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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 88 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 88/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वरुणः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    य आ॒पिर्नित्यो॑ वरुण प्रि॒यः सन्त्वामागां॑सि कृ॒णव॒त्सखा॑ ते । मा त॒ एन॑स्वन्तो यक्षिन्भुजेम य॒न्धि ष्मा॒ विप्र॑: स्तुव॒ते वरू॑थम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । आ॒पिः । नित्यः॑ । व॒रु॒ण॒ । प्रि॒यः । सन् । त्वाम् । आगां॑सि । कृ॒णव॑त् । सखा॑ । ते॒ । मा । ते॒ । एन॑स्वन्तः । य॒क्षि॒न् । भु॒जे॒म॒ । य॒न्धि । स्म॒ । विप्रः॑ । स्तु॒व॒ते । वरू॑थम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य आपिर्नित्यो वरुण प्रियः सन्त्वामागांसि कृणवत्सखा ते । मा त एनस्वन्तो यक्षिन्भुजेम यन्धि ष्मा विप्र: स्तुवते वरूथम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । आपिः । नित्यः । वरुण । प्रियः । सन् । त्वाम् । आगांसि । कृणवत् । सखा । ते । मा । ते । एनस्वन्तः । यक्षिन् । भुजेम । यन्धि । स्म । विप्रः । स्तुवते । वरूथम् ॥ ७.८८.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 88; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 6
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वरुण) परमात्मन् ! (ते) तव (प्रियः, सन्) कृतसेवो भवन् (यः) यो नरः (नित्यः) शश्वत् (ते) त्वयि (सखा, आपिः) सख्यं जनयन् (आगांसि) अपराधान् (कृणवत्) कुर्यात् (यक्षिन्) हे यजनीय परमात्मन् ! सः (एनस्वन्तः) पापेषु (मा) न लिप्येत, (विप्रः) हे सर्वज्ञ ! (स्तुवते) स्तुतिकर्त्रे (वरूथम्) वरणीयं स्वरूपं (यन्धि) भासय यतो वयं ब्रह्मानन्दं (भुजेम) भुञ्जाम ॥६॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (वरुण) हे परमात्मन् ! (ते) तुम्हारे साथ (प्रियः, सन्) प्यार करता हुआ (यः) जो पुरुष (नित्यः) सर्वदा (ते) तुम्हारे साथ (सखा, आपिः) सखिभाव रखता हुआ (आगांसि) पाप (कृणवत्) करता है, (यक्षिन्) हे यजनीय परमात्मन् ! वह (एनस्वन्तः) पापों में (मा) मत प्रविष्ट हो, (विप्रः) हे सर्वज्ञ परमात्मन् ! (स्तुवते) स्तुति करनेवाले उस पुरुष के लिए (वरूथं) वरणीय सर्वोपरि अपने स्वरूप को (यन्धि) आप प्रकाश करें, ताकि हम लोग आपके ब्रह्मानन्द का (भुजेम) भोग करें ॥६॥

    भावार्थ

    जो पुरुष कुछ भी परमात्मा के साथ सम्बन्ध रखता है, वह यदि स्वभाववश कभी पाप में पड़ जाता है, परमात्मा की कृपा से फिर भी उन पापों से निकल सकता है, क्योंकि परमात्मा के आराधन का बल उसे पापप्रवाह से निकाल सकता है। इसी अभिप्राय से कहा है कि परमात्मा परमात्मपरायण पुरुषों के लिए अवश्यमेव शुभस्थान देते हैं ॥६॥

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    विषय

    हम पापी हो कर ईश्वर के दिये धन का भोग न करें ।

    भावार्थ

    हे ( वरुण ) सर्वश्रेष्ठ प्रभो ! राजन् ! तू ( नित्यः ) सदा का ( आपिः ) बन्धु ( प्रियः ) प्रिय ( सन् ) होकर हमें सदा प्राप्त है उस ( त्वाम् ) तेरे प्रति भी ( ते सखा ) तेरा मित्र यह जीव ( आगांसि कृणवत् ) नाना अपराध करता है । हे ( यक्षिन् ) यक्ष 'अर्थात्' पूजा करने वाले भक्त प्रजाजनों के स्वामिन् ! हम लोग ( ते ) तेरे ऐश्वर्य का ( एनस्वन्तः ) पापी होकर ( मा भुजेम ) भोग न करें । तू ( विप्रः ) मेधावी गुरु के समान ( स्तुवते ) स्तुतिशील को ( वरूथं यन्धि ) वरण करने और दुःखों, अज्ञानों के दूर करने योग्य उत्तम गृह, सुख, ज्ञान और बल प्रदान कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ वरुणो देवता ॥ छन्दः – १, २, ३, ६ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ५, ७ विराट् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    मित्रता सदा रहनेवाला मित्र

