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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 90 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 90/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वायु: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ई॒शा॒नाय॒ प्रहु॑तिं॒ यस्त॒ आन॒ट् छुचिं॒ सोमं॑ शुचिपा॒स्तुभ्यं॑ वायो । कृ॒णोषि॒ तं मर्त्ये॑षु प्रश॒स्तं जा॒तोजा॑तो जायते वा॒ज्य॑स्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ई॒शा॒नाय॑ । प्रऽहु॑ति॒म् । यः । ते॒ । आन॑ट् । शुचि॑म् । सोम॑म् । शु॒चि॒ऽपाः॒ । तुभ्य॑म् । वा॒यो॒ इति॑ । कृ॒णोषि॑ । तम् । मर्त्ये॑षु । प्र॒ऽश॒स्तम् । जा॒तः॑ऽजा॑तः । जा॒य॒ते॒ । वा॒ज्य॑स्य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईशानाय प्रहुतिं यस्त आनट् छुचिं सोमं शुचिपास्तुभ्यं वायो । कृणोषि तं मर्त्येषु प्रशस्तं जातोजातो जायते वाज्यस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ईशानाय । प्रऽहुतिम् । यः । ते । आनट् । शुचिम् । सोमम् । शुचिऽपाः । तुभ्यम् । वायो इति । कृणोषि । तम् । मर्त्येषु । प्रऽशस्तम् । जातःऽजातः । जायते । वाज्यस्य ॥ ७.९०.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 90; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वायो) हे वायुविद्याज्ञातः ! (शुचिपाः) शुद्धद्रव्यपातः ! (तुभ्यम्) त्वदर्थं (सोमम्) सोमरसं (शुचिम्) पवित्रं (यः) यो जनः (ते) तव (आनट्) ददाति (तम्) तं नरं (मर्त्येषु) लोकेषु (प्रशस्तम्) उत्कृष्टं करोमि (जातः जातः) जन्मनि जन्मनि (अस्य) अस्य सोमदातुः (वाजी) बलम् (जायते) उत्पद्यते, यश्च (ईशानाय) ईश्वराय (प्रहुतिम्) ऐश्वर्यं समर्पयति तम् (कृणोषि) ऐश्वर्यशालिनं करोमि ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वायो) हे वायुविद्यावेत्ता विद्वन् ! (शुचिपाः) सुन्दर पदार्थों को पान करनेवाले (तुभ्यं) तुम्हारे लिये (सोमं) सोम रस (शुचिं) जो पवित्र है, उसका (यः) जो (ते) तुम्हारे लिये (आनट्) देता है, (तं) उसको मैं (मर्त्येषु) मनुष्यों में (प्रशस्तं) उत्कृष्ट बनाता हूँ, (जातः जातः) जन्म-जन्म में (अस्य) उसको (वाजी) बहुत बलवाला (जायते) उत्पन्न करता हूँ और जो (ईशानाय) ईश्वर के लिये (प्रहुतिं) ऐश्वर्य्य अपर्ण करता है, उसको मैं (कृणोषि) ऐश्वर्यशाली बनाता हूँ ॥२॥

    भावार्थ

    जो लोग विद्वानों को धन देते हैं, वे सर्वदा ऐश्वर्यसम्पन्न होते हैं और जो लोग ईश्वरार्पण कर्म करते हैं अर्थात् निष्काम कर्म करते हैं, परमात्मा उनको सदा ऐश्वर्यशाली बनाता है ॥२॥

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    विषय

    बलवान् सेनापति के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (वायो ) बलवन् ! हे विद्वन् ! (यः) जो ( शुचि-पाः ) शुद्ध आचार, शुद्ध व्यवहार का पालन करने वाला पुरुष ( ते ईशानाय ) तुझ सर्वैश्वर्यवान् का (शुचिं सोमं ) शुद्ध अन्नादि, शुद्ध ऐश्वर्य, और (प्रहुतिं) सर्वोत्तम दान ( आनट् ) प्राप्त कराता है, ( तं ) उसको तू ( मर्त्येषु ) मनुष्यों के बीच ( प्रशस्तं कृणोषि ) प्रशस्त, कर्मकुशल एवं उत्तम मान योग्य बना देता है और वह ( जातः-जातः) उत्तम रूप प्रकट हो २ कर ( अस्य ) इस प्रजाजन के बीच ( वाजी ) ज्ञानवान्, ऐश्वर्यवान् और बलवान् ( जायते ) हो जाता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ १—४ वायुः। ५—७ इन्द्रवायू देवते । छन्दः—१, २, ७ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ४, ५, ६ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विद्वान् के संग से लाभ

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (वायो) = विद्वन् ! (यः) = जो (शुचि-पा:) = शुद्ध आचार, व्यवहार का पालक पुरुष (ते ईशानाय) = तुम सर्वैश्वर्यवान् का (शुचिं सोमं) = शुद्ध अन्नादि, ऐश्वर्य और (प्रहुतिं) = सर्वोत्तम दान (आनट्) = प्राप्त कराता है, (तं) = उसको तू (मर्त्येषु) = मनुष्यों के बीच (प्रशस्तं कृणोषि) = कर्मकुशल बना देता है और वह (जातः जातः) = उत्तम रूप से प्रकट होकर (अस्य) = इस प्रजाजन के बीच (वाजी) = ज्ञानवान्, बलवान् (जायते) = हो जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- विद्वानों के संग में आनेवाला मनुष्य व्यवहार कुशल होकर ज्ञानी व दानी स्वभाववाला होजाता है। इससे वह प्रजा जनों के मध्य में जाकर प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है-

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Vayu, ruler, controller and giver of energy, whoever the person makes an offering to you with yajna for energy and serves you with pure soma of delight, you raise him to honour and fame among mortals and, O protector, promoter and lover of purity and energy, he grows stronger and more powerful as he emerges in one manifestation and birth after another.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक विद्वानांना धन देतात ते सदैव ऐश्वर्यसंपन्न होतात व जे लोक ईश्वराला कर्म अर्पण करतात. अर्थात, निष्काम कर्म करतात त्यांना परमात्मा सदैव ऐश्वर्यवान बनवितो. ॥२॥

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