर्मानुसार परमात्मा की कामना से ही ब्राह्मणादि पदवियें प्राप्त होती हैं, यही भाव है। उपनिषद् में भी कर्मानुसार ही ऊँच-नीच व्यवस्था कथन की है। जैसा कि “एष एव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते, एष एवासाधु कर्म कारयति तं यमधो निनीषते” ॥कौ० ३।८॥ परमात्मा कर्मों द्वारा ही ऊँच-नीच अवस्था को प्राप्त कराता है, यही व्यवस्था उक्त मन्त्र में कथन की है ॥४॥

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    विषय

    वाणी रूप प्रभु का निष्ठ भक्त को तारना । शिष्य के लिये तीर्थ गुरु किस प्रकार है ।

    भावार्थ

    ( वरुणः ) वरण करने योग्य आचार्य ( वसिष्ठं ) अधीन, वस कर ब्रह्मचर्य पालन करने वाले, उत्तम शिष्य को ( नावि ) ज्ञान सागर से पार उतारने वाली वेदमयी वाणी रूप नौका के बीच में ( ह ) अवश्य ही (आधात्) स्थापित करे । वह स्वयं ( स्वपाः ) उत्तम कर्मशील, सदाचारी होकर ( महोभिः ) बड़े २ गुणों से ( वसिष्ठं ऋषिं चकार ) उत्तम ब्रह्मचारी को वेद मन्त्रार्थों को यथार्थ रूप में देखने में समर्थ विद्वान् बना देवे । ( विप्रः ) विविध विद्याओं से शिष्य को पूर्ण करने वाला आचार्य (अन्हां सु-दिनत्वे ) दिनों को शुभ, मङ्गलकारी बनाने के लिये ( यात् द्यावा नु यात् उषसः नु ) आये दिनों और आयी रातों में भी ( स्तोतारं ततनन् ) अध्ययनशील शिष्य को और अधिक विस्तृतज्ञानवान् करता रहे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ वरुणो देवता ॥ छन्दः – १, २, ३, ६ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ५, ७ विराट् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    वेदवाणी रूप नौका

    पदार्थ

    पदार्थ- (वरुणः) = वरणीय आचार्य के (वसिष्ठं) = अधीन वस कर ब्रह्मचारी शिष्य को (नावि) = ज्ञानसागर से पार उतारनेवाली वेदवाणी रूप नौका में (ह) = अवश्य (आधात्) = स्थापित करे। वह स्वयं (स्वपाः) = कर्मशील होकर (महोभिः) = बड़े-बड़े गुणों से (वसिष्ठं ऋषिं चकार) = उत्तम ब्रह्मचारी को वेद-मन्त्रार्थों को यथार्थ देखने में विद्वान् बनावे । (विप्रः) = विद्याओं से शिष्य को पूर्ण करनेवाला आचार्य (अन्हां सू-दिनत्वे) = दिनों को शुभ बनाने के लिये (यात् द्यावा नु यात् उषसः नु) = आये दिनों और आयी रातों में भी (स्तोतारं ततनन्) = अध्ययनशील शिष्य को विस्तृत ज्ञानवान् करे।

    भावार्थ

    भावार्थ- विद्वान् आचार्य अपने ब्रह्मचारी शिष्यों को दिन-रात अध्ययन कार्य में जुटे रहकर तप करने की प्रेरणा करे। वह गुरु उत्तम उपदेश करके संसार सागर से पार उतरने की नौका के रूप में वेद ज्ञान प्रदान करके शिष्य को पूर्ण ज्ञानवान् बनावे।

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    मन्त्रार्थ

    (वरुणः) वरने योग्य, वरने वाला परमात्मा (ह) आश्चर्य (वसिष्ठम्) अपने अन्दर अत्यन्त वसने वाले उपासक को (नावि-आधात्) मुक्तिरूप नौका में अपने साथ बिठा लियालेता है (स्वपा:-विप्रः) सुकर्मा जगदुपपत्ति और जीवों के कर्मफल प्रदानकर्म का यथार्थ कर्त्ता सर्वज्ञ परमात्मा (स्तोतारं महोभिः-ऋषिं चकार) अपने स्तोता को महत्वपूर्ण गुणों से संसार में ऋषि बना देता है तथा (अह्नां खुदिनत्वे) उपासक की आयु के दिनों का सुदिनत्य लाने के निमित्त (द्यावः-ततनन्-नु-यात्) दिनों की तानता हुआ "द्यः-अहर्नाम" (निघं० १।८) (उषासः-यात्) रात्रियों को तानता हुआ "रात्रिर्वा उषाः" (तै० ३।८।१६।४) वस्त्र में तानेवाने के समान विस्तृत करता हुआ लम्बी आयु करता है 'यात्-अन्तर्गत णिजर्थः' ॥४॥

    विशेष

    ऋषिः—वसिष्ठः (उपासक पूर्ववत्) देवता-वरुणः (परमात्मा पूर्ववत्)

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Varuna, lord of love and omniscience, helps the man of vision and enlightenment to rise to the plane of bliss and salvation with great good actions, leads the dedicated celebrant through the holy light of his days of meditative actions to the dawn of light divine, and extends the dawn to the continuous light of a heaven of infinite bliss.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा ज्या माणसाचे शुभकर्म पाहतो त्याला उत्तम विद्वान करतो व कर्मानुसार परमात्मा ऋषी, विप्र, ब्राह्मण इत्यादी पदव्या प्रदान करतो. या मंत्रात वर्णव्यवस्था ही गुणकर्मानुसार कथन केलेली आहे. हाच भाव ‘तमेव ऋषि तमु ब्राह्मण’ ऋग्. अ ८अ६ व. ४ ॥ तं ब्रह्माणं तमृर्षि तं सुमेधाम्’ ऋ. ८/७/११/५ इत्यादी मंत्रांतही कर्मानुसार परमात्म्याच्या कामनेनेच ब्राह्मण इत्यादी पदव्या प्राप्त होतात. हाच भाव आहे. उपनिषदातही कर्मानुसारच उच्च-नीच व्यवस्था सांगितलेली आहे. जसे ‘एष एव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते, एष मेवासाधु कर्म कारयति तं यमधो निनीषते’ कौ. ३।८॥ परमात्मा कर्माद्वारेच उच्च-नीच अवस्था प्राप्त करवितो. हीच बाब वरील मंत्राद्वारे निदर्शनास आणलेली आहे. ॥४॥

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