    पदार्थ

    पदार्थ - हे (वरुण) = प्रभो ! राजन्! तू (नित्यः) = सदा का (आपिः) = बन्धु (प्रियः) = प्रिय (सन्) = होकर हमें प्राप्त है, उस (त्वाम्) = तेरे प्रति (ते सखा) = तेरा मित्र यह जीव (आगांसि कृणवत्) = नाना अपराध करता है। हे (यक्षिन्) = यक्ष 'अर्थात्' पूजा करनेवाले भक्त जनों के स्वामिन् ! हम लोग (ते) = तेरे ऐश्वर्य का (एनस्वन्तः) = पापी होकर (मा भुजेम) = भोग न करें। तू (विप्रः) = मेधावी (स्तुवते) = स्तुतिशील को (वरूथं यन्धि) = वरणीय एवं दुःखों को दूर करने योग्य उत्तम गृह और बल दे।

    भावार्थ

    भावार्थ- परमेश्वर जीव का सदा रहनेवाला मित्र है किन्तु यह अज्ञान के कारण ईश्वर को भूलकर नाना प्रकार के अपराध कर बैठता है इससे वह परमात्मा के द्वारा प्रदत्त ऐश्वर्य का भोग नहीं कर पाता। मनुष्य लोग सुखी रहने के लिए ईश की स्तुति - स्मरण सदैव किया करे ।

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    मन्त्रार्थ

    (वरुण) हे वरने योग्य वरने वाले परमात्मन्! (यः) जो यह मैं उपासक (ते) तेरा (नित्यः) शाश्वतिक (आपिः) तुझे प्राप्त करने का स्वभाव रखने वाला "आप्लृ लम्भने" (चुरादि०) सम्बन्धकर्त्ता (प्रियः सखा सन्) प्रिय समानधर्मी मित्र होता हुआ (त्वाम् आगांसि कृणवत्) तेरे प्रति अपराधों को कर बैठा तेरे आदेशों का उल्लङ्घन कर जन्ममरण में पड गया (यक्षिन्) हे पूजा-स्तुति के पात्र "यक्ष पूजायाम्" (चुरादि०) 'कर्मणि गिनिश्छान्दसः' (मा-एनस्वन्तः) हम पापी न होकर-निष्पाप होकर तेरे समागमरूप आनन्द को भोगें । अतः (विप्रः) तू विशेष प्रीति करने वाला दयालु होता हुआ (स्तुवते वरूथं यन्धि स्म) स्तुति करते हुए मुझ उपासक के लिए दुःखनिवारक वरणीय मोक्षरूप घर को "वरूथं गृहनाम" (निघं ३|४) प्रदान कर रहा-करता रहो ॥६॥

    विशेष

    ऋषिः—वसिष्ठः (उपासक पूर्ववत्) देवता-वरुणः (परमात्मा पूर्ववत्)

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Varuna, lord of judgement and love, if some one who is always your devotee, ever a friend dear to you, by remiss indulges in sin, let him not do so. O lord adorable let us not live this life in sin. O lord of love, omniscient power, bring a home of peace, the bliss of light for the devoted celebrant.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो पुरुष परमात्म्याशी जवळीक साधतो; परंतु स्वभावानुसार कधी कधी तो पापात अडकतो; पण परमात्म्याच्या कृपेने त्या पापापासून दूर होतो. कारण परमात्म्याच्या आराधनेचे बळ त्याला पापप्रवाहापासून दूर करू शकते. परमात्मा परमात्म परायण पुरुषाला अवश्य शुभ स्थान देतो. ॥६॥

